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क्यों अमावस्या के दिन नहीं दिखता चांद, कौन था अभिमन्यु का असली पिता? चंद्रमा के ये रहस्य नहीं जानते होंगे आप

रात के समय आकाश में दिखाई देने वाले सफेद, चमकदार गोल पिंड के साथ हमारा रिश्ता संसार की शुरुआत से ही है. ये गोलपिंड कभी चंदा मामा है, कविताओं में यही प्रेमी भी है. प्रेम का संदेश पहुंचाने वाला दूत भी है, पुराण कथाओं में चंद्र देव है तो विज्ञान की भाषा में एक उपग्रह जो कि धरती का चक्कर लगाता है और कई प्राकृतिक घटनाओं का कारण बनता है.

ग्रहण और ज्वार की वजह है चंद्रमा

धरती पर नजर आने वाली दो वैज्ञानिक घटनाएं हैं, एक ग्रहण और दूसरा है ज्वार. इन दोनों घटनाओं की वजह चंद्रमा है. दिन में दो बार ऐसा समय होता है, जब समुद्र का जलस्तर बढ़ जाता है और लहरें ऊपर की ओर उठने लगती हैं. विज्ञान के अनुसार ऐसा चंद्रमा की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण होता है, जो कि समुद्र की लहरों को अपनी ओर आकर्षित करता है, लेकिन पौराणिक कथाओं में इसका कारण सागर मंथन से जुड़ा है. इसके अनुसार चंद्रमा का जन्म सागर से हुआ है और उसमें जल तत्व की अधिकता है, इसलिए वह अपने जैसे तत्व को खुद की ओर आकर्षित करता है.

सूर्य और चंद्रग्रहण

वहीं ग्रहण की घटना दो तरह की होती है, सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण. जब सूर्य व पृथ्वी के बीच में चन्द्रमा आ जाता है तो चन्द्रमा के पीछे सूर्य कुछ समय के लिए ढक जाता है. सूर्य की छाया धरती पर नहीं पड़ती और इतनी देर के लिए सूर्य ग्रहण लग जाता है. इसी तरह जब चंद्रमा, पृथ्वी का चक्कर लगाते हुए उसकी दूसरी ओर पहुंच जाता है और इस तरह सूर्य, पृथ्वी और चंद्रमा एक सीध में आ जाते हैं तो चंद्रग्रहण लगता है. 

चार स्थानों पर लगता है कुंभ

पौराणिक कथाओं में सूर्य और चंद्रग्रहण का कारण भी सागर मंथन की घटना से ही जुड़ा हुआ है. जब सागर मंथन में अमृत निकला तो देवताओं और दानवों में उसे पीने के लिए होड़ मच गई. धनवन्तरि के समुद्र से बाहर निकलते ही असुरों ने उनके हाथ से अमृत कलश झटक लिया और आकाश में उड़ चले. देवता भी उनका पीछा करते हुए भागे. इसी समय इंद्र के पुत्र जयंत ने कौवे का रूप लिया और अमृत कलश असुरों के हाथ से छुड़ाकर उड़ने लगा. इस छीना-झपटी में धरती पर चार स्थानों पर अमृत कलश से अमृत छलक गया. उन चार स्थानों पर आज महाकुंभ का आयोजन होता है. ये हैं हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन. हरिद्वार में गंगा किनारे पर, प्रयाग में संगम के किनारे, नासिक में गोदावरी नदी के किनारे और उज्जैन में शिप्रा नदी के तट पर हर 12 वर्ष में कुंभ का आयोजन होता है.

अमृत पिलाने के लिए मोहिनी बन आए भगवान विष्णु

अब इधर देवताओं और असुरों में छीनाझपटी चल ही रही थी कि घुंघरुओं की छनकती आवाज ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा. इसकी वजह से बहुत देर से हो रहा संघर्ष रुक गया. ये मदमाती आवाज मोहिनी की थी, जो अप्सराओं से भी अधिक सुंदर थी. उसने आते ही देवों और खासकर असुरों पर ऐसा प्रभाव जमाया कि वे सब उसकी बातों में आ गए और अमृत कलश उसे ही सौंप दिया. असुरों ने कहा कि, हमें ये अमृत नृत्य करते हुए पिलाओ, लेकिन मोहिनी ने शर्त रखी कि मैं इसे देवताओं और असुरों में बराबर बांट कर पिलाऊंगी. असुरों पर उसका कुछ ऐसा प्रभाव था कि वे उसकी बातों में आ गए. ये मोहिनी कोई और नहीं बल्कि भगवान विष्णु का ही एक अवतार था. जिसने सभी को अपने वश में कर लिया था. 

मोहिनी ने अमृत पिलाना शुरू किया और वह देवताओं को अमृत पिलाने लगी. जब असुरों की बारी आती तो वह उन्हें मदिरा पान करा देती थी. ऐसा क्रम कई बार चला, लेकिन असुर सेनापति स्वरभानु को कुछ शक हुआ और वह देवताओं का रूप बनाकर उनकी ओर बैठ गया. ये वही जगह थी, जहां आखिरी में सूर्य और चंद्र बैठे हुए थे. चंद्रमा अपनी पंक्ति में आखिरी थे. अमृत पिलाते हुए मोहिनी जब वहां पहुंची तो रूप बदले स्वरभानु को झटके में देख नहीं पाई और उसे भी अमृत दे दिया, लेकिन ठीक इसी समय चंद्रमा ने जोर से कहा कि ये कोई देव नहीं, असुर है. सूर्यदेव ने भी उनकी बात का समर्थन किया. फिर तो वहां हंगामा मच गया.

इस हंगामे के बीच स्वरभानु ने जल्दी से अमृत पी लिया, लेकिन इसी बीच मोहिनी ने चक्र चला दिया. अमृत अभी असुर के गले से उतरा भी नहीं था कि उसकी गर्दन कट गई और शरीर सिर और धड़ में बंट गया. विष्णु पुराण की ये कथा बताती है कि स्वरभानु ने अमृत तो पी ही लिया था, इसलिए वह मर नहीं सकता था, लेकिन उसके शरीर के दो टुकड़े हो गए. सिर राहु कहलाया और धड़ को केतु नाम मिला. दो भागों में बंटने के बाद राहु चंद्रमा की ओर देखकर गुस्से से बोला कि तुम मेरे अमृत पान में बाधा बने हो, अब मैं इस नभ मंडल में तुम्हें हमेशा परेशान करूंगा. फिर उसने सूर्य की ओर देखकर भी यही बात दोहराई. इसलिए राहु की सूर्य और चंद्रमा के साथ कट्टर दुश्मनी है. वह इन दोनों को निगल लेता है, लेकिन गर्दन कटी होने के कारण ये वापस निकल आते हैं. पुराणों में सूर्य और चंद्र ग्रहण का यही कारण है.

सागर-मंथन के साथ प्याज और लहसुन की भी दंत कथा जुड़ी हुई है. कहते हैं कि जब विष्णु जी ने चक्र से स्वरभानु का गला काटा तो उसका पीया हुआ अमृत अभी मुंह में ही था, उसने उसे उगल दिया. वह उगला हुआ अमृत धरती पर गिरा तो वहां प्याज-लहसुन के पौधे जम आए. इसीलिए प्याज और लहसुन के औषधीय गुण तो बहुत हैं लेकिन दोनों ही तामसिक भी माने गए हैं. इसलिए व्रत-उपासना, पूजा आदि में इनका निषेध है.

काल गणना में सहायक है चंद्रमा

चंद्रमा सिर्फ आकाश में चमकने वाला पिंड नहीं है, बल्कि सूर्य की ही तरह वह हमारी सनातन परंपरा में काल गणना का जरूरी हिस्सा है. दिन, महीने और साल की गिनती करने के लिए हमारी सनातन पद्धति सौर और चंद्र कैलेंडर पर ही आधारित रही है. इस काल गणना में छोटे से छोटे मात्रक प्रयोग किए जाते हैं. इनमें पल, निमेष, घटी, मुहूर्त, पहर, तिथि, पक्ष, मास और फिर वर्ष जैसी शब्दवलियां शामिल हैं. ये काल गणना सूर्य के उगने और चंद्रमा की परिक्रमा के आधार पर तय होती है.

इनमें अभी बहुत डिटेल में न जाते हुए इतना भी जान लेना काफी है, हिंदी वर्ष परंपरा भी 12 महीनों में बंटी हुई है. इसमें हर महीने पूरे-पूरे 30 दिन होते हैं. इन्हें तिथियां कहते हैं और ये तीस दिन दो पक्षों में बंटे होते हैं. शुक्ल और कृष्ण पक्ष. इसमें 15 दिन के शुक्ल पक्ष की रातें चांदनी से भरी होती हैं और अगले 15 दिन की रातें काली होती हैं. शुक्ल पक्ष की 15वीं रात पूर्णिमा कहलाती है, इस रात में चंद्रमा आकाश में अपने पूरे आकार के साथ खिला होता है. वहीं कृष्ण पक्ष की आखिरी 15वीं रात अमावस्या कहलाती है,जो कि भयंकर काली रात होती है. पूर्णिमा की रात पॉजिटिव मानी जाती है, और अमावस्या की रात निगेटिव. 

श्राप के कारण होती है पूर्णिमा-अमावस्या

चंद्रमा का 15-15 दिन के लिए घटना-बढ़ना, कभी आकाश में पूरे आकार में खिलना, कभी बिल्कुल ही गायब रहना ये भी उसे मिले एक श्राप का परिणाम है. ये श्राप उसे किसी और ने नहीं, बल्कि उनके ही श्वसुर (ससुर) प्रजापति दक्ष ने दिया था. दरअसल दक्ष ने अपनी 27 पुत्रियों का विवाह चंद्रमा के साथ किया था. इन सभी पुत्रियों को नक्षत्र बनने का वरदान मिला था और चंद्रमा नक्षत्र लोक का अधिपति था. दक्ष की 27 कन्याओं में से चंद्रमा रोहिणी से बहुत अधिक प्रेम करते थे. वह सिर्फ उनके साथ ही समय बिताते थे. इससे बाकी सभी पुत्रियां उदास थीं. एक दिन उन्होंने इसकी शिकायत अपने पिता दक्ष से की.

दक्ष ने चंद्रमा को समझाया कि उसकी अन्य बेटियां भी रोहिणी की तरह तुम्हारी पत्नियां हैं, इसलिए सबके साथ समानता की भावना रखो. चंद्रमा ने उनकी बात सुन तो ली, लेकिन रोहिणी के प्रेम में चंद्रदेव ऐसे भूले कि वह दक्ष की बात याद नहीं रख पाए. प्रजापति दक्ष को जब इस बारे में पता चला कि चंद्रदेव उनकी बात की अवहेलना कर रहे हैं तो गुस्से में आकर उन्होंने चंद्रमा को 15 दिन के भीतर नष्ट हो जाने का श्राप दे दिया. इस कथा का वर्णन शिवपुराण, मार्कंडेय पुराण और विष्णु पुराण में कही गई है. भागवत कथा सुनाते हुए भी इस कहानी का जिक्र होता है और कहीं शिवचर्चा हो रही हो तो वहां तो ये कहानी जरूर शामिल होती है. दरअसल, इस कहानी का क्लाइमैक्स शिवजी के द्वारा ही निर्धारित होता है.

सोमनाथ में की चंद्रमा ने तपस्या

चंद्रमा का 15-15 दिन के लिए घटना-बढ़ना, कभी आकाश में पूरे आकार में खिलना, कभी बिल्कुल ही गायब रहना ये भी उसे मिले एक श्राप का परिणाम है. ये श्राप उसे किसी और ने नहीं, बल्कि उनके ही श्वसुर (ससुर) प्रजापति दक्ष ने दिया था. दरअसल दक्ष ने अपनी 27 पुत्रियों का विवाह चंद्रमा के साथ किया था. इन सभी पुत्रियों को नक्षत्र बनने का वरदान मिला था और चंद्रमा नक्षत्र लोक का अधिपति था. दक्ष की 27 कन्याओं में से चंद्रमा रोहिणी से बहुत अधिक प्रेम करते थे. वह सिर्फ उनके साथ ही समय बिताते थे. इससे बाकी सभी पुत्रियां उदास थीं. एक दिन उन्होंने इसकी शिकायत अपने पिता दक्ष से की.

दक्ष ने चंद्रमा को समझाया कि उसकी अन्य बेटियां भी रोहिणी की तरह तुम्हारी पत्नियां हैं, इसलिए सबके साथ समानता की भावना रखो. चंद्रमा ने उनकी बात सुन तो ली, लेकिन रोहिणी के प्रेम में चंद्रदेव ऐसे भूले कि वह दक्ष की बात याद नहीं रख पाए. प्रजापति दक्ष को जब इस बारे में पता चला कि चंद्रदेव उनकी बात की अवहेलना कर रहे हैं तो गुस्से में आकर उन्होंने चंद्रमा को 15 दिन के भीतर नष्ट हो जाने का श्राप दे दिया. इस कथा का वर्णन शिवपुराण, मार्कंडेय पुराण और विष्णु पुराण में कही गई है. भागवत कथा सुनाते हुए भी इस कहानी का जिक्र होता है और कहीं शिवचर्चा हो रही हो तो वहां तो ये कहानी जरूर शामिल होती है. दरअसल, इस कहानी का क्लाइमैक्स शिवजी के द्वारा ही निर्धारित होता है.

महाभारत में चंद्रमा

चंद्रमा का जिक्र महाभारत में भी हुआ है, जहां एक बार श्रीकृष्ण को चंद्र दर्शन के कारण झूठे कलंक का सामना करना पड़ा था. दरअसल श्रीकृष्ण ने एक बार भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को चंद्र दर्शन कर लिया था. इस तिथि को कलंक चतुर्थी कहा जाता है. चंद्रमा को मिले इस श्राप की वजह गणेशजी है. हुआ यूं कि एक बार गणेशजी अपने चूहे पर सवार कहीं जा रहे थे कि रास्ते में अचानक एक सांप के आ जाने से चूहा डर गया और गणेशजी गिर पड़े. चंद्रमा को गणेशजी की इस स्थिति पर हंसी आ गई और उसने गणेशजी के गोल-मटोल स्वरूप का मजाक बनाया. इससे नाराज गणेशजी ने चंद्रमा को श्राप दिया कि जिस किसी ने मेरी जन्मतिथि पर आपका दर्शन किया, उसे कलंक का सामना करना पड़ेगा. इसलिए चतुर्थी की तिथि को चंद्रमा के दर्शन का निषेध बताया जाता है.

चंद्र दर्शन से श्रीकृष्ण पर लगा कलंक

महाभारत में श्रीकृष्ण को कलंक लगने की कहानी कुछ ऐसी है कि द्वारका में एक धनी सरदार रहता था. उसके पास एक सूर्यमणि थी, जिसका नाम स्यमंतक था. कुछ दरबारियों ने उससे कहा कि ऐसी अमूल्य मणि राज्य के कोष में दे दो और श्रीकृष्ण से जो चाहे ले लो, लेकिन धनी व्यक्ति ने इससे मना कर दिया. ये बात श्रीकृष्ण तक भी पहुंची, लेकिन उन्होंने इसपर कोई ध्यान नहीं दिया. कुछ दिन बाद उस धनी सरदार का छोटा भाई मणि पहनकर शिकार खेलने गया तो वहां शेर के हमले में उसकी मौत हो गई. जो लोग उसका शव लेने गए तो उन्होंने देखा कि युवक के गले से मणि नदारद थी. तब बात की बात में इस मणि चोरी का इल्जाम द्वारका के राज परिवार पर लगा. दबी जुबान में सभी श्रीकृष्ण के परिवार पर ये मिथ्या आरोप लगाने लगे.

तब श्रीकृष्ण ने खुद ही ये कलंक मिटाने का निर्णय लिया. वह उस स्थान पर गए, जहां युवक का शव मिला था. वहां से शेर के पैरों के निशान पर पीछा करते हुए वह एक गुफा में पहुंच गए, जहां उन्होंने एक कन्या को उसी मणि से खेलते देखा. श्रीकृष्ण ने जब उससे मणि मांगी तो कन्या ने अपने पिता को आवाज दी. बेटी की आवाज पर श्रीकृष्ण के सामने एक रीछ आ गया और उन्हें ललकारने लगा. दोनों में कई दिनों तक युद्ध चला. तब रीछ ने मन ही मन सोचा कि यह मानव कौन है? ऐसा प्रश्न करते ही रीछ को सामने श्रीराम खड़े दिखाए दिए. दरअसल ये रीछ कोई और नहीं रामायण काल के ही जाम्बवंत थे. रीछ ने अपने प्रभु को पहचान कर उनसे अपनी पुत्री जाम्बवंती का विवाह कर दिया. श्रीकृष्ण मणि और पत्नी के साथ द्वारका लौट आए मणि मिलने पर उस धनी सरदार ने अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह भी श्रीकृष्ण से कर दिया और मणि भी भेंट कर दी.  इस तरह श्रीकृष्ण ने अपना कलंक मिटाया.

महाभारत में चंद्रमा का चंद्रवंश

बात महाभारत की हो रही है तो चंद्रमा की मौजूदगी इस कहानी बहुत बड़े स्तर पर देखने को मिलती है. जिस तरह रामायण में श्रीराम का वंश सूर्यवंश है, उसी तरह महाभारत में चंद्रमा के चंद्रवंश की प्रधानता रही है. एक बार चंद्रमा देवगुरु बृहस्पति से मिलने गए. इस दौरान वहां उन्होंने उनकी पत्नी तारा को देखा. तारा की सुंदरता ने चंद्रमा के मन को मोह लिया. वहीं तारा भी चंद्रमा पर मोहित हो गईं. तब चंद्रमा ने तारा का उसकी इच्छा से अपहरण कर लिया और चंद्रलोक ले आए. चंद्रमा और तारा के संयोग से एक पुत्र का जन्म हुआ, जिसे बुध का नाम मिला. हमारे ग्रह मंडल में मौजूद बुध ग्रह चंद्रमा और तारा का ही बेटा है.

इसी बुध का विवाह वैवस्वत मनु की बेटी इला से हुआ. इला और बुध की संतान पुरुरवा हुए. पौरववंश, कुरुवंश, यदुवंश और हैहयवंश भी इसी चंद्रवंश में से निकले थे. चंद्रवंशी राजाओं में नहुष, ययाति, उशीनर, शिवि जैसे अनेक प्रसिद्ध राजा हुए हैं. इन सभी की कथाएं महाभारत में शामिल हैं. चंद्रवंश में ही परमवीर राजा कुरु का जन्म हुआ, जिनसे कुरुवंश चला और आगे इसी वंश में कौरव भी हुए. पांचों पांडव भी कौरव ही थे, लेकिन युद्ध में आमने-सामने होने के कारण महाराज पांडु के पांचों पुत्र पांडव कहलाए.

चंद्रमा का पुत्र था अभिमन्यु

महाभारत में अभिमन्यु के जन्म को लेकर भी एक कथा कही जाती है. जब महाभारत होने वाली थी तो सभी देवता अपने-अपने अंश और पुत्रों के साथ धरती पर जन्म ले रहे थे. जब चंद्रमा की बारी आई तो उसने अपने पुत्र सुवर्चा को धरती लोक पर भेजने से मना कर दिया. जब देवताओं ने उसे बहुत समझाया तो चंद्रमा ने तीन शर्तें रखीं.

1. मेरा पुत्र केवल 16-17 वर्ष तक ही धरती पर रहेगा, फिर लौट आएगा. 
2. उसकी शिक्षा-दीक्षा का भार सिर्फ नारायण ही लेंगे.
3. युद्ध में पूरा एक दिन उसके नाम रहना चाहिए, ताकि उसे प्रसिद्ध मिले.

चंद्रमा की इन्हीं शर्तों के कारण सुवर्चा का जन्म अभिमन्यु के रूप में हुआ. वह कृष्ण के संरक्षण में द्वारिका में रहा और महाभारत युद्ध का पूरा एक दिन उसके नाम रहा. चंद्रमा की शर्त के कारण ही अभिमन्यु किशोर अवस्था में वीरगति को प्राप्त हुआ.

पुराण कथाओं की एक खासियत है कि वह किसी का हमेशा ही महिमा मंडन नहीं करती और न ही किसी को हमेशा धर्म का प्रतीक बनाए रखती हैं. वह हर कथा को उसके सही रूप में सामने रखती हैं. इन कथाओं को सुनकर-पढ़कर हमें सही-गलत समझना और तय करना होता है. यही पुराण कथाओं का उद्देश्य है और यही धर्म की पुकार है. अठारह पुराणों का लेखन करने के बाद महर्षि वेदव्यास ने सिर्फ दो बातों में उनका सार लिखा है, दूसरों का भला करना पुण्य है और दूसरों को दुःखी करना ही पाप है.

अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् । परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥