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श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जनसंघ के लिए मांगी मदद तो 'गुरुजी' ने दी थीं 'सोने की ये 5 मुद्राएं'

18-05-2024
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माधव सदाशिवराव गोलवलकर 'गुरुजी' (Photo: Getty

वो 1950 का दौर था. स्वतंत्र भारत के पहले चुनाव सालभर दूर थे. हिंदू महासभा छोड़ने के बाद श्यामा प्रसाद मुखर्जी एक नए दल का गठन करना चाहते थे. इसके लिए डॉ. मुखर्जी दिल्ली से 1000 किलोमीटर की यात्रा करके नागपुर पहुंचे. वे वहां एक पुराने औपनिवेशिक बंगले पर गए, जिसमें पहले कभी वीर सावरकर रहा करते थे. लेकिन अब तत्कालीन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख वहां उनका इंतज़ार कर रहे थे. डॉ. मुखर्जी ने नए दल की स्थापना के लिए माधव सदाशिवराव गोलवलकर 'गुरुजी' की सहायता मांगी, लेकिन गोलवलकर ने मुखर्जी की मदद करने से मना कर दिया. 

'गुरुजी' के इनकार के बाद भी मुखर्जी हतोत्साहित नहीं हुए. वे जानते थे कि 1948 के प्रतिबंध से मिली गहरी चोट के बाद RSS में इतने लोग थे, जो 'राजनीतिक सुरक्षा' प्राप्त करना चाहते थे. श्यामा प्रसाद इतने आत्मविश्वासी थे कि वे हिंदू महासभा के तत्कालीन अध्यक्ष से मिले और उन्हें हिंदू महासभा को समेटकर अपनी नई पार्टी में शामिल होने के लिए कहा.

समय बीता और 4 महीने बाद श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने नए दल की योजना बनाने के लिए एक बैठक बुलाई. यह कदम सरदार पटेल के निधन के तथ्य से भी प्रभावित था. उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि उस बैठक में आरएसएस के नेता भी मौजूद हों. बैठक में यह सुझाव दिया गया कि 'गुरुजी' (यानी गोलवलकर) को इस संगठन को समर्थन देने के लिए मनाया जाए. इसका कारण ये बताया गया कि आरएसएस एक सशक्त स्वयंसेवक संगठन है और उसके पास फलती-फूलती प्रेस है. उसमें कई प्रतिभावान कार्यकर्ता है. 

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श्यामा प्रसाद मुखर्जी (फाइल फोटो)

गोलवलकर ने मुखर्जी को दीं 'सोने की ये पांच मुद्राएं'

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दीनदयाल उपाध्याय (Photo: deendayalupadhyay.org)

विनय सीतापति अपनी किताब 'जुगलबंदी' में लिखते हैं कि राजनीति से दूर रहने की गोलवलकर की आज्ञा से उनके अपने ही सहायकों को परेशानी थी. किसी दूसरे समूह में इस प्रकार की आधारभूत असहमति के कारण फूट पड़ सकती थी, लेकिन गोलवलकर ने एकता के लिए अपने अहम को त्याग दिया. उन्होंने नई पार्टी के गठन में श्यामा प्रसाद मुखर्जी का समर्थन करने का निर्णय लिया. उन्होंने मुखर्जी से वादा किया कि 'मैं तुम्हे सोने की पांच मुद्राएं दूंगा'. ये 'मुद्राएं' कौन थीं, ये जानना बेहद दिलचस्प है. दरअसल, गोलवलकर के आश्वासन के बाद जल्दी ही कुछ आरएसएस नेताओं को नई पार्टी में भेज दिया गया. 'गुरुजी' ने मुखर्जी को सोने की जो पांच 'मुद्राएं' दीं, उनमें दीनदयाल उपाध्याय, सुंदर सिंह भंडारी, नानाजी देशमुख, बापूसाहेब सोहनी और बलराज मधोक शामिल थे.

पार्टी के नाम में 'हिंदू' शब्द न आए

कुछ महीनों के बाद 21 अक्टूबर 1951 को 400 प्रतिनिधियों की बैठक में 'भारतीय जनसंघ' की स्थापना की गई. पार्टी के घोषणापत्र में 'मूल सिद्धांत' 'एक भूभाग, 'एक राष्ट्र, 'एक संस्कृति' और 'एक धर्मराज्य, धर्मशासित राज्य नहीं, बल्कि विधि के शासन" की बात कही गई थी. उसका चुनाव चिह्न जलती लौ वाला दीया था. जनसंघ की स्थापना के दौरान मंच पर देवी-देवताओं के चित्र अवश्य लगे थे, लेकिन मुखर्जी ने सुनिश्चित किया कि पार्टी के नाम में 'हिंदू' शब्द न आए. स्थापना के समय लिए गए इन निर्णयों ने जनसंघ और आरएसएस कार्यकर्ताओं, आस्तिकों और नास्तिकों के बीच एक अनिश्चय की स्थिति पैदा कर दी, लेकिन आरएसएस ने उग्र नीति से बचने का ध्यान रखा और गोलवलकर ने इन प्रारंभिक वर्षों में अपनी धर्मनिष्ठता पर लगाम लगाए रखी. बता दें कि भारतीय जनसंघ ने ही आगे चलकर मौजूदा भारतीय जनता पार्टी का रूप लिया.

कैसे बना RSS से तालमेल?

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श्यामा प्रसाद मुखर्जी.

भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अपने जोशीले अध्यक्षीय भाषण में भारत के विभाजन के लिए जवाहरलाल नेहरू को दोषी ठहराया. साथ ही हिंदू महासभा से अलग दृष्टिकोण दिखाते हुए उन्होंने वादा किया कि नई पार्टी की सदस्यता सभी धर्म के लोगों के लिए होगी, इसी मुद्दे पर उन्होंने 1948 में महासभा को छोड़ दिया था. आरएसएस का एक व्यक्ति राजनीतिक घटनाक्रम में बड़ी भूमिका निभाने वाला था.लॉजिस्टिक्स के प्रति झुकाव रखने वाले, महीन मूंछों और मोटे चश्मे वाले दुबले-पतले ये व्यक्ति थे दीनदयाल उपाध्याय. बहुत कम आयु में अनाथ होने वाले दीनदयाल ने कई नज़दीकी रिश्तेदारों को खोया था. ऐसे मुश्किल हालात झेल चुके दीनदयाल उपाध्याय को आरएसएस में एक स्थायी परिवार मिल गया था. मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय की शुरुआती जोड़ी से यह स्पष्ट था कि उन्हें 2 प्रकार के राजनीतिज्ञ चाहिए थे. संसद को शांत कर सकने वाले वक्ता और कार्यकर्ताओं को साथ लेकर चलने वाले संगठक. 

ऐसा था देश का पहला चुनाव

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भारत का पहला चुनाव. (Photo: Getty)

अक्टूबर 1951 में जनसंघ की स्थापना के 4 दिन बाद भारतीय इतिहास के पहले स्वतंत्र चुनावों की शुरुआत हुई. ये चुनाव संसदीय लोकतंत्र की वेस्टमिन्स्टर प्रणाली पर आधारित थे. पूरे देश को निर्वाचन क्षेत्रों में बांटा गया था और हर राजनीतिक दल को प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में अपना उम्मीदवार खड़ा करना था. किसी निर्वाचन क्षेत्र में सबसे ज्यादा वोट पाने वाला उम्मीदवार सांसद बनता. जिस दल के सबसे अधिक सांसद होते, वह प्रधानमंत्री का चुनाव कर सरकार का गठन करता. लगभग 17 करोड़ 60 लाख भारतीय, 224,000 मतदान बूथों पर 56,000 अफसरों, 2,80,000 सहायकों और 2,24,000 पुलिसकर्मियों की निगरानी में अपने मताधिकार का उपयोग कर सकते थे.

जनसंघ का कांग्रेस से था मुकाबला 

चुनाव में कांग्रेस का मुकाबला श्यामाप्रसाद मुखर्जी कर रहे थे. उनके चुनावी भाषण जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान पर हमले बोलकर भीड़ को अपनी ओर खींच रहे थे, लेकिन यह बात वे भी भलीभांति जानते थे कि जनसंघ को 'नेहरूवादी मुख्यधारा' के भीतर ही काम करना था. उनकी पार्टी ने किसानों, महिलाओं और अनुसूचित जातियों के प्रति प्रेम व्यक्त किया और अर्थव्यवस्था में राज्य के हस्तक्षेप का विरोध नहीं किया. 1950 के दशक में एक औसत मतदाता नेहरू के भारत के विचार के अनुसार चलता था, इसलिए मुखर्जी को भी ऐसा ही करना उचित लगा.

पहले चुनाव में तीन सीटें जीती थीं जनसंघ ने

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(Photo: Getty)

भारतीय जनसंघ ने पहले आम चुनाव (1951-52) में सिर्फ तीन सीटों पर जीत हासिल की थी.  श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दुर्गा चरण बनर्जी बंगाल से और उमा शंकर त्रिवेदी राजस्थान से चुने गए. श्यामा प्रसाद कोलकाता साउथ-ईस्ट सीट से, दुर्गाचरण बनर्जी मिदनापुर-झारग्राम सीट से और उमाशंकर त्रिवेदी चित्तौड़ सीट से चुनाव जीते थे. बता दें कि जनसंघ ने अपने पहले चुनाव में 94 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे.

...और मुखर्जी नहीं रहे

8 मई 1953 को डॉ. मुखर्जी ने बिना परमिट जम्मू-कश्मीर की यात्रा शुरू कर दी. जम्मू में प्रवेश के बाद डॉ. मुखर्जी को वहां की शेख अब्दुल्ला सरकार ने 11 मई को गिरफ्तार कर लिया. गिरफ्तारी के महज 40 दिन बाद 23 जून 1953 को खबर आई कि मुखर्जी का निधन हो गया है.