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राजा जनमेजय और उनके भाइयों को क्यों मिला कुतिया से श्राप, कैसे सामने आई महाभारत की गाथा?


महाभारत की महागाथा एक प्रेरणास्त्रोत है और उससे भी अधिक प्रेरक हैं, इस महान गाथा के छोटे-छोटे प्रसंग. हमारे व्रत-त्योहार और उत्सवों को मनाने के पीछे जो भी कारण हैं उनकी जड़ें कहीं न कहीं महाभारत से जाकर मिलती हैं. इसी कथा में भारत की महान गुरु-शिष्य परंपरा का भी जिक्र है. यह कहानी महाभारत के शुरुआत में ही आदि पर्व में मिलती है. एक बार की बात है. नैमिषारण्य तीर्थ में ऋषि शौनक के आश्रम में बहुत से ऋषि यज्ञ के लिए एकत्र हुए थे. एक दिन खाली समय में सभी ऋषि पुराण चर्चा कर रहे थे कि इसी दौरान ऋषि उग्रश्रवा आश्रम में आए. उग्रश्रवा ऋषि विचित्र कथाएं कहने के लिए प्रसिद्ध थे. ऋषियों के कहने पर ऋषि उग्रश्रवा ने उन सभी को महाभारत की कथा सुनानी शुरू की और यह भी बताया कि वह राजा जनमेजय के सर्प यज्ञ में यह कथा सुनकर आ रहे हैं. ऋषि वैशम्पायन ने राजा जनमेजय के शोक को देखकर उन्हें यह कथा सुनाई थी.


इस कथा को खुद महर्षि वेदव्यास ने रचा था और उनकी विनती पर भगवान गणेश इसके लेखक बने. महाभारत कैसे लिखी गई, इस कथा को जानकर अब ऋषियों ने उग्रश्रवा ऋषि से अगला प्रश्न किया- हे ऋषि उग्रश्रवा, आप राजा जनमेजय के राज्य में क्यों गए थे? वहां क्या हो रहा था और वैशम्पायन ऋषि ने क्यों उनसे महाभारत की यह दिव्य कथा कही? आप हमें इस रहस्य को पूरा-पूरा बताइए.  उग्रश्रवा ऋषि ने कहा- आप सभी ऋषियों ने बहुत अच्छा प्रश्न किया है. राजा जनमेजय, राजा परीक्षित के पुत्र हैं. राजा परीक्षित की सर्पदंश से मृत्यु हो गई थी. उनकी इस अकाल मृत्यु से राजा जनमेजय बहुत दुखी हुए और शोक में पड़ गए. इस शोक में ही उन्होंने कुछ ऐसा करने का ठान लिया जो मानवता के लिए ठीक नहीं था. इसकी कथा मैं आपको बाद में विस्तार से सुनाऊंगा, लेकिन अभी इतना सुनिए कि राजा जनमेजय के इसी शोक को कम करने के लिए ऋषि वैशम्पायन ने महर्षि वेदव्यास के सामने ही उन्हें महाभारत की कथा सुनाई. इसी कथा के दौरान उन्होंने गुरु महिमा का वर्णन भी किया. अब मैं आपको महाभारत के आदिपर्व में शामिल गुरु महिमा की कथा सुनाता हूं.


कुछ देर मौन रहकर ऋषि उग्रश्रवा ने बोलना शरू किया. 'तस्मै श्री गुरुवै नमः.' भारतीय वेद परंपरा ने गुरु को परब्रह्म की पदवी दी है. ऐसा इसलिए है क्योंकि गुरु ऐसा रचनाकार होता है जो योग्य शिष्य देखकर उसका निर्माण करता है. यह कार्य ठीक वैसा ही है जैसे चार मुख वाले ब्रह्म देव हर तरह से बराबर दृष्टि रखते हुए संसार का निर्माण करते हैं. 


कार्य की इसी समानता के कारण गुरु की पदवी ब्रह्म के समान ही रखी गई है. इस पदवी के आगे स्वयं त्रिदेव भी नतमस्तक होते रहे हैं.  प्राचीन काल में ऋषि धौम्य के गुरुकुल में दूर-दूर से छात्र वेद-वेदांग का अध्ययन करने आते थे. इन्हीं में थे आरुणि व उपमन्यु. दोनों ही महान गुरुभक्त. हालांकि यह सिद्ध न हो सका था कि उनकी गुरुभक्ति में कितनी श्रद्धा है. एक दिन महर्षि धौम्य ने अपने शिष्य उपमन्यु को गाय चराने का आदेश दिया और यह उसके हर दिन के कार्यों में शामिल हो गया.


कुछ समय बीतने पर गुरु ने उसे बुलाया और कहा, अरे उपमन्यु तुम तो काफी हट्टे-कट्टे हो. गाय चराते हुए भोजन का प्रबंध कैसे कर लेते हो? उपमन्यु ने कहा- गुरुदेव. गुरुकृपा से भिक्षा मिल जाती है. ऋषि धौम्य ने कहा- अरे नहीं, तुम्हें बिना मुझे दिए कोई भी भिक्षा नहीं खानी चाहिए. उपमन्यु ने उनकी बात मान ली. कुछ हफ्तों बाद गुरु ने फिर पूछा, उपमन्यु भोजन का प्रबंध कैसे करते हो? उपमन्यु ने कहा पहली भिक्षा आपको देकर फिर में दूसरी बार भिक्षा मांग लाता हूं और खा लेता हूं. गुरु ने कहा-यह तो अन्याय है. तुम अन्य ब्राह्मणों के हिस्से का लालच कर रहे हो. तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए. उपमन्यु ने उनकी यह बात भी मान ली.

कुछ दिनों बाद गुरु ने फिर भोजन प्रबंध के बारे में पूछा तो उपमन्यु ने सिर्फ गाय का दूध पीने की बात की, लेकिन गुरु ने उस दूध को बछड़े का हिस्सा बताते हुए उसके लिए भी मना कर दिया. उपमन्यु ने बात मान ली. कुछ दिन ऐसे ही बीत गए.

उधर गुरु धौम्य का एक शिष्य और था आरुणि. एक शाम आरुणि सोच रहा था कि गुरुदेव ने सारे आदेश उपमन्यु को ही दिए, मुझे सेवा का अवसर नहीं दिया. इस समय वर्षाकाल बीतने को था और शीत ऋतु के आने का संकेत था. शाम को बादल घिर आए और कुछ ही देर में वर्षा होने लगी. इतने में गुरु ने आदेश दिया जाओ आरुणि खेत की मेढ़ ठीक कर आओ. इधर आरुणि खेतों को गया और उपमन्यु गौशाला में गायों को बांध रहा था. वह अब कुछ कमजोर हो चला था. आज गुरु धौम्य ने उसे देखा तो फिर पूछ बैठे कि बेटा उपमन्यु भोजन का प्रबंध कैसे किया? उपमन्यु ने कहा- गायों का दूध पीने के बाद बछड़ों के मुंह में जो फेन लग जाता है, वही पी लेता हूं.

गुरु धौम्य ने डांटते हुए कहा- तुम बछड़े का हिस्सा कैसे पी सकते हो? यह तुम्हारे लिए नहीं है. इतना कहकर गुरु चले गए. अब उपमन्यु दिनभर का भूखा रहता. एक दिन वह वन की ओर चल पड़ा मार्ग में कुछ पौधों के पत्ते खाकर उसने भूख मिटाने की सोची, लेकिन उसकी भूख नहीं मिटी. इधर बारिश तेज होने लगी थी. गुरु का शिष्य आरुणि मेड़ पर जितनी मिट्टी डालता, पानी उसे बहा ले जाता. इस काम में रात गहरा गई, लेकिन बारिश लगातार होती रही.

इधर भूख से व्याकुल उपमन्यु वर्षा में भोजन के लिए भटक रहा था. मार्ग में आक (मदार) के पौधे थे. चौड़े पत्तों का अनुभव कर उसने इन्हें खाने की कोशिश की,  लेकिन अंधेरे में देख नहीं पाया कि ये मदार के पौधे हैं. जैसे ही उसने झटके से पत्ता तोड़ा उसका दूध छिटककर आंखों में चला गया और उपमन्यु अंधा हो गया. इधर आरुणि लगातार मेड़ बांधते हुए थक गया था. उसने सोचा कि वह खुद ही क्यों नहीं मेड़ पर लेट जाता. और इस तरह आरुणि खेत की मेड़ पर लेट गया. सर्द हवा में बारिश से भीगता हुआ पड़ा रहा. उधर उपमन्यु देख न पाने के कारण एक कुएं में गिर गया. रात भर दोनों शिष्यों के लिए भारी संकट रहा. लेकिन वे अपनी गुरु आज्ञा से टस से मस न हुए.


अगले दिन दोनों ही शिष्यों को आश्रम में न पाकर धौम्य ऋषि ने दिव्य दृष्टि से उनकी स्थिति देखी और द्रवित हो उठे. अन्य शिष्यों की सहायता से उन्होंने दोनों ही कुमारों को उनके संकट से उबारा. 

पहले वह खेतों की ओर गए. वहां उन्होंने आरुणि को आवाज दी. गुरु की आवाज सुनकर आरुणि ने उठने की कोशिश की लेकिन इस चक्कर में मेड़ फिर से टूट गए. तब गुरु ने कहा, तुमने मेड़ तो तोड़ कर (उद्दलन) करके खड़े हुए हो, इसलिए आज से तुम्हारा नाम उद्दालक होगा. तुम्हें वेदों का सारा ज्ञान प्राप्त होगा और तुम उस रहस्य को भी जान सकोगे जिसके लिए ऋषियों को कठोर तप करना होता है. तु्म्हारा शरीर सौ वर्षों तक निरोगी रहे. आचार्य से यह वरदान पाकर आरुणि स्वस्थ हो गया और ज्ञान के प्रसार के लिए चल पड़ा.

अब गुरुदेव ने दूसरे शिष्य उपमन्यु की खोज की. वह उन्हें एक वन में कुएं में गिरा मिला. गुरु उसे निकाल लाए और फिर कहा तुम अपनी स्थिति को ठीक करने और निरोगी बनने के लिए अश्वनी कुमारों को बुलाओ. तब उपमन्यु ने वेद की ऋचाओं से अश्वनी कुमारों को पुकारा. अश्वनी कुमार अपने हाथ में दिव्य अनाजों से बने हुए पूए लेकर प्रकट हुए. वह अमृत सुधा में डूबे हुए थे. उन्होंने कहा- गुरुभक्त उपमन्यु, लो यह पुआ खा लो, इससे तुम स्वस्थ हो जाओगे.

तब उपमन्यु ने कहा-  मैं अपने गुरु को भोग लगाए बिना कुछ भी नहीं खा सकता. अश्वनी कुमारों ने कहा- यह सिर्फ तुम्हारे लिए है और किसी के लिए नहीं. एक बार पहले जब तुम्हारे गुरु ने हमारी स्तुति की थी, तब हमने उन्हें यह पुआ दिया था, लेकिन उन्होंने वह पुआ तुरंत ही प्रसाद मानकर खा लिया था. अपने गुरु को भोग अर्पित नहीं किया था, इसलिए तुम बिना झिझक के इसे खा लो.

उपमन्यु ने अश्वनी कुमारों की बात सुनी और कहा- हो सकता है आपकी बात ठीक हो, लेकिन फिर भी मैं यह नहीं खा सकता. उपमन्यु के अपने इस संकल्प पर अटल रहने के कारण अश्वनी कुमारों ने उसे वैसे ही ठीक कर दिया और उसके दांतों को सोने का बना दिया (यानी बहुत मजबूत कर दिया. सोने का दांत रूपक हो सकता है, इसका अर्थ यह हुआ कि उपमन्यु हमेशा निरोगी और जवान रहेगा) फिर उन्होंने गुरु धौम्य को बुलाया और उपमन्यु की प्रशंसा की. उपमन्यु ने गुरु को पुआ अर्पित कर उस प्रसाद को खाया और गुरु के आशीर्वाद से अश्वनी कुमारों के वरदान के अनुसार उसका कल्याण हुआ. वह भी वेद-वेदांग का ज्ञाता बनकर उनके प्रचार के लिए चला गया.

उग्रश्रवा ऋषि से यह कथा सुनकर नैमिषारण्य के सभी ऋषि बहुत प्रसन्न हुए. उन्होंने एक बार फिर अपने-अपने गुरुओं के चरण स्पर्श कर उन्हें प्रणाम किया और यह माना कि गुरु की भक्ति, संसार में ईश्वर से भी बड़ी भक्ति है. क्योंकि गुरु ही वह मार्गदर्शक है जो किसी भी शिष्य को इस लायक बना सकता है कि वह ईश्वर को पा सकता है. बिना गुरु के मार्गदर्शन के तो ईश्वर भी नहीं मिल सकते. फिर चाहे कितनी कठोर तपस्या कर लो या कितने भी यज्ञ कर लो.

यज्ञ की बात सुनकर एक ऋषि ने उग्रश्रवा जी से प्रश्न किया, हे ऋषिवर आप हमें राजा जन्मेजय के यज्ञ के विषय में बता रहे थे. क्या हुआ था? अब उस कथा को विस्तार से कहिए.

ऋषि के प्रश्न को सुनकर उग्रश्रवा जी ने कहना शुरु किया- ऋषिगण सुनिए. एक बार महान परीक्षित के पुत्र राजा जन्मेजय कुरुक्षेत्र में अपने तीन भाइयों के साथ महान यज्ञ कर रहे थे. उनके तीन भाई थे श्रुतसेन, उग्रसेन और भीमसेन. उस यज्ञ के दौरान एक कुत्ता वहां यज्ञवेदी के पास आ गया. जन्मेजय के भाइयों ने उस कुत्ते को मारकर-डपटकर भगा दिया. वह कुत्ता, देवताओं की कुतिया सरमा का बेटा था. यज्ञ से दुत्कारे जाने पर वह रोते हुए अपनी मां के पास गया और जनमेजय के भाइयों की शिकायत की.

उसने कहा कि, मां मुझे जनमेजय के भाइयों ने पीटा है. सरमा (कुतिया) ने कहा- उन्होंने ऐसा क्यों किया? जरूर तुमने यज्ञ की समिधा को चाटा या कोई अपराध किया होगा? उस कूकुर (कुत्ते) ने कहा- नहीं मां, मैंने न ही हविष्य की ओर देखा और न ही उसे चाटा या सूंघा. ऐसा सुनकर सरमा (कुतिया) अपने बेटे को लेकर कुरुक्षेत्र में यज्ञस्थल पर पहुंची और बार-बार जनमेजय समेत उसके भाइयों से पूछने लगी कि मेरे पुत्र ने तुम्हारा कोई अपराध नहीं किया फिर भी उसे पीटने का क्या कारण है?

जनमेजय के भाइयों ने उसे कोई जवाब नहीं दिया और उसे अनदेखा करते रहे. तब देवताओं की कुतिया सरमा ने क्रोध में रोते हुए कहा कि मेरे पुत्र को बिना अपराध के पीटने वाले, तुम्हारे ऊपर अचानक ही कोई भय या आपदा आएगी. ऐसे रोते हुए और श्राप देकर वह कुतिया सरमा वहां से चली गई.

यज्ञ समाप्त होने पर जनमेजय हस्तिनापुर आए, लेकिन उन्हें कुतिया का श्राप परेशान कर रहा था. वह इसके निपटारे का रास्ता खोजने लगे. एक दिन यूं ही शिकार खेलते हुए वह अपने राज्य से बाहर पहुंचे और रास्ता भटककर एक ऋषि श्रुतश्रुवा के आश्रम में पहुंच गए. वहां ऋषि के पुत्र सोमश्रवा महादेव की आराधना कर रहे थे. सोमश्रवा ऋषि के तेज को देखकर राजा जनमेजय प्रभावित हुए. उन्होंने श्रुतश्रुवा ऋषि से सारी बात बताई और प्रार्थना करते हुए कहा कि, हे ऋषिवर आप अपने पुत्र को मेरा पुरोहित बनने का आशीर्वाद मुझे दीजिए.

तब ऋषि ने कहा- हे राजन! मेरा यह पुत्र आपके ऊपर आने वाले सभी अनिष्टों को शांत कर सकता है, केवल महादेव के शाप को मिटाने की क्षमता इसमें नहीं है. लेकिन इसका एक गुप्त व्रत भी है. अगर कोई ब्राह्मण इससे कोई वस्तु मांगेगा तो यह उसे जरूर देगा, अगर तुम इसकी यह बात मान पाओ तो जाओ इसे ले जाओ.

जनमेजय ने ऋषि की आज्ञा को स्वीकार कर लिया और बहुत आदर सहित ऋषि पुत्र सोमश्रवा को अपने राज्य में ले आए. उन्होंने अपने भाइयों से कहा- मैंने इन्हें अपना पुरोहित बनाया है. तुमलोग बिना कोई संदेह किए इनकी बात मानना और आज्ञा का पालन करना. भाइयों ने उनकी आज्ञा को स्वीकार कर लिया. इसके बाद राजा जनमेजय भाइयों को ही बहुत से कार्यभार और जिम्मेदारियां सौंप कर तक्षशिला विजय पर चले गए. वहां उन्होंने युद्ध में तक्षशिला को जीत लिया.

इधर, सोमश्रवा ने यज्ञ तो करवा दिया, लेकिन होनी को कौन टाल सकता है. जिस समय जनमेजय तक्षशिला पर विजय के लिए गए थे, वह लौटे तो पता चला कि उनके पिता को सर्प ने डंस लिया है. होनी को कौन टाल सकता है. कुतिया सरमा ने जो अनिष्ट होने का श्राप दिया था, वह इस रूप में सामने आ गया था. उग्रश्रवा ऋषि ने कहा- इसी बात से जनमेजय शोक में चले गए थे. जिसके निदान के लिए ऋषि वैशम्पायन उन्हें महाभारत की कथा सुना रहे थे.


पहला भाग : 
कैसे लिखी गई महाभारत की महागाथा? महर्षि व्यास ने मानी शर्त, तब लिखने को तैयार हुए थे श्रीगणेश 
तीसरा भाग : राजा जनमेजय ने क्यों लिया नाग यज्ञ का फैसला, कैसे हुआ सर्पों का जन्म?