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बनते-बनते नष्ट हो जाता था श्रीमंदिर, आखिर पुरी में कैसे स्थापित हुआ जगन्नाथ धाम

ओडिशा के पुरी में हर साल निकलने वाली रथयात्रा जितनी प्रसिद्ध है, उससे भी कहीं अधिक रोचक है यहां श्री मंदिर का इतिहास और उसमें भगवान जगन्नाथ के विराजने की कथा. पुरी का यह क्षेत्र पुराणों में सप्त पुरियों में से एक है, जिसे स्कंद पुराण में पुरुषोत्तम क्षेत्र, धरती का वैकुंठ तीर्थ और श्रीकृष्ण के शरीर के नील मेघ श्याम रंग के कारण नीलांचल कहा जाता है. माना जाता है कि जगन्नाथ भगवान स्वयं ही श्रीकृष्ण हैं. द्वापर युग में जब उनके जन्म का उद्देश्य पूरा हो गया तो वह अपने गोलोक धाम वापस चले गए, लेकिन पृथ्वी ने उनसे किसी न किसी रूप में यहीं निवास करने की प्रार्थना की. तब भगवान ने समय आने पर उनकी इच्छा पूरी होने का वचन दिया.

अपने प्रिय भक्तों की बात सुनने वाले भगवान उत्तर में बद्री विशाल के रूप में विराजमान हैं. दक्षिण में उनके श्रीनिवास तिरुपति और गुरुवयूर नाम से धाम स्थापित हैं. द्वारिका में वह द्वारिकाधीष हैं और मथुरा वृंदावन में उनकी बांके बिहारी वाली छवि दर्शनीय है. इसी क्रम में उनका दिव्य विग्रह पुरी के जगन्नाथ मंदिर में स्थापित है जो अब ओडिशा प्रांत में है. भगवान का यह श्री मंदिर यहां कैसे बना और विग्रह भी कैसे स्थापित हुआ इसकी एक रोचक कथा है. 

द्वापर युग में जब माता रोहिणी से अपने बालपन की कथा सुनकर श्रीकृष्ण, बलभद्र और सुभद्रा जड़वत हो गए थे, तब देवर्षि नारद ने सबसे पहले उनके इस स्वरूप के दर्शन किए थे. उन्होंने भगवान से पूछा कि, यह आपका कौन सा रूप है और मुझे भविष्य में किसी अद्भुत घटना के घटने का अनुभव क्यों हो रहा है? मैं आपके इस भाई-बहन वाले स्वरूप के फिर से दर्शन करना चाहता हूं. तब श्रीकृष्ण ने कहा था मेरा यह स्वरूप कलियुग में प्रकट होगा, और मैं अपने ही एक खास नाम 'नील माधव' के रूप में जाना जाऊंगा. नील माधव श्रीकृष्ण का ही एक नाम है. महाभारत के युद्ध समाप्ति के 55 वर्ष बाद द्वारिका में भी आपसी संघर्ष हुआ और सारा यदुवंश समाप्त हो गया. एक दिन श्रीकृ्ष्ण वन में लेटे हुए थे कि इसी दौरान एक बहेलिए ने उनके पांव में तीर मार दिया. श्रीकृष्ण के इस धरा से जाते ही युग परिवर्तन हो गया और कलियुग की शुरुआत हुई. इसी कलियुग में तब के मालवा क्षेत्र में एक राजा था इंद्रद्युम्न. वह श्रीकृष्ण का भक्त था और प्रजा का पालक भी. उसके राज्य में कोई कमी नहीं थी. राजा की पत्नी गुंडिचा भी राजा की ही तरह प्रजा पालक थी और उन्हें संतान जैसा ही स्नेह करती थी.

राजा का नियम था कि वह अपने दिन की शुरुआत कृष्ण पूजा से करता था और फिर राज दरबार के काम पूरे कर जब सोने जाता तो उससे पहले श्रीकृष्ण को सुलाकर तब सोता. इसी तरह एक रात उसने सपने में देखा कि वह एक सरोवर के किनारे बैठा ध्यान कर रहा है. वातावरण बहुत ही सुंदर है. इतने में एक कौवा कांव-कांव करते हुए शोर मचाते हुए वहां आया, जिसकी आवाज सुनकर राजा का ध्यान भंग हुआ. राजा ने देखा कि प्यासे कौवे ने जैसे ही सरोवर का जल पीया, उसके प्रभाव से वह एक दिव्य पुरुष में बदल गया. इतने में वैकुंठ का एक पार्षद रथ लेकर आसमान से उतरा और उसे वैकुंठ ले गया. राजा बहुत चकित था. उसने इधर-उधर नजर दौड़ाई तो सामने एक गुफा नजर आई जिसके मुहाने से नीला प्रकाश निकल रहा था. ऐसा सपना देखते हुए राजा की आंख खुल गई और वह उठ बैठा.

राजा बहुत परेशान हुआ कि इस सपने का क्या अर्थ हो सकता है? दूसरा, राजा इस बात से भी परेशान था कि इस सपने की हर घटना उसे बहुत स्पष्ट याद थी कि जैसे वह खुद असलियत में उसे देख रहा था. राजा ने कई ज्योतिषी, गुणी और जानकार बुलवाए. राज्य के सर्वश्रेष्ठ चित्रकारों को भी बुलवाया गया जो कि राजा के सपने की घटना के अनुसार चित्र बना सकें और अगर वह स्थान वाकई में है तो उसे पहचाना जा सके.

कई दिनों की खोजबीन और शोध के बाद एक ज्योतिषी ने कहा कि पुराणों में ऐसे एक स्थान का वर्णन है. जहां दिव्य सरोवर है और पवित्र गुफा भी है. इसे नीलांजन क्षेत्र कहा जाता रहा है, लेकिन समय के साथ वह क्षेत्र विलुप्त है. हो सकता है कि श्रीकृष्ण आपको आदेश दे रहे हैं कि उस क्षेत्र को खोजकर सबके सामने लाया जाए ताकि सभी उसका लाभ ले सकें और लोक कल्याण हो सके. राजा को ज्योतिषी की बात सही लगी. उसने उसी दिन श्रीकृष्ण के अखंड व्रत का संकल्प लिया और आसन-शैया (गद्दे-बिस्तर पलंग) का त्याग कर दिया. राजा का प्रण था कि जब तक श्रीकृष्ण उसे संकेत नहीं देंगे तबतक वह अपना प्रण नहीं छोड़ेगा. 

इसी तरह एक दिन ध्यान करते हुए राजन को समुद्र तट दिखाई दिया. फिर अचानक उसकी लहरें ऊंची उठीं और फिर जब शांत हुईं तो वहां एक भव्य मंदिर दिखाई दिया. राजन को संकेत मिल गया था. अब उसे एक मंदिर का निर्माण कराना था. उसने इस बारे में अपने दरबार में सलाह ली और उचित तिथि को मंदिर बनना शुरू हो गया. पर यह क्या? जैसे ही मंदिर बनने का काम कुछ शुरू होता, समुद्र की तेज लहरें आकर सारा निर्माण ध्वस्त कर देती थीं. ऐसा एक-दो बार नहीं बल्कि छह बार हुआ. राजा बहुत चिंतित हुआ, क्योंकि इससे उसका राजकोष भी खाली हो रहा था. प्रण भी पूरा नहीं हो रहा था और प्रजा भी संकट में आ जाए ऐसी स्थिति बन रही थी.

इसी संकट में एक दिन राजा ने देखा कि एक बंदर समुद्र तट पर अठखेलियां कर रहा था. इसी समय ज्वार आया लेकिन वानर इससे भयभीत नहीं हुआ. यह देखकर राजा को विचार कौंधा और वह समझ गया कि वह क्या भूल कर रहा है. उसने तुरंत ही श्रीकृष्ण का स्मरण किया तो उन्होंने राजा को रथ पर बैठे हुए दर्शन दिए, जिसकी ध्वजा पर वानर चिह्न था. राजा ने अब हनुमान जी की स्तुति की और उनसे मंदिर निर्माण के प्रण को पूरा करने की सहायता मांगी. कहते हैं कि राजा की विनती पर हनुमान जी प्रकट हुए और उन्होंने राजा को आशीर्वाद दिया कि तुमने अपनी भक्ति को हर पल सिद्ध किया है, इसलिए आज से यह क्षेत्र सिद्धक्षेत्र कहलाएगा. मैं यहां हमेशा सूक्ष्म रूप में निवास करूंगा. इसके बाद हनुमान जी सागर तट की ओर मुंह करके बैठ गए. फिर समुद्र ने मंदिर निर्माण स्थल को नहीं डुबोया और श्रीमंदिर अपना वास्तविक आकार पा सका.

जगन्नाथ मंदिर में पूर्व दिशा की ओर जिधर समुद्र है, वहां आंजनेय मंदिर बना हुआ है. इन्हें बेड़ी वाले हनुमान जी और श्रीकृष्ण के ही नाम पर बेड़ी माधव भी कहते हैं. जगन्नाथ मंदिर में दर्शन करने जाने वाले श्रद्धालु बेड़ी हनुमान के दर्शन भी जरूर करते हैं. हनुमान जी की स्थापना से मंदिर निर्माण पूरा हुआ और इस तरह राजा इंद्रद्युम्न का एक संकल्प भी पूर्ण हुआ.

पढ़ें पहला हिस्साः न भुजाएं-न चरण, बड़ी-बड़ी आंखें...पुरी के जगन्नाथ मंदिर में ईश्वर का स्वरूप ऐसा क्यों है!

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Credits

Illustration: Vani Gupta