scorecardresearch
दिल्ली दंगा:तीन साल, पांच कहानियां

नौ हत्याओं के आरोप में बेटा जेल गया, सोग मनाते हुए बहू गुजर गई!

साल 2020 का दिल्ली दंगा अब एक तारीख हो चुका. एक खूनी लम्हे की पैदाइश की तारीख. तस्वीर धुंधला रही है. वक्त के साथ तकलीफ भी बीत जाएगी. सबकुछ पुराने ढंग में लौट पड़ेगा. खून के प्यासे लोग आपस में मिलेंगे. सौदा-सुलफ होगा. खीर-सिवइयां बंटेंगी. ठिठकी रहेंगी तो औरतें. इन औरतों ने न गोलियां चलाईं, न लाठियां. लेकिन जख्म सबका-सब इनके ही हिस्से आया. कसूर ये कि इनकी कोख ने मर्दों को जन्म दिया.

दंगे मर्द करेंगे. दर्द औरत भोगेगी.

जंग मर्द करेंगे. हार औरत झेलेगी.

खून मर्दों का होगा. मौत औरतों की…

दंगों के तीन साल बाद 'आज तक' ने इन्हीं औरतों को टटोला. प्रेम-परियों, सूरज-समंदर या रोटी-पानी के किस्सों के लिए नहीं, नंगे सच के लिए. वो सच, जो दंगाइयों और दंगा-पीड़ितों की कहानियों के बीच खोया हुआ था. ताकि उस सच की आंच, उसमें झुलसती औरतों के चेहरे, पेशानियों की तपिश और दर्द को उनके साथ हम-आप भी महसूस करें.

सीरीज की पहली किस्त में पढ़ें उस मां को, जिसका बेटा 9 हत्याओं के आरोप में जेल में है.

हफ्तेभर पहले 8 साल की पोती ने छोले-भटूरे मांगे थे. रोज खाने के वक्त टुकुर-टुकुर देखती कि थाली में शायद भटूरे मिलें. नहीं मिल सके. तीन छोटे-छोटे बच्चे हैं. किसी को दूध चाहिए, किसी को खिलौना. खुद कैंसर की मरीज. डॉक्टर ने अनार खाने को कहा, बिना ये जाने कि आलू तक मेरे बस में नहीं.

उदासी का अगर कोई चेहरा होता, तो वो इस वक्त मेरे सामने बैठा है. वक्त की मार से झुलसा. आंखों के नीचे स्याही की बोतल उलट पड़ी हो. झुर्रीदार गालों पर आंसू की बूंद ठिठकी हुई, मानो दुख ने उसे भी बर्फ बना दिया हो. आवाज- थकान और इंतजार से लगभग बुझती हुई.

इस फरवरी की बेहद ठंडी सुबह मेरी एक मां से बात हो रही है. उस मां से, जिसका बेटा 3 साल से जेल में है. सड़क पर हुई उन 9 हत्याओं के आरोप में, जब मां के मुताबिक वो घर पर था. इन्हीं सालों में जवान बहू खत्म हो गई. और खत्म हो गईं, वे सारी उम्मीदें जो एक जिंदा इंसान में होती हैं. इस औरत को न इंसाफ चाहिए, न खुशियां. उसे सिर्फ रोटी चाहिए ताकि पोते-पोतियां पल सकें.

दिल्ली का भगवती विहार! जिस सुबह मैं वहां के लिए निकली, दिल्ली रातभर की बारिश में धुलकर निखर गई थी. हरे पत्ते-भुनगे नहाकर जैसे ताजादम हो आए हों. चौड़ी सड़कों पर फर्राटे से भागती गाड़ी उत्तर-पूर्वी इलाके में पहुंचते ही एकदम से धीमी हो गई. पानी-भरे डबरों के बीच-बीच में सड़कें झांकती हुईं. किनारे लगे पेड़ों की जगह या तो खोमचेवाले दिखेंगे, या कूड़े के छोटे-बड़े ढेर.

दीवारों पर चटख रंगों की जगह पुराने पर्चे लगे हुए. बीते चुनावों के, जिसमें वोट के बदले होप का वादा है. मनचाही नौकरी के पोस्टर. बवासीर और गुप्त रोगों के इलाज वाले पोस्टर. और बेवफा प्यार को वापस लौटाने वाले निपट अकेले बाबा-फकीरों के पोस्टर. ताजे-अधगले इन पोस्टरों के बीच ही हांफते-कांखते घर छिपे हुए हैं. इन्हीं में एक घर है लता का. जब हम पहुंचे, वो लिफाफे बना रही थीं. लाल बुंदकी वाली चादर पड़े बिस्तर पर अखबार की कतरनें और सस्ते गोंद की बोतल रखी हुई.

लता हाथ से ही ढेर को सकेलते हुए बैठने का इशारा करती हैं. मैं एक कोने में टिक जाती हूं. लिफाफा उठाकर देखने लगती हूं तो आवाज आती है- रख दीजिए जी, अभी गोंद कच्ची है. सकपकाकर मैं लिफाफा रख देती हूं.

मार्च 2020 की एक सुबह पुलिसवाले आए और बेटे को पूछताछ के लिए ले गए. फिर वो वापस नहीं लौटा. लता याद करती हैं- उस दोपहर की रोटियां मैंने और बहू ने खा लीं. रात ताजी रोटियां डालीं लेकिन वो नहीं लौटा. अगले दिन भी यही हुआ. अब तो तीन साल हो गए. न उम्मीद ताजी रही, न रोटियां.

बात करते हुए लता अपने घुटनों पर हाथ फेर रही हैं. झुर्रीदार बाएं हाथ की ऊंगली पर नकली मोती वाली अंगूठी ढीली होकर गिरने-गिरने को है. जिस उम्र में बाकी औरतें घुटनों पर कड़वा तेल मलकर धूप सेंकती हैं, कैंसर की ये मरीज सीलनभरे घर में बच्चे संभाल रही है.

24 फरवरी को
क्या हुआ था?

सीधे सवाल पर लता चुप हो जाती हैं. हवा में झूलता सवाल दोबारा लौटता है- जब दंगे हो रहे थे, आप सब कहां थे, और आपका बेटा?

वो चांदनी चौक पर अपने काम से लौट रहा था. घबराकर मैं बार-बार फोन करने लगी तो रो पड़ा. ‘अम्मा, कहां से घर आऊं, रास्ते सब घिरे पड़े हैं. निकलूंगा तो गोली मार देंगे.’ 6 फुट का मेरा बच्चा फोन पर ही सुबक रहा था. रात साढ़े 12 के करीब लौटा तो हमने जो कुंडी चढ़ाई कि दो दिन बाद ही दरवाजा खुला.

इस बीच गली में लगातार शोर होता रहा. कभी गोलियों की आवाज आती, कभी नारों की. दरवाजा हमारा कच्चा-सा है. जिस पलंग पर आप बैठी हैं, हमने उसे ही सामने भिड़ा दिया. दोनों बेटे पहरेदारी में लग गए. बहुएं बाकी सब संभालने में. डर के मारे कौर गले से नीचे नहीं उतरता था. टीवी-बत्तियां बंद कर रखी थीं. जैसे-तैसे दिन बीते. फिर सब पहले जैसा हो गया. बेटा वापस काम पर जाने लगा, जब तक कि पुलिस ने उसे धर नहीं लिया

कहां काम करते
थे वो?

चांदनी चौक पर साड़ी की एक दुकान में. वो सेलस (सेल्स) में था. कपड़े दिखाता. ऐसी मीठी बोली कि जो आता, साड़ियां खरीदकर ही लौटता. दुकान का मालिक भी उसपर भरोसा करता था. कभी-कभी पैसों के साथ उसे सूरत भी भेजता. उसे तो साड़ी पहनाना भी आ गया था. कभी-कभी बहू के भी चाव उठा लेता. सब हंसते, लेकिन बेटे को खास परवा (परवाह) नहीं थी. दिलजोई खूब आती थी उसे. जलनखोरों की हाय खा गई उसे!

4 दशक से दिल्ली में रम चुकी इस मां की बातों में अब भी ठेठ शब्द टपक पड़ते हैं, जैसे गंभीर चर्चा के बीच परदा सरकाकर छोटा बच्चा आ जाए.

अभी इनसे बात हो ही रही थी कि एक पोती आ गई. लगभग 6 साल की टुकुर-टुकुर देखती बच्ची. नाम पूछती हूं तो शरमाकर मुंह दादी की गोद में घुसा लेती है. दादी की आवाज घुमड़ने लगती है. ‘इन्हें कैसे बताऊं कि क्या हो गया है! बालक इतना सदमा कैसे सहेंगे!’ मैं रिकॉर्डिंग बंद कर देती हूं. अब बच्ची मेरे पास है. दीवार पर पेसिंल से आड़ी-टेढ़ी लकीरें खिंची हुई. मैं पूछती हूं- ये ड्रॉइंग तुमने की? बच्ची की आंखें चमकने लगती हैं.

नानाम क्या है तुम्हारा? पारुल! गुनगुनाता हुआ-सा जवाब आता है. क्या पसंद है? चॉकलेट! उसे गोद में धरे-धरे ही बगल ही दुकान पर जाती हूं. चॉकलेट लेते हुए अपनी बेटी का खयाल आता है. एक उसके लिए भी लेना चाहती हूं, लेकिन रुक जाती हूं. ‘चॉकलेट से दांत खराब हो जाएंगे!’ लेकिन पारुल के लिए ये एक्सक्यूज नहीं.

शर्मिंदा होने की बजाए लगभग गर्व से लदी-फंदी मैं बच्ची और एक पैकेट के साथ घर लौटती हूं, जहां दादी दोबारा लिफाफे बनाने में जुटी हुई हैं.

इनका क्या
करती हैं?

बेचती हूं. दुकानवाले इसमें चना-चबैना देते हैं. पहले लोग मुफ्त में अखबार दे दिया करते. फिर पैसे मांगने लगे. अब मुस्तफाबाद से रद्दी के भाव लेकर आती हूं. वहीं जाकर बेचती भी हूं.

कितने में बिक
जाते हैं?

18 रुपए के तीन बंडल. एक बंडल में 50 लिफाफे होते हैं. कभी-कभी 10 रुपए में भी बेचना पड़ जाता है. थोड़े दिन पहले कमजोरी से बाजार में बेहोश हो गई. इसके बाद से बड़ी पोती टोकती है कि अम्मा मत जाओ, गिर जाओगी. 8 साल की बच्ची. कैसे इतने बड़े बाजार में अकेली जाने दूंगी!

दादी की आवाज सूखी हुई है. बरसकर खाली हो चुकी बेआस आवाज.

गला खंखारते हुए थोड़ी देर बाद कहती हैं- पहले आंख थी तो जरी-गोटे लगा लेती. शौक से. जरूरत नहीं थी. बेटा घर लौटता तो बहू कहती- अम्मी जी, कपड़े दुबका दो, वरना आपके बेटे राजा गुस्सा होंगे. एक वो वक्त था. एक ये है. किस्मत तो गई ही, आंखें भी चली गईं. दोनों में मोतिया (मोतियाबिंद) हो गया.

मैं गौर से देख रही हूं. अम्मा की आंखें इतनी काली पड़ी हुई कि मोतिया शब्द वहां फिट नहीं बैठता. बनते हुए लिफाफों के बीच मैं दूसरा शब्द खोजती लेकिन सवाल बाकी हैं.

बहू? क्या हुआ
था उन्हें?

लगभग घंटेभर में ये पहली बार था, जब लता चिहुंक पड़ी. ‘सोच घुन बन गई. चिंता करती थी. पहले पति की. फिर मेरी. कैंसर निकला तो रात-रात रोती. ‘अम्मा, क्या तुम भी हमें छोड़कर चली जाओगी!’ एक दिन बुखार आया और 10 दिन के भीतर चली गई. आग देने के लिए बेटा जेल से आया था. पागल-सा हो चुका था. चीख-चीखकर बोलता- ‘अपनी सोने-सी उजली बीवी तुम्हारे पास छोड़ गया था. तुमने मिट्टी कर दिया’. मैं क्या बोलती. मिट्टी तो वो हो गई थी, चाहे सोच-सोचकर हुई हो.

‘पगला उसको कंधे पर लेकर भागने लगा था. जैसे-तैसे पकड़ा. जेल जाते तक आंख फेरे रहा.’

लता इस बार भरभराकर रो पड़ीं. खुलकर. पूरी आवाज में. बहू की मौत पर. बेटे की नाराजगी पर. बच्चों की भूख पर. अपनी बीमारी पर. और सबसे ज्यादा, अपने जिंदा होने पर. रोते हुए ही कहती हैं- अब तो मौत भी नहीं मांग सकती, जब तक बेटा न लौट आए.

घर से निकल रही हूं, तब वे कहती हैं- तीन साल में कितने आए-गए. आप लिखेंगी तो कुछ मदद होगी? भरपूर आंखों से ताकता हुआ सवाल. भीतर कमरे में जाकर बच्चों को चूमकर मैं निकल पड़ती हूं. बिना जवाब दिए.

लता पलंग पर बैठी हैं. स्याह चेहरा. ताप में जलती आंखें. दंगों की आग में मकान-दुकान ही नहीं, इन जैसी मांओं का नसीब भी झुलसकर जल गया. मर चुके नसीब का सोग मनाने की भी छूट इस मां को नहीं. वो लिफाफे बना रही है.

लता की कहानी बस एक पन्ना है, अनगिन कहानियों की उस किताब का, जो दंगे और कत्ल-कातिल जैसे हर्फों के बीच रह-रहकर फड़फड़ा उठता है. सहमकर मूंद दिए जाने के लिए नहीं, पढ़ने और जीने के लिए- ताकि छोले-टिक्की की अधखाई प्लेट फेंकते हुए हम भगवती विहार के उस मकान को याद रख सकें, जहां छोटे-छोटे बच्चे रोटी के लिए तरसते हैं. अगली कहानी उस बेवा की, शादी के 10 रोज बाद ही जिसने अपना शौहर खो दिया.
पढ़ें, शेयर करें और प्रतिक्रियाएं भी दें.

गोपनीयता बनाए रखने के लिए पहचान छिपाई गई है.

Credits
Credits

Illustrator: Vani Gupta

Creative Director: Rahul Gupta

UI Developer: Vishal Rathour, Mohd. Naeem Khan

Please rotate your device

We don't support landscape mode yet. Please go back to portrait mode for the best experience