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दिल्ली दंगा:तीन साल, पांच कहानियां

शादी के 11वें दिन शौहर चला गया, अब बस तस्वीरें हैं, और है बेवा का पुछल्ला

‘कुल 10 दिन राशिद का साथ रहा. जानती होती कि इतना ही वक्त मिलेगा, तो ज्यादा करीब से देखती. मूंछों के पीछे थिरकती उसकी हंसी को. गुस्से को. रूठने-मनाने को. सोते में बंद पलकों को. और धूप में सिकुड़ी आंखों को. जानती होती कि सब खत्म हो जाएगा तो ज्यादा संजोकर रखती. अब यादों के नाम पर कुछ तस्वीरें हैं, और तमाम उम्र.’

ये फरीदा हैं, दंगों की एक और कहानी, जो शादी के 11वें दिन बेवा हो गईं.

दिल्ली सिर्फ लाल किला नहीं. चांदनी चौक भी इसकी पहचान नहीं. धकियाकर सॉरी बोलते अंग्रेजी चेहरे भी दिल्ली की अकेली पहचान नहीं. शहर-ए-दिल्ली के इतिहास में दर्द भी है. खून भी है. और भांय-भांय करता सूनापन भी. साल 2020 के दंगों में मरे-मारों के बीच छूटी औरतें भी हैं, जिनकी सुध कोई नहीं लेता. 'आज तक' ने इन्हीं औरतों को टटोला. हाथ से हाथ छूकर उनकी टीस को जिया. गालों पर आंसुओं का स्वाद महसूस किया. उस बेहिस दर्द का कुछ हिस्सा पांच कहानियों की शक्ल में हम आपके सामने रख रहे हैं.

सीरीज की पहली किस्त में थी उस मां की कहानी, जिसका बेटा जेल में है. इस दफा पढ़ें, फरीदा को...

बीतती सर्दियां थीं. शाम की हवा में हल्की ठंडक के साथ घरों में पकती मक्के की रोटियां और हलवे की मिठास भरी हुई. मेरे लिए ये मिठास और गहरी थी. नई-नई शादी. शौहर खूब मजाकिया और प्यार बरसाने वाला. सास अम्मी जैसा लाड़ दिखाती. फिर सब खत्म हो गया.

14 को शादी हुई, और 25 फरवरी को शौहर को गोली लग गई. कैसे? किसलिए? नहीं पता. इससे फर्क भी नहीं पड़ता. फर्क पड़ता है तो इससे कि फरीदा अब अकेली हैं. यादों के नाम पर कुल 10 दिन हैं. मोबाइल की गैलरी में 126 तस्वीरें और एक पुछल्ला 'राशिद की बेवा' का.

गुलाबी-नीली दीवारों वाले कमरे में हल्की फूलदार चुनरी डाले फरीदा गुम हैं. कुरेदो तो टुकड़ों-टुकड़ों में कुछ कहती हैं. फिर छोटी-सी हंसी के साथ बोलती हैं- ज्यादा क्या बताऊं, बस इतना समझ लीजिए कि प्यार का एक लम्हा ही काफी था. राशिद से जो मोहब्बत उतने-से दिनों में मिली, वो जिंदगीभर चलेगी.

एक से दूसरे कमरे में जाते हुए कुल जमा 24 बरस की ये युवती ऐसे ठहरकर चलती है, मानो लंबी दूरी दौड़कर आई हो. बातचीत भी रुक-रुककर. बीच-बीच में जर्द हंसी. जिस सुबह मैं इनके घर पहुंची, किसी का मातम चल रहा था. फरीदा का मां ने बताया- 'इसकी चाची की इद्दत है. अबसे 4 महीने यहीं रहेंगी'. मुलाकातियों की भीड़ के बीच फरीदा उसी कमरे में हैं, जहां सोग छाया है. मेरे पहुंचते ही सारी औरतें जुट गईं. मैं सवाल करूं, उससे पहले मुझसे सवाल होने लगे. कहां से हो? शादी हो चुकी! बच्चे भी हैं! हर सवाल के बाद कोई न कोई समझाइश. सोग में पड़ी महिला भी बातचीत का हिस्सा थी, सिवाय फरीदा के. कोने की दीवार से लगी हुई वो जैसे कोई तस्वीर बन चुकी हो.

आखिरकार मां कहती हैं- पांच बच्चों में यही सबसे प्यारी थी. कर्ज लेकर सारे गांव को दावत दी. नई काट के जेवर बनवाए. लाल जोड़े में ऐसे चमचमा रही थी कि कोई दुल्हन आज तक नहीं देखी. क्या पता था कि इसका नसीब ऐसा खोटा निकलेगा! नए दामाद की खातिर भी न कर सके थे कि चला गया. सूखी आवाज में सारी खबर सुनाती मां की आवाज एकदम से भर्रा जाती है. आगे कहती हैं- छोटी-सी मेरी बच्ची. शादी के 11वें दिन बेवा हो गई. मेहंदी तक लाल की लाल पड़ी थी.

जिस कमरे में हम बैठे हैं, वहां अब सन्नाटा है. मुझसे घर-बार के सवाल करती हर आंख में आंसू, मानो तीन साल पहले की फरवरी लौट आई हो. मैं धीरे से पूछती हूं- फरीदा की अभी सारी उम्र पड़ी. शादी की नहीं सोची! हमारे सोचने से होता तो कब की घर बसा चुके होते. कसमें दे दीं लेकिन ये दूसरी शादी को मानती ही नहीं.

शिकायत-सी करते हुए मां आगे बताती हैं- एक बार शादी हुई तो लड़की के दाग लग गया. चाहे 1 दिन रहे, चाहे 10 दिन. अब इससे कोई शादी करे भी तो बिना पैसे लिए नहीं करेगा. यही सोचकर शायद मना करती हो. बेटी है भी तो इतनी सयानी. लगभग 50 साल की इस औरत की आवाज शिकायत और दुलार दोनों से पगी हुई, जैसे बोलकर ही बेटी को आंचल में समेट रही हों.

कमरे की औरतें बता रही हैं कि सास ने लड़की के सारे गहने-कपड़े रख लिए. यहां तक कि डेथ सर्टिफिकेट भी नहीं लौटाया. क्यों? वे कहते हैं कि सरकार की तरफ से मिले मुआवजे का आधा हिस्सा दो तब अपनी चीजें ले जाओ.

मां कहती हैं- इद्दत के समय फरीदा का पुराने कपड़ों में ही लेकर आई थी. न कोई नथनी, न छल्ला. तब से अब तक ऐसी ही है. आंखों में काजल तक नहीं डालती.

ये सारी बातें तब कही जा रही हैं, जब फरीदा कमरे में ही हैं. दाएं कोने की दीवार से लगी हुई. जमीन को टुकुर-टुकुर देखती हुई. मैं बेचैन होकर पूछती हूं- इनसे मैं दूसरे कमरे में बात कर सकती हूं? अकेले! मिनटभर की चुप्पी के बाद मां जाकर कमरा खाली करा लाती हैं.

...और फिर
टूट पड़ी चुप्पी!

रोज किसी न किसी रिश्तेदार से घर से दावत का न्यौता आता. उस दिन भी ऐसा ही कुछ था. मैं तैयार होकर मगरीब की नमाज में बैठ गई. नमाज खत्म ही हुई थी कि तभी सास आईं. बदहवास चेहरा. बड़ी मुश्किल से बता सकी कि राशिद को चोट लगी है. बाद में पता लगा, उन्हें गोली लगी थी. 14 फरवरी को हमारी शादी हुई. 25 फरवरी को सब खत्म हो गया. राशिद के साथ ही मेरा इंतजार भी खत्म हो गया. दावतों में जाने का. हंसने का. प्यार का. और परिवार का.

राशिद मेरी फुफ्फी के लड़के थे. परिवार में कोई मौका हो, जश्न या फिर मातम- हम सब जुटते. मैं भी और राशिद भी. हम सारे बच्चे मिलकर धमाचौकड़ी किया करते. मैं खो-खो की उस्ताद थी. धूम मचा देती. कंचे खेले जाते. कभी कबड्डी होती तो कभी हारने पर जूतमपैजार भी हो जाती. तब पता नहीं था कि जिसके साथ मैं खेल-कूद रही हूं, वही मेरा शौहर होगा. कहीं कोई परदेदारी नहीं थी, बस बचपन था, और कंचे-गुल्ली वाले खेल थे.

एक रोज पापा ने एलान कर दिया कि मेरा निकाह राशिद से होगा. उनकी मैं सबसे प्यारी औलाद थी. वे मुझे नजरों के पास रखना चाहते थे. और सबसे खुश देखना चाहते थे. राशिद में उन्हें वो सारी खूबियां दिखीं, जो उनकी नन्ही का दामन खुशियों से भर दे. बस्स! इसके बाद से मैं बड़ी होने लगी. बचपन वाली धूमपटक एकदम से गायब हो गई. शादी-ब्याह या दूसरे मौकों पर राशिद और मैं टकराते. आंखें मुस्कुराती. पुराने खेल-तमाशे याद आते लेकिन बातचीत नहीं होती थी. हमने बचपन की यादों को संजोकर रख लिया था कि अब जब मिलेगें, तभी पिटारा खुलेगा.

फास्ट फॉरवर्ड
टू 2020

लगभग 20 साल की फरीदा सीलमपुर की गलियों में भटक रही थी कि कहीं तो ऐसा जोड़ा मिले जो उसके उजले रंग को और निखार दे. वो दुकानें छान रही थी कि कोई तो ऐसा नग दिखाए जो उसकी आंखों के हीरे के आगे फीका न लगे. ऐसी चूड़ियां तलाश रही थी, जिनकी छुनछुन उसकी हंसी से मेल खा सके. कई दिनों तक धूलभरे बाजारों के चक्कर काटने के बाद फरीदा को ये सब मिला.

वे याद करती हैं, मैंने गहरे लाल रंग का जोड़ा खरीदा था. लाल-सुनहरी चूड़ियां और दमकते गहने. राशिद ने स्लेटी रंग का कोट-पैंट पहना था. बाल नए फैशन में संवरे हुए. एकदम साहब लग रहा था उस दिन वो. मुझे याद आया कि कंचे खेलते हुए हारने पर कैसे गुस्से में बाल खींचने लगता था. शादी के बाद साथ खड़े हुए तो लोग मजाक करने लगे कि कौन, किसपर भारी लग रहा है. मैं पक्का थी कि बाजी तो मैंने मारी है. राशिद बगैर कुछ बोले मुस्कुरा रहे थे. वो 14 फरवरी का दिन था. मोहब्बत का दिन.

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राशिद ने आपको कभी कुछ तोहफे में नहीं दिया! सवाल करते ही मैं पछताने लगी कि पूछा जा चुका था. वे उतनी ही संजीदगी से कहती हैं- 10 में कितना-क्या देते. एक चांदी का पेंडेंट दिया था, जो अगली सुबह टूट गया. एक-एक करके सब टूट रहा था. नथ टूट गई. पायल की कड़ी निकल गई. पेंडेंट भी टूट गया. जैसे कोई इशारा हो.

फरीदा के जर्द चेहरे पर सफेदी की एक परत और दिखने लगी. इतने में कमरे में एक बच्चा घुस आता है. उसे हाथों में पटोरते हुए फरीदा हंस देती हैं. ठंडी-बेजान हंसी!

शादी क्यों नहीं
कर लेतीं?

कर लूंगी तो फिर मुझे राशिद की विधवा भी कोई नहीं बुलाएगा. अभी वो भले न हों, उनका नाम मुझसे जुड़कर चल रहा है. अच्छा लगता है, जब गांव में सब मुझे राशिद की बीवी या राशिद की बेवा ही बुला लें. दूसरी शादी करूंगी तो ये हक चला जाएगा.

10वीं पास फरीदा ने कभी कविताएं नहीं पढ़ीं. बड़े उपन्यास भी शायद ही पढ़े हों. दिल्ली और बुलंदशहर से बाहर वे कहीं नहीं गईं, लेकिन जिस मुलायमियत से वे प्यार को शब्द देती हैं, वो बांधने वाला है. उतनी ही शिद्दत से वे अपने फोन की गैलरी में राशिद की तस्वीरें दिखाती हैं. पूरी 126 तस्वीरें. महीने के हिसाब से भी देखें तो कम से कम 10 साल तो यादें चल ही जाएंगी. पक्का हिसाब. कोई खिड़की नहीं, जहां से चूक भीतर आ सके.

वे याद करती हैं- हमारी शादी के ऐन बाद घर में दो और ब्याह थे. सोचा कि इकट्ठे एलबम बनवाएंगे. फिर मौका ही नहीं मिला. मीठा बनाने के बाद निकाह वाली हरी चूड़ियां तोड़ने का रिवाज है. वो भी राशिद के जनाजे पर तोड़ीं. अब जो है, यही है.

फरीदा अपने माता-पिता के पास लौट चुकीं. शादी वाले लाल जोड़े का पूछने पर कहती हैं- वो तो उसी घर में छूट गया, जैसे हंसते हुए मेरे दिन. ससुरालियों ने कुछ भी देने से मना कर दिया. मैं मनहूस थी, जिसके साथ ने उनके अच्छे-खासे बेटे को खत्म कर दिया.

बामुश्किल 24 साल की हैं फरीदा, उनकी मां कहती हैं- शादी भले एक दिन टिके, लेकिन लड़की पर दाग लग जाता है. दागदार हो चुकी मेरी बच्ची कैसे इतनी लंबी उम्र काटेगी! टकर-टकर देखती आंखों में सवाल की शक्ल में बेहिसाब तकलीफ. बूढ़ी होती ये मां, घुटनों के दर्द के साथ दिल का दर्द लिए भी सोती होगी. ये मां अकेली नहीं. न ये बेटी अकेली है. कितनी ही छतों के नीचे ये तकलीफ सांस ले रही होगी. आप भी सुनें और महसूस करें. अगली कहानी उस औरत की, पति के कत्ल के बाद जो रोज उसी गली में सब्जी की दुकान लगाती है, जहां शायद उसके पति के कातिल रहते हों. पढ़ें,
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Illustrator: Vani Gupta

Creative Director: Rahul Gupta

UI Developer: Vishal Rathour, Mohd. Naeem Khan

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