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जब ब्रह्मा को मारने दौड़े भगवान विष्णु के कान से जन्मे दो दैत्य, जानिए दुर्गा सप्तशती का ये रहस्य

भारत के सबसे प्राचीन और सबसे पहले लिखित दस्तावेजों में शामिल चारों वेदों में जो मंत्र और ऋचाएं शामिल हैं, उनके आराध्य देवता पुराणों में अलग-अलग किरदारों में दिखाई देते हैं. हर पुराण का आधार एक प्रमुख देवता है और इनमें भी त्रिदेवों का महत्व इंद्र, सूर्य, मित्रावरुण और यम से कहीं अधिक बताया गया है. जैसे विष्णु पुराण, हरिवंश पुराण, भविष्य पुराण, कूर्म पुराण और गरुण पुराण में प्रमुख देवता भगवान विष्णु हैं तो शिव पुराण, लिंग पुराण आदि के मुख्य देवता शिव हैं. त्रिदेवों की इस संज्ञा के बीच लगभग हर जगह एक विशेष 'शक्ति' शब्द का प्रयोग होता है और कहा जाता है कि इसी शक्ति से संसार संचालित होता है. वही शक्ति ब्रह्नांड की उत्पत्ति में है और वही शक्ति जीवन के भी होने में है. वेदों में जहां इस शक्ति को प्रकृति कहा गया है तो पुराणों में यही शक्ति देवी रूप में सामने आते हुए त्रिदेवों की ही तरह त्रिदेवियों के तौर पर सामने आती है.

ब्रह्ना की शक्ति ब्राह्मी, जिसे महासरस्वती कहते हैं, विष्णु की शक्ति को महालक्ष्मी कहते हैं और शिव की शक्ति को महाकाली का नाम दिया जाता है. देवी के स्वरूप और उनके महात्म्य को समझाने के लिए महर्षि मार्कंडेय ने मार्कंडेय पुराण की रचना की थी. इसी पुराण का एक हिस्सा है दुर्गा सप्तशती. 700 श्लोकों के इस संग्रह में देवी का प्राकट्य कैसे हुआ, उनकी उत्पत्ति कैसे हुई और उन्होंने संसार के कल्याण के साथ धर्म की स्थापना के लिए क्या प्रमुख कार्य किए उनका संपूर्ण वर्णन है. देवी के महत्व की यह कथा महर्षि मेधा ने राजा सुरथ और समाधि वैश्य को सुनाई थी. इसके सुनने से दोनों का कल्याण हुआ था.

अभी ऊपर जिन तीन शक्तियों का जिक्र हुआ है, असल में वह भी एक महाशक्ति के तीन स्वरूप हैं. इस महाशक्ति के स्वरूप का नाम देवी भुवनेश्वरी है और इन्हें त्रिपुर सुंदरी भी कहते हैं. देवी त्रिपुर सुंदरी सृजन, ममता, वात्सल्य, पोषण, सेवा, स्वास्थ्य, हास, समृद्धि और दंड की देवी हैं. देवी के यही नौ विशेषण नौ अलग-अलग देवियों का स्वरूप लेकर प्रकट हुए जिन्हें नवदेवियां कहा जाता है और नवरात्र के नौ दिनों में देवी के इन्हीं संज्ञा स्वरूप की अलग-अलग नामों से पूजा होती है. देवी त्रिपुर सुंदरी ही अलग-अलग अंशों के रूप में विभक्त होकर ब्रह्ना-विष्णु और महेश की शक्ति बनकर सहायता करती हैं. जब भगवान विष्णु योगनिद्रा में लीन होते हैं तो देवी उनके मस्तक के बीच आज्ञा चक्र में स्थित होकर सारे संसार का ध्यान रखती हैं और योगमाया कहलाती हैं.

इन योगमाया का प्रकट स्वरूप कैसे सामने आया, दुर्गा सप्तशती की कथा यहीं से शुरू होती है. राजा सुरथ के जिज्ञासा भरे प्रश्न पूछने पर महर्षि मेधा कहना शुरू करते हैं, हे राजन- प्रलय काल के बाद जब सृष्टि एक बार फिर स्थिर हुई और सृजन की शुरुआत होने को हुई, ठीक इसी समय रज और तमोगुण के असंतुलन के कारण दो दैत्यों का जन्म हुआ. विष्णु पुराण के अनुसार भगवान विष्णु के कान के मैल से मधु जन्मा और पसीने से कैटभ. इन मधु और कैटभ ने चारों ओर जल ही जल देखा तो वह उसमें खेलने लगे और शोर मचाने लगे. इस तरह का कोलाहल सुनकर ब्रह्म देव के सृष्टि निर्माण के कार्य में बाधा आने लगी तो उन्होंने आंख खोलकर देखा कि दो दैत्य क्षीरसागर में कोलाहल कर रहे हैं. ब्रह्मदेव उन्हें रोकने आए तो मधु और कैटभ उन्हें ही खाने के लिए दौड़ पड़े.

अपने बचाव का कोई और उपाय न देखकर ब्रह्म देव ने भगवान विष्णु को जगाने की कोशिश की, लेकिन वह योगनिद्रा में थे तो ऐसे में ब्रह्मा जी शक्ति को ही प्रकट होने के लिए पुकारने लगे. ब्रह्मदेव ने माता, अंबा और देवी कहकर योगनिद्रा की स्तुति की और उनसे भगवान विष्णु को जगाने की विनती करने लगे.

सप्तशती में इसका वर्णन कुछ इस तरह श्लोकों में किया गया है.
ब्रह्मोवाच ॥72॥
ब्रह्माजी ने कहा ॥72॥
त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं हि वष्‌टकारः स्वरात्मिका।
सुधा त्वं अक्षरे नित्ये तृधा मात्रात्मिका स्थिता ॥73॥

देवी! तुम्हीं स्वाहा, तुम्हीं स्वधा, तुम्हीं वषट्कार (पवित्र आहुति मन्त्र) हो. स्वर भी तुम्हारे ही स्वरूप हैं. तुम्हीं जीवदायिनी सुधा हो. नित्य अक्षर प्रणव में अकार, उकार, मकार - इन तीन अक्षरों के रूप में तुम्हीं स्थित हो ॥73॥

अर्धमात्रा स्थिता नित्या इया अनुच्चारियाविशेषतः।
त्वमेव सन्ध्या सावित्री त्वं देवी जननी परा ॥74॥

तीन अक्षरों के अतिरिक्त जो बिन्दुरूपा नित्य अर्धमात्रा है, जिसका विशेषरूप से उच्चारण नहीं किया जा सकता, वह भी तुम्हीं हो. तुम्हीं सन्ध्या, तुम्हीं सावित्री तुम्हीं समस्त देवीदेवताओं की जननी हो. ॥74॥

त्वयेतद्धार्यते विश्वं त्वयेतत् सृज्यते जगत।
त्वयेतत् पाल्यते देवी त्वमत्स्यन्ते च सर्वदा ॥75॥

तुम्हीं इस विश्व ब्रह्माण्ड को धारण करती हो, तुमसे ही इस जगत की सृष्टि होती है. तुम्हीं सबकी पालनहार हो, और सदा तुम्ही कल्प के अन्त में सबको अपना ग्रास बना लेती हो। ॥75॥

विसृष्टौ सृष्टिरूपा त्वं स्थितिरूपा च पालने।
तथा संहृतिरूपान्ते जगतोऽस्य जगन्मये ॥७६॥
हे जगन्मयी देवी! इस जगत की उत्पत्ति के समय तुम सृष्टिरूपा हो और पालनकाल में स्थितिरूपा हो. हे जगन्मयी मां! तुम कल्पान्त के समय संहाररूप धारण करने वाली हो।॥76॥

महाविद्या महामाया महामेधा महास्मृतिः।
महामोहा च भवती महादेवी महेश्वरी ॥77॥

तुम्हीं महाविद्या, तुम्हीं महामाया, तुम्हीं महामेधा, तुम्हीं महास्मृति हो, तुम्हीं महामोहरूपा, महारूपा तथा महासुरी हो। ॥77॥

ब्रह्माजी के इस तरह पुकारने पर देवी योगनिद्रा प्रकट होती हैं और उनकी इच्छा से भगवान विष्णु की नींद खुल जाती है. यहां पहली बार देवी का दिव्य तेज स्वरूप में प्रकट होना बताया गया है. देखते ही देखते वह तेजपुंज एक स्त्री की आकृति ले लेता है, जो संसार में सबसे सुंदर, शोभनीय और ममता से भरी हुई हैं. यही देवी भगवान विष्णु को दोनों असुरों के विनाश के लिए प्रेरित करती हैं.

दुर्गा सप्तशती के प्रथम अध्याय में मधु और कैटभ नाम के जिन दो दैत्यों का जिक्र मिलता है, एक तरह से उनकी समानता ब्रह्मा से हो सकती है. क्योंकि ब्रह्मा की भी उत्पत्ति भगवान विष्णु के नाभिकमल से हुई है तो मधु कैटभ भी उनके ही शरीर से जन्मे हैं.

ये दोनों नाम एक प्रतीक भी हैं. मधु प्रतीक है, चाटुकारिता का और कैटभ प्रतीक है निंदा- कुटिलता का. कान से इनका जन्म होने का अर्थ है हमें मीठी मीठी चाटुकारिता भरी बातों से बचना चाहिए और इतनी ही दूरी कुटिलता या निंदा से भी बनाए रखनी चाहिए. हद से अधिक मीठी बातें और किसी की निंदा ये दो ऐसे दैत्य हैं जो आपके कान में ही जाकर पैदा होते हैं और फिर आपकी ही रचनात्मक ताकत को खत्म करते हैं. इनसे बचने का एक ही उपाय है कि समय रहते आप नींद से जागिए और इन दोनों का अंत कीजिए. 

सृष्टि के प्रारम्भ में भी ऐसा ही हुआ. जब मधु कैटभ दैत्य उत्पन्न हुए, तो वह विशाल जल राशि में खेलने-कूदने- बढ़ने लगे, फिर सोचा कि हमारे माता-पिता कौन हैं? जब वे दोनों इस तरह विचार कर रहे थे, तभी वाग्बीज ‘ऐं’ सुनाई दिया. सरस्वती के बीजमंत्र ‘ऐं’ का मधु-कैटभ निरन्तर जप करने लगे. उन्हें तपस्या की धुन लग गई. एक हजार साल के कठोर तप के बाद शक्ति ने उनसे पूछा कि क्या वर चाहते हो?  तब मधु कैटभ ने इच्छा मृत्यु का वरदान मांग लिया. जो जन्म लिया है वह मरेगा और जो उत्पन्न हुआ है वह नष्ट होगा ही, शक्ति ने भी सोचा कि इन्होंने अभिमान में आकर इच्छा मृत्यु मांगी है, अमरता भी मांग सकते थे, खैर... शक्ति ने उनकी इच्छा के अनुसार वरदान दे दिया.

यह वरदान पाकर मधु-कैटभ ब्रह्माजी की ओर लपके. उन्हें चेतावनी देकर कहने लगे कि या तो हमसे युद्ध कीजिए नहीं तो ये जो पद्मासन पर आप बैठे हैं, उसे छोड़ दीजिए? तब ब्रह्मा जी ने शक्ति की स्तुति की.

ब्रह्मा जी की स्तुति के बाद शक्ति की प्रेरणा से भगवान विष्णु जागे और मधु और कैटभ के साथ भयंकर युद्ध करने लगे. युद्ध पांच हजार साल तक चलता ही रहा और इतने भयंकर युद्ध के बाद भी मधु कैटभ नहीं थके, बल्कि भगवान विष्णु थक गए.

देवी भागवत के प्रथम स्कंध में इस घटना का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि

पञ्च वर्ष सहस्राणि भयायुद्धं कृतं किल
न श्रान्तौ दानवौ घोरो श्रान्तो अहं च अति अद्भुतम्

भगवान विष्णु को थका हुआ देखकर मधु और कैटभ कहते हैं कि ‘‘लगता है तुम थक गए हो, इसलिए हमारी चाकरी स्वीकार कर लो और अगर प्रस्ताव नामंजूर है तो युद्ध करो. तुम्हें मारकर हम इस चार मुख वाले ब्रह्मा को भी मार देंगे. ’’
 

भगवान विष्णु ने यहां साम नीति का प्रयोग करते हुए सोचा कि अभी कुछ देर आराम करना ही ठीक है. इस तरह वह बहाने से इस बारे में सोचने लगे कि आखिर इन दोनों की इस अपार शक्ति का राज क्या है?  ऐसा सोचते हुए वह मां शक्ति का ध्यान करते हैं, तब देवी अपने चतुर्भुज स्वरूप में प्रकट होती हैं और इच्छा मृत्यु का रहस्य बताती हैं और मृत्यु का उपाय भी बताती हैं.

देवी से मधु कैटभ की मृत्यु का उपाय जानकर भगवान विष्णु फिर से दोनों को युद्ध के लिए ललकारते हैं और कहते हैं कि आप दोनों बहुत वीर हैं, पराक्रमी हैं, आपसे युद्ध करके मैंने कई दांव सीखे, मैं आपसे बहुत प्रसन्न हूं इसलिए आप मुझसे जो चाहे वो वर मांग लीजिए. 
अभिमान से भरे मधु कैटभ ये सुनकर हंसने लगते हैं और कहते हैं कि तुम जो अभी तक हमसे जीत नहीं पाए तुम हमें क्या वर दोगे, चाहो तो हमसे ही कुछ मांग लो, हम मना नहीं करेंगे,  मांगो, वर मांगो, हमसे वर मांगो.

उनके इस तरह बार बार कहने पर भगवान विष्णु कहते हैं कि ठीक है अगर कुछ देना ही चाहते हो तो तुम दोनों मेरे हाथ से मारे जाओ. ये वरदान सुनकर मधु कैटभ फंस गए थे, उन्हें इसका आभास हुआ लेकिन वे अब पीछे तो हट नहीं सकते थे, इसलिए उन्होंने एक और चालाकी करने की सोची.

अपने चारों ओर जल ही जल देखकर उन्होंने कहा कि ठीक है हम तुम्हारे हाथों मरने को तैयार हैं, लेकिन हमें वहां मारना जहां जल न हो, मधु कैटभ ने सोचा था कि अब यहां सूखा स्थान कहां मिलेगा, लेकिन भगवान विष्णु ने अपना स्वरूप विस्तार किया और मधु कैटभ को अपनी जांघ पर रखकर उनका शीश काट दिया. मधु और कैटभ के मृत शरीर के मेदा से धरती की सतह बनी और यह धरती मेदिनी कहलाती है.

इस तरह देवी की कृपा से सृष्टि की पहली दो आसुरी शक्तियों का अंत हुआ.  मधु को मारने के कारण ही भगवान विष्णु का एक नाम मधुसूदन है और यह नाम द्वापर में उनकी कृष्ण लीला के समय में काफी प्रासंगिक रहा है,  और कई जगहों पर कृष्ण को मधुसूदन नाम से पुकारा गया है.

देवी दुर्गा की आरती में भी एक लाइन आती है, जिसमें कहा जाता है,

मधु कैटभ दोऊ मारे, सुर भयहीन करे.,
ओम जय अम्बे गौरी.

देवी शक्ति की वजह से भगवान विष्णु दोनों दैत्यों का अंत कर पाए इसलिए देवी को ही दोनों दैत्यों का नाश करने वाला कहा जाता है. सप्तशती के पहले अध्याय में इस कथा के साथ समाप्ति होती है और फिर आगे देवी के अन्य रूपों का वर्णन किया गया है.