We don't support landscape mode yet. Please go back to portrait mode for the best experience
माता-पिता की चौथी बेटी जो बेटे की आस में जन्मी थी. फिर मेरे बाद तीन और बहनों का जन्म हुआ. जैसे-तैसे मां-बाप ने ब्याह दिया. मेरी भी पहली संतान बेटी ही हुई. सास और पति ने इसके लिए अनगिनत ताने दिए. फिर उसके बाद जब दूसरी बेटी हुई तो उनके सीने में जैसे वज्र-सा आघात हुआ, जिसका दर्द मुझे हर तरह से महसूस कराया गया.
सास का कहना था कि इसकी मां को सात बेटियां हुई हैं तो इसके भी बेटियां ही बेटियां होंगी. आज से सात साल पहले मुझे छह महीने की बेटी के साथ देर रात ससुराल से निकाल दिया गया. बस, यहीं से मेरी गृहस्थी के दो पहियों की गाड़ी का एक पहिया अलग हो गया. आज मैं चार पहियों की बस चलाती हूं, इसका स्टियरिंग मुझे अहसास दिलाता है जैसे मैंने अपनी जिंदगी की गाड़ी की कमान अपने हाथों में ले ली है. मैं दिल्ली की लेडी बस ड्राइवर हूं. यहां मैं अपने जन्म से अब तक की कहानी आपसे साझा कर रही हूं.
मेरा नाम लक्ष्मी है. मैं 32 की पूरी होकर अपनी उम्र के 33वें साल में प्रवेश कर चुकी हूं. मैं उत्तर प्रदेश के महोबा जिले के एक गांव बगमऊ में एक राजमिस्त्री के घर उनकी चौथी बेटी के तौर पर जन्मी थी. अपने जन्म की खुशी की कल्पना मैं आसानी से कर सकती हूं, क्योंकि मेरे बाद मां ने तीन और बेटियां जन्मीं. हरेक के जन्म पर मां का चेहरा और बुझता जाता. घर में खुशियों का नामोनिशान नहीं रह जाता. उम्मीदों के किले जैसे ढहकर मिट्टी में मिल जाते. घर में मातम जैसा सन्नाटा पसर जाता था.
मुझे याद है कि गांव में मैं चौथी कक्षा की पढ़ाई कर रही थी जब पिताजी दिल्ली लेकर आ गए थे. पाना, अनीता, पूनम, मैं लक्ष्मी, मेरे से छोटी सुमन, फिर नीलम और सबसे छोटी पूजा हम सातों यहां आ गए. दिल्ली जहां लड़कियां स्कूटर चलाती थीं, कई लड़कियां कारें चला रही थीं, माता-पिता यहां कितने प्यार से अपनी बेटियों को गले लगा रहे होते. यहां की दुनिया गांव से एकदम अलग थी. वहां से आने के बाद हमारे घर में खुशियों ने दस्तक देना शुरू कर दिया. पहली बार खुशी आई जब सात बहनों के बाद मेरा भाई ओमप्रकाश पैदा हुआ. यूं लगा जैसे मां को साक्षात ईश्वर ने आशीर्वाद स्वरूप बेटा दे दिया है. लोगों की नजर में सात बेटियों के बोझ के बाद बेटा नई उम्मीद बनकर आया था. पूरा घर खुशियों से भर गया.
हम सब बहनों का भी वो लाड़ला था. उसके बाद मां को फिर दोबारा और तीसरी बार भी बेटा ही हुआ. मां को लगता था जैसे रूठी किस्मत उससे मान गई है. वो अब बेटों को ही जन्म दे रही था. तीसरा भाई मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं था. खैर हम 10 भाई-बहनों का परिवार हो गया था. बाप के लिए इतने बच्चों के लिए कमाना और मां के लिए सभी का पेट भरना दो ही काम थे. उस पर बड़ी होती मेरी तीन दीदियां, उनमें और चिंता भर रही थीं. इसी दौरान माता-पिता को किसी ने एक लड़का बताया और बड़ी दीदी पाना की शादी हो गई.
शादी के बाद उसका एक भी दिन खुशी से नहीं बीता. फिर वो हुआ जो मैं कभी नहीं भूल पाऊंगी. शादी का दूसरा साल ही था कि एक दिन खबर मिली कि बड़ी बहन की मौत हो गई है. उसके घर पहुंचे तो वो जल चुकी थी. पता चला कि उसके पति ने उसे जिंदा जला डाला था. धीरे-धीरे हम इसे भूलने लगे, या यूं कहें कि इसे नियति मान लिया क्योंकि मुकदमा लड़ना, पैरवी करना किसी के वश का नहीं था.
अब हम सात में छह बहनें बचे थे. फिर उसके बाद दो और बहनों की शादी दिल्ली के तीमारपुर और दूसरी की बवाना में हुई. हम सब के मन में शादी को लेकर अजीब सा भय आ गया था. लेकिन इन दो बहनों को घरों में इतनी तकलीफ नहीं थी. फिर आया चौथा नंबर यानी मेरा नंबर. मम्मी पापा ने मेरे लिए एक लड़का खोज लिया था. अब मेरी शादी होने वाली थी.
आज से 14 साल पहले मेरी शादी हुई थी, मेरे पति दो भाई थे. मैं छोटी बहू बनकर गई थी. शुरुआत के कुछ दिन ठीकठाक बीते और फिर दो साल बाद एक दिन मुझे पता चला कि मैं मां बनने वाली हूं. घर में सब खुश हो गए थे. मुझे बेटा होने के लिए ढेरों आशीष दिए गए. फिर भी मुझे बेटी हुई. मेरी चांद सी बेटी का चेहरा इतना प्यारा था फिर भी मुझे ढेरो ताने मिले. मैं भी इसी माहौल में पली बढ़ी थी, लेकिन बचपन में जिद करके मैं दिल्ली के स्कूल में पढ़ने चली गई. मैंने लड़ झगड़कर आठवीं तक पढ़ाई की, लेकिन इस पढ़ाई ने मेरी सोच बदल दी थी. हां याद आया हम सात बहनों में मेरी सबसे छोटी बहन पूजा ने सबसे ज्यादा 12वीं तक पढ़ाई की. उसके समय में घर का माहौल कुछ ठीक और दबाव कुछ कम था. लेकिन भाई ओमप्रकाश ने कॉलेज कंपलीट किया और अपना छोटा मोटा काम कर रहा है. वहीं, दूसरा भाई देवेंद्र अभी भी कॉलेज में पढ़ रहा है. हां सबसे छोटा भाई जो कि 17 साल का है उसे मेंटली प्रॉब्लम है इसलिए वो पढ़ नहीं पाया.
खैर, अब अपनी ससुराल वाली बात पर वापस लौटती हूं. मेरी शादी का ये सातवां साल था. मेरी पहली औलाद मेरी बेटी सुषमा पैरों पर चलने लगी थी, तभी मैं दोबारा गर्भवती हुई. सास को अब रोज एक ही चिंता खाए जा रही थी कि इसकी मां के सात बेटियां लगातार हुईं थीं, कहीं ये भी सिर्फ बेटियां ही न जन्मती रहे. मेरा नौ माह का वक्त पूरा हुआ. मैं पति और सास की इच्छाओं को पूरा करना चाहती थी. मैं भी चाहती थी कि अबकी एक बेटा हो जाए तो ससुराल में मेरी स्थिति कुछ बदल जाएगी. यहां मुझे इज्जत मिलने लगेगी, लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था, मुझे दोबारा बेटी हुई तो सब बद से बदतर हो गया. ससुराल में एक-एक दिन भारी हो गया. सास को अपनी कही बात सच लगने लगी थी कि अब इसे बेटियां ही पैदा होंगी. मैंने उन्हें बताया भी कि बेटा-बेटी होना पुरुष के ऊपर होता है, औरत पर नहीं. इस पर वो कहतीं कि कुछ किस्मत भी होती है. तुम मां बेटी की किस्मत ही खराब है.
मैं सात साल से ससुराल में रह रही थी, पर मुझसे वहां कभी अच्छा बर्ताव नहीं हुआ. मुझसे मजदूरी कराई, कई ऐसी जगह मजदूरी की जहां पीने को पानी तक नहीं था. अब दूसरी बेटी के बाद हालात और बिगड़ गए. हालात ऐसे थे कि मुझे आधी रात को छह महीने की बेटी के साथ घर से निकाल दिया गया. जिस इलाके में मैं रहती थी उससे बहुत पास के ब्लॉक में मेरी बहन का घर था. मैं वहां पहुंच गई. बहन की सास ने जब देखा कि मैं फटेहाल रोते हुए बहन के पास आई हूं तो उसने मेरी बहन को बोला कि हम तुम्हारी बहन को क्यों रखें, इसे भगाओ. वहां से रात में फिर निकल गई.
उसके घर के पास एक बस मिली तो सोचा मायके वाले घर जाऊं. मां गांव गई थीं लेकिन मौसी वहां थीं. मैं बस में बैठ गई. मजबूरी की मारी मैं, पति ने जिस तरह सिर पर डंडा मारा था, मेरे सिर से खून निकल रहा था. मैं बस में बैठी तो वो कंडक्टर मेरे बगल की सीट पर मुझसे सटकर बैठ गया. उसने शराब पी रखी थी, वो मेरे साथ अश्लील हरकतें करने लगा. उसने एकाएक मेरे ब्लाउज के भीतर हाथ डाल दिया तो मैं जोर से चिल्लाई. ये तो कहो कि बस के ड्राइवर अच्छे थे तो उन्होंने उसे डांटा और कहा कि छोड़ दे, परेशान औरत है, उससे दूर रहो. वो ड्राइवर का लिहाज करके अलग बैठ गया. बस से उतरते समय ड्राइवर ने पूछा कि बेटा आप परेशान हो क्या, मेरी आंखों से आंसू निकल आए. मैंने कहा कि मुझे गांव जाना है मां के पास लेकिन कैसे जाऊं. समझ नहीं आ रहा. उसने मुझे 200 रुपये भी दिए और कहा कि इलाज कराओ पहले. फिर रोहिणी में मुझे उतारा.
खैर रात जैसे तैसे यहां बिताकर अगले दिन गांव निकली. यहां से गांव पहुंची तो ससुराल वालों ने पहले ही फोन कर दिया था कि आपकी बेटी किसी गैर मर्द के साथ भाग गई है. लेकिन मां को सारी बात बताई, फिर भी मां मजबूर थी, उसने कहा कि बेटा इतनी बहनें हैं, मैं किस किस को घर पर रखकर पाल सकती हूं. वापस ससुराल जाओ या कमाओ खाओ. मैंने मम्मी से कहा कि ठीक है आप बस दिल्ली जाने के लिए पैसे दे दो. वहां से दिल्ली आई और मम्मी जहां रहती थीं. वहीं बगल में किराये का घर लेकर बच्ची को लेकर रहने लगी. इस इलाके में मेरा बचपन बीता है तो सब जानते हैं. फिर कुछ दिन में ससुराल वालों ने दूसरी बेटी भी मेरे पास भेज दी. मैंने पहले मजदूरी की, फिर घरों में झाड़ू पोछा और खाना बनाने का काम करने लगी. लोग कहते थे कि तू खाना अच्छा बनाती है, मेहनती हो, चाहो तो कुछ और भी सीखकर इज्जत की नौकरी कर सकती हो.
यहीं जिन भइया भाभी के यहां काम करती थी, उन्होंने मुझे एक समाजसेवी संगठन के बारे में बताया जो लड़कियों को ड्राइविंग सिखाता था. मुझे ड्राइविंग करती हुई औरतों का चेहरा सामने नजर आया जिन्हें बचपन में देखा करती थी. मैंने जाकर फॉर्म भरा और काम के साथ-साथ ड्राइविंग सीखने लगी. स्टीयरिंग को हाथ में पकड़ते ही मेरे भीतर गजब का विश्वास जग गया था. मैं मन लगाकर सीखने लगी, फिर दो महीने में मुझे अच्छी ड्राइविंग आ गई थी.
यहां से ड्राइविंग सीखकर मैंने एक कंपनी ज्वाइन की और एयरपोर्ट पर टैक्सी चलाने लगी. वहां कुछ दिन नौकरी करने के बाद मैंने ओला उबर की टैक्सी भी चलाई. मुझे ये काम करके खुद में बहुत विश्वास जगा, फिर जब डीटीसी बस चलाने के लिए ट्रेनिंग का मैंने सुना तो झट से यह फॉर्म भर दिया. मैंने पहले बैच में ही ज्वाइन करके बस चलाना सीखा. एक माह की ट्रेनिंग में मुझे बस चलाना आ गया था.
जब दिल्ली की सड़कों पर पहली बार बस लेकर निकली तो लोगों का अपने प्रति रवैया मेरे मन को बहुत मजबूती देता था. कभी कोई आशीर्वाद देकर जाता तो कोई बहुत तारीफ करके. एक दिन एक औरत ने कहा कि उसे मुझे बस चलाते देखकर इतनी खुशी हुई है कि वो भी अब अपनी जिंदगी में कुछ ऐसा करना चाहती है.
ससुराल से निकले मुझे साढ़े सात साल हो गए हैं, आज मैं ड्राइविंग से अपनी दोनों बेटियों को पालने में सक्षम हो चुकी हूं. मैंने अपनी मेहनत से कमाकर वजीरपुर में अपने लिए 25 गज का छोटा सा घर भी लिया.
बेटियों सुषमा और उमा को पढ़ा रही हूं. ससुराल के लोगों से कोई संपर्क नहीं है. वो क्या कर रहे, इसकी अब चिंता नहीं है. मैं ड्राइविंग से 25 हजार रुपये महीने तक कमा लेती हूं, मैंने इतने में ही जरूरतों को सीमित किया है.
मैं मेरी बेटियों को मैं कभी अहसास भी नहीं कराना चाहती कि वो बेटी हैं तो उनके लिए कुछ भी असंभव है. मैं चाहती हूं कि मैं भले ही बस या टैक्सी चलाती हूं लेकिन मेरी बेटियां जहाज उड़ाएं.