अच्छा-खासा चलता हमारा ढाबा जला दिया. पूछताछ के लिए पति थाने ले जाए गए, तो वहीं रह गए. साढ़े नौ महीने जेल. मन्नत-पूजा, देवी-देवता सबने धोखा दे दिया. पड़ोसी शक से देखते. जेल आदमी जाता है, गुनहगार औरत हो जाती है.’ आवाज, जख्म से भरी हुई, जैसे भीतर जमा खून धीरे-धीरे बाहर रिस रहा हो.
करीब 55 साल की सरोज लंबी बातचीत में एक बार भी खुलकर नहीं रोतीं. आंखें कड़ुवाई हुई. गुस्से से. दुख से. सवालों से. मुझसे पहले कई और लोग भी सवाल कर चुके होंगे. बेफायदा. मुझसे पहले भी कई हाथ तसल्ली जता चुके होंगे. बेकार. मैं सवाल रोक देती हूं. कैमरा भी बंद है. अब सामने वो औरत है, जिसकी जिंदगी कैलेंडर की एक तारीख ने बदलकर रख दी.
बीतने से ऐन पहले तीखी बरसता हुआ जाड़ा. ठंड से काले पड़े पेड़. कार खाली सड़क पर सांय-सांय दौड़ रही है, मानो पानी में तैरती हो. फिर आता है शिव विहार. एक लोकल साथी मेरे इंतजार में हैं. रास्तेभर वे तीन साल पहले खाक हुई दुकानें दिखाते चलते हैं. एक गली की तरफ अंगुली तानकर कहते हैं, सब घर छोड़-छोड़कर जा रहे हैं. सेफ इलाके में. अब 'वही' लोग औने-पौने दाम पर मकान खरीद रहे हैं.
कार की पिछली सीट पर बेतकल्लुफी से बतियाते इस शख्स में सादापन है. सुबह-सुबह परेशान करने के लिए माफी मांगती हूं तो सहज बोल जाते हैं- अरे, समाज के काम में इतना तो करना ही होगा! फिर जैसे कुछ भूला हुआ याद आ गया हो, कहते हैं- दंगे जिसने कराए, वो बचे रहे. जिन्होंने मारकाट की, वे भी बचे रहे. मरे तो हम जैसे लोग. दोनों मजहब के गरीब.
मेरा ये सोर्स भी कई महीने जेल काटकर लौटा है. कत्ल के आरोप में. गौर से देखती हूं. गाड़ी का दरवाजा खोलते हुए भी जो हाथ ऐसे सकुचाए हुए थे, वो किसी की जान कैसे ले सकते हैं! जिस आदमी की झुर्रियों भरी हंसी में स्नेही पिता झांकता हो, वो घर-दुकान कैसे जला सकता है! लेकिन आरोप तो यही है. गुनते-बुनते हम घोंडा चौक पहुंच जाते हैं, जहां कुछ आगे चलकर सरोज का घर है.
वे नीचे दुकान में थीं. बुलाहट हुई तो हाथ पोंछती हुई आईं. उम्र के साथ भरा हुआ शरीर. चेहरा कुछ-कुछ वैसा जिसे देख गोद में सिर रखने को जी चाहे. उन्हें देखते हुए मां से मिलने की हुड़क जोर पकड़ती है, जिसे दबाकर मैं काम में जुट जाती हूं.
नूर-ए-इलाही में अच्छा-खासा चलता ढाबा जला दिया. लाखों रुपए का कर्ज लेकर एसी लगवाया था, वो लूटकर ले गए. उस सदमे से बाहर आ पाते, उससे पहले पति को जेल हो गई. इसके बाद तो सब बिगड़ता ही चला गया.
‘पहले तीज-तिहार पड़ता तो घर पर रौनक जम जाती. जाने-अनजाने सब आदमी अघाकर खाते. अब हमारे खाने को पैसे नहीं थे. शादीशुदा बेटियों से मांगने पड़े. कुछ पड़ोसियों से मांगे. कुछ रिश्तेदारों से. पहले ड्रमों में अनाज रहता था. अब किचन में पुड़िया-पुड़िया का ढेर लगा हुआ था. तिसपर कोरोना हो गया. न तो खाना बाकी था, न खाने की इच्छा.
सरोज लंबी-लंबी चुप्पियों के बाद छोटे-छोटे वाक्य बोलती हैं. हम रसोई में खड़े हैं. बेमेल बर्तन-बासे. कहीं एलुमीनियम, कहीं स्टील के. चीनी मिट्टी के अलग-अलग आकार-रंग वाले कप एक कोने में रखे हुए. इनके बीच बेरंग पुतली की तरह काम करती सरोज.
वो तो ढाबा जलने
पर जान बचाकर भागे थे...
पता नहीं! मैं जानती हूं कि उन्होंने कुछ नहीं किया. अरे, वो तो ढाबा जलने पर जान बचाकर भागे थे. स्टाफ में भी 6 लोग थे. सब किसी तरह बचते हुए घर पहुंच सके. दुकान भी जली. तिसपर जेल में भी धर लिया गया. ऐसे ही पूछने का कहकर पुलिस ले गई थी मार्च में. फिर लौटे ही नहीं.
साढ़े नौ महीने. मिलने गई तो रोते ही जाते थे. ऐसे सूख गए थे जैसे बिना पानी का पेड़. खाना बनाने-खिलाने के शौकीन थे. रात सैर-सपाटा करते हुए सबका हाल लेते, तभी नींद आती. ऐसे घुलमिल आदमी पर हत्या का इलजाम लगा दिया.
एक-एक दिन जोड़ती कि वो कब लौटेंगे. पंडित-बाबा सबसे उपाय पूछती. कोई कहता, ये बांधो. कोई कहता ये जपो. सब किया, लेकिन समय सरकता ही गया.
सरोज के चेहरे पर छूट-जाने का भाव. वो भाव, जो सतलड़ा हार गंवा चुकी औरत की आंखों में डोलता है.
क्या बच्चों के
लिए डर लगता है?
सरोज बोलीं तीन बेटियों की शादी हो चुकी है. एक बेटी-बेटा बाकी हैं. अब उनके लिए डर लगता है. जेल जा चुके बाप के बच्चों से कौन जुड़ना चाहेगा! हमको सालों से जानने वालों ने जब मुंह फेर लिया तो अनजान लोग भरोसा कैसे करेंगे. सब कहते हैं कि कुछ किया होगा तभी जेल गए. गली के आसपास कभी पुलिस मंडराए तो लोग हमारे घर की तरफ देखने लगते हैं. ऐसे में रिश्ता कैसे हो! अब तो शादीशुदा बेटियों के भी ससुरालवाले सवाल करते हैं कि क्या हुआ था.
सूखी हिचकी शरीर को हिला देती है. ये एक मां है, जिसका रोना अलग तरह का है. गहरा. जैसे मन में कोई जाप चल रहा हो. दिन-रात का. वो डरी हुई हैं कि पिता का लौट आना भी उन दिनों को अनदिन नहीं कर सकेगा, जो जेल में बीता. जले हुए के निशान की तरह वो हरदम शरीर में सबसे ऊपर झलझलाएगा.
सरोज के अंचरे में दुख की कई-कोई पुटरियां बंधी हैं. जेल से लौटा हुआ पति पुराने दिन नहीं लौटा सका. वो बदलकर आया था. बार-बार टूटती आवाज कह रही है- वो भूल जाते थे. बार-बार ऐसे करते जैसे जेल में ही हों. नींद में जागकर टहलने लगते. साढ़े नौ महीने बहुत होते हैं नेक इंसान को डरा देने के लिए. वे डरे रहते थे. हम डरे रहते थे. तभी लोन लेकर हमने एक किराने की दुकान खोली. मैं उसमें बैठने लगी कि खर्चा-पानी निकल आए. पति खुद नहीं बैठ पाते थे. दुख की घुन खा गई थी उनको.
'घर नहीं बेचेंगे...
जो होगा, यहीं भोगेंगे'
पति की तबीयत के बारे में पूछने पर सरोज बोलीं- पहले से ठीक. हंसने-बोलने भी लगे हैं. लेकिन भोगा हुआ अब वापस नहीं जा सकेगा. लौटने के बाद हमने नूर-ए-इलाही के उस हिस्से में जाना-आना बंद कर दिया. पुराने चेहरे दिख जाए तो मुंह कड़वा हो जाता है. ढाबे में मुफ्त में आकर खाते यही लोग हैं, जिन्होंने बुढ़ापे में एक आदमी को जेल भिजवा दिया.
सुना कि इस इलाके में बहुत से लोग घर बेच-बूचकर जा रहे हैं. आप लोग भी क्यों नहीं सोचते! ‘घर भी भला कोई छोड़ता है क्या! भागते फिरेंगे तो जमीन का कोई टुकड़ा बाकी नहीं बचेगा.’ आवाज में न दुख, न गुस्सा. बस, हथेलियां खोलकर सब बहा देने का भाव. अब जो होगा, यहीं भोगेंगे.
बेमेल बर्तन-बासों के बीच बेरंग पुतली की तरह बसी सरोज चाय की प्याली पर सुख-सांद नहीं पूछतीं. न लहककर रो पड़ती हैं. शाम के झुटपुटे की तरह उनका दुख धीरे-धीरे पसरता है और एकदम से कब्जा कर लेता है. किचन में खाली कनस्तरों की मालकिन इस औरत को दुख है कि जेल जा चुके पिता की बिटिया से कौन ब्याहेगा! कि एक बार तो दुकान ही जली, दूसरी बार कहीं परिवार ही राख न हो जाए. दंगा शब्द कहते ही वे रो देती हैं, जैसे अपनी मरी हुई मां को रोती हों. अनाथ हो जाने का दुख. दिल्ली जैसे भरेपूरे शहर में अकेला पड़ जाने का दुख. जीते-जी कयामत झेल लेने का दुख.
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