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दिल्ली दंगा:तीन साल, पांच कहानियां

भाई के जनाजे ने 14 साल की बेटी को बुत बना दिया, बेटे की मौत को रोएं या बेटी की बीमारी को?

सात भाइयों की इकलौती बहन के घर पहुंचती हूं तो अब्बू कहते हैं- ‘भाई का जनाजा देख दिमाग फिर गया पगली का’! गीली आवाज, जिसमें प्यार, उलाहना, गुस्सा, शिकायत सबकुछ है- और सबसे ज्यादा है उदासी. परतदार दुख, जिसे जितना खोलो, प्याज की तरह खुलता ही जाए. इस घर का किस्सा ये कि मरे हुए बेटे की मौत को रोएं, या जिंदा बेटी के पागलपन को?

दंगों ने कई गांव-शहर, तारीखों को स्टैच्यू बोला है बार-बार. रुका हुआ वक्त, रुके बिंब और बेतरतीबी में रुके हुए लोग...कश्मीर से केरल तक ये लोग फैले हुए हैं. ज्यादातर चेहरे जनाना. अपनी बेखयाल जिंदगियों के साथ. सहमे, खोए, सुबकते और गुमशुदा. सीरीज की इस कड़ी में पढ़ें, उस बच्ची को, दंगों में भाई की मौत ने जिसे पथरा दिया.

एक आदमी. एक औरत.

आदमी कत्ल करता है. औरत झर-झर रोती है.

आदमी कत्ल होता है. औरत टूटकर रोती है.

आदमी गुस्साता है. औरत हिलककर रोती है.

रोती औरत पूछती है- मुझसे क्या भूल हुई! गुस्सेवर आदमी पीठ फेर लेता है.

औरत बांह पकड़ती है. आदमी झिड़क देता है.

आदमी- पिता-पति-औलाद और भाई.

औरत- बेटी-बीवी-मां और बहन.

ये कहानी है एक बहन की, दंगों में जिसके भाई की मौत हो गई. सात भाइयों की अकेली बहन. कहानियों वाली बहन. लाड़ जताते भाई. दंगे की दोपहर एक भाई गायब हुआ तो तीन दिन बाद मिला. गोलियों से छलनी. मुर्दा. तब 14 की बहन अब 17 की हुई. नहीं जानती कि तीन सालों में दिल्ली में कौन सा नया बाजार खुला. कपड़ों का कौन सा फैशन आया. कौन सी पिक्चर आई-गई. या कितने दिन बीते. स्कूल छूटा. सहेलियां छूटीं. बचपन भी छूट गया. मां कहती है- भाई के जनाजे पर बहन का दिमाग 'चल' गया. मैं उसी मां हमीदा के सामने हूं.

कहती हैं- 'काम पर ऐसे निकला कि फिर लौटा ही नहीं. बेहिसाब परेशान रहे. बेटे की मौत का गम भी नहीं मना सके. लड़की बीमार हो गई. जिस बेटी को फूलों की तरह सहेजकर रखा, वो जमीन पर लोटकर रोती. छूटते ही मरने को भागती. हस्पताल भी गए. मस्जिद भी. मंदिर भी. तीन साल बाद अब जाकर बेटी जरा ठीक है. आप उससे कुछ पूछिएगा मत. दौरा पड़ जाएगा'

हमीदा के बोलते-बोलते मेरे गले में कुछ फंसने लगा है. खंखारकर गला साफ करते हुए देखते हूं. बच्चा झुला रही हमीदा की आंखें बिना खिड़की वाले कमरे के पार कहीं अटकी हैं.

दिल्ली को शहर-ए-खास बनाने में खान मार्केट या लोधी रोड जितने जरूरी है, उतने ही जरूरी हैं तंग गलियों वाले मोहल्ले. इन गलियों में सब मिलेगा. बालों में लगती काली पिन से लेकर ब्रांडेड विग भी. विलायती फलों से लेकर ठेठ देसी सब्जियां भी. और फ्रांसीसी परफ्यूम से लेकर अत्तर भी. नूर-ए-इलाही ऐसा ही एक इलाका है. नया होकर भी पुरानेपन को सहेजे हुए. उत्तर-पूर्वी दिल्ली की दंगा-पीड़ित औरतों से मिलते हुए मुझे हमीदा का पता मिला.

चौड़ी सड़क के किनारे गाड़ी लगाते हुए मुस्तैद ड्राइवर ने पहली बार मुंह खोला- 'संभलकर जाइएगा मैडम. कोई जरूरत हो तो मैं भी साथ चलूं!' चेहरे पर हल्की चिंता. छोटी मुस्कान से उन्हें भरोसा दिलाती हुई मैं आगे बढ़ गई, जहां एक पॉइंट पर हमीदा के बेटे मुझे लेने आने वाले थे.

ये कोई पॉलीक्लिनिक था. जनाना-मर्दाना सब मर्जों के इलाज के साथ बिना दर्द दांत उखाड़ने का प्रॉमिस नीले-हरे अक्षरों में खुदा हुआ. धूप से ओट के लिए मैं किनारे सरक आई. इतनी देर में कई लोग आसपास जुटने लगे. ‘दंगों पर बात के लिए आई होंगी. अब तो सब आएंगे.’ खुसपुस हल्की होकर भी इतनी जोर से कि कानों तक पहुंचे. गले में झूलता अपना कार्ड निकालकर मैंने बैग में डाला और फोन देखने लगी.

इतनी देर में हमीदा के बेटे बाइक पर आ चुके थे. झिझकते हुए पूछते हैं- ‘आप पीछे बैठेंगी या पैदल आएंगी’. मुझसे आधी उम्र. आंखों के नीचे पुतलियों से भी स्याह घेरा. समझ जाती हूं कि सवालों का होमवर्क यहां काम नहीं आने वाला.

खड़ी-खड़ी सीढ़ियां. चढ़ते हुए घुटने कर्र-कर्र बोलते हैं. छोटा दालान पार कर दूसरी मंजिल की बैठक में छोड़ लड़का चला जाता है. नीची छत वाला छोटा कमरा. फर्श पर मोटा गलीचा. जैसा कश्मीर में होता है. या फिर दिल्ली की सर्दियों में फेरीवालों के पास! दूसरे कोने में लाल चादर वाला मोटा गद्दा. कोई खिड़की नहीं. बस, अंदर-बाहर के लिए एक दरवाजा. इसी दरवाजे से हमीदा आती हैं.

पचास साल की इस औरत की गोद में कुनमुन करता बच्चा. इतना छोटा कि आंखें पूरी न खुलें. किसी नातेदारिन का बच्चा है ताकि वो आराम कर सके.

बिजली की दुकान थी उसकी. कुछ महीने पहले ही खोली थी. उस दिन भी अपने अब्बा के साथ काम कर रहा था. वेल्डिंग मशीन की जरूरत पड़ी तो लाने निकला. फिर गायब हो गया. इतनी देर में गलियों में भीड़ ही भीड़ हो गई. लोग चिल्ला रहे थे. आग-गोलियां चलने लगीं. फिर किसी ने कहा कि सुभान को गोली लगी है. आग-वाग भूलकर हम भागे लेकिन सुभान नहीं मिला.

वो 24 फरवरी थी. हम अस्पताल-अस्पताल भटकने लगे. 27 फरवरी की सुबह जीटीबी अस्पताल में उसकी लाश मिली. 24 साल का मेरा बच्चा जर्द पड़ा हुआ था. कपड़ों का शौकीन था. लेकिन आखिरी वक्त पर धूल-मिट्टी में लिथड़ा हुआ. क्या पता, दम तोड़ते हुए घुटे गले से उसने हमें पुकारा भी हो!

हमीदा की गोद जोर से हिलने लगी. बच्चा कुनमुनाता है. गोद लय में लौट आती है. आंसू घोंटने की कोशिश में होंठ अब भी फड़क रहे हैं. थोड़ी देर बाद संभलकर कहती हैं- वो गया, साथ में सब चला गया. जनाजे से पहले सूरत देखते ही बेटी रोने-चीखने लगी. हमने सोचा कि थोड़े दिन में संभल जाएगी, लेकिन वो शुरुआत थी. मर्ज बिगड़ता ही चला गया.

महीनेभर बाद एक दिन उसने हमें पहचानने से ही इनकार कर दिया. कहती- मैं फलां गांव की थी. तुम लोग पकड़कर अपने घर ले आए. भागने को होती. चीखकर सिर दीवार पर मारती.

सैकड़ाभर सर्जरी कर चुके डॉक्टर की तरह सर्द आवाज में हमीदा बता रही हैं. पहले कभी बुखार भी नहीं आया था. हरदम हंसती मेरी बच्ची अब रोए ही जाती. पहले हस्पताल गए. एक-दो-तीन. फिर धागे बंधवाए. 'आपके' बालाजी भी गए थे. उधर राजस्थान में. पंडित बार-बार यहां-वहां भेजते. जो बोला, सब किया लेकिन बच्ची वही रही.

‘पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट भेजूं
तो बता पाएंगी कि गोली किसकी थी?’

हां, कहते हुए वहीं बैठा भाई मोटा पुलिंदा लेकर आता है. एक-एक कागज सहेजा हुआ. तारीख दिखाते हुए कहता है- तीन साल बीत गए. हमें नहीं पता कब सर्दी आई, कब बारिश. महंगाई बढ़ी कि घटी. घर के बाहर पेड़ सूखा या नया बूटा उगा. हफ्ते का कौन सा दिन है. क्या साल हुआ. कुछ याद नहीं रहा. पता था तो इतना कि बड़ा भाई गया.

निहायत ढीठ बनी मैं एक बार बेटी से मिलना चाहती हूं. सवाल नहीं करूंगी. बस मिल लूंगी. भाई बैठक से चला जाता है. 5 मिनट में लौटा तो नजरें टिकी रह गईं. फूलों की क्यारी को जैसे रौंद दिया जाए, मेरे सामने दिमाग चली हुई वही प्यारी लड़की बैठी है. गहरी काली आंखें खुलकर देखती हुईं. जगमग करते हीरे पर कार खूब-सा धुआं उगलकर चली गई हो, ऐसा चेहरा.

एक हाथ में मेहंदी लगी है. मैं छूते हुए कहती हूं- अरे वाह! इतनी सुंदर मेहंदी किसने लगाई? बचकानी बात, लेकिन मैं कुछ भी बोलते डर रही हूं. बच्ची कुछ कहे, उससे पहले भाई पूछ लेता है- तुझे सुभान के बारे में कुछ कहना है! लगभग पुचकारती हुई आवाज में किया सवाल. लेकिन बच्ची की आंखें एकदम से बदल जाती हैं. भौंहें सिकुड़कर पास आती हुई. एक-दो पता नहीं कितने मिनट बीते. बैठक में चुप्पी रही. पूछे जा चुके सवाल को मिटाने का कोई रास्ता होता, तो मैं वो कर देती, लेकिन पूछा जा चुका.

भाई संभालकर बहन को वापस ले जाता है. अब्बू कहते हैं- अच्छा हुआ, बात ज्यादा नहीं खिंची. वरना रोती तो सांस उखड़ जाती. मुश्किल से संभल रही है. बड़ा भाई जान लुटाता था. बहुत मोहब्बत किए था इससे. उसके साथ ये भी चली गई. रोती है तो रोए ही जाती है. सामान फेंकती है तो सबकुछ बर्बाद कर देती है. भूलती है तो हमें, अपने अब्बू-अम्मी को भूल जाती है.

मैं देख रही हूं. बच्चा झुलाती अम्मी का चेहरा फक पड़ा हुआ, मानो मरे हुए बेटे और बीमार बेटी का जिक्र एक बराबर हो. रिकॉर्डर अपनी तरफ मोड़ने पर कहती हैं- हम ऐसे रहते हैं जैसे कोई हादसा हुआ ही न हो. बच्ची न ज्यादा खुशी सह सकती है, न ज्यादा गम. दिमाग की नसें बिलॉक (ब्लॉक) हो चुकीं इसकी.

मना करने पर भी नीचे छोड़ने के लिए बेटा आता है. जाते हुए कहता है- पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट भेजूं तो क्या आप बता सकेंगी कि गोली पुलिस की थी या किसी आम आदमी की!

दुनिया तीन साल आगे निकल चुकी, लेकिन दिल्ली के इस घर में वक्त ठिठका हुआ है. बहन के पागलपन में. मां के आंसू घोंटने में. भाई के अनबोले गुस्से में. और अब्बू की चुप में.

खड़ी सीढ़ियों वाले उस मकान से उतरते हुए एक गंध लपककर मेरा हाथ थाम लेती है. दुख की गंध. मौत की गंध से भी ज्यादा तीखी. मैं घर जाकर हाथ धोना चाहती हूं. रगड़-रगड़कर कि मेहंदी वाले हाथों की सारी याद निकल जाए. कि हर सवाल पर जोर से गोद हिलाती अम्मी का चेहरा भूल जाऊं. कि अपने से आधी उम्र के भाई की परेशान आंखें भूल सकूं. मौत की कहानियों की पीछे मैं नहीं, मेरे पीछे मौत की कहानियां चल रही हैं. शायद आप भी उस डर, उस त्रास को महसूस कर रहे हों!अगली और 5वीं कड़ी में पढ़िए, उस औरत को, पति के जेल जाने ने जिसे सबकी नजर में गुनहगार बना दिया.
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Illustrator: Vani Gupta

Creative Director: Rahul Gupta

UI Developer: Vishal Rathour, Mohd. Naeem Khan

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