
'आज तक' के स्टिंग ऑपरेशन ने लखनऊ के कई सरकारी अस्पतालों में व्याप्त भ्रष्टाचार और अनियमितताओं को उजागर किया है. इस स्टिंग ऑपरेशन में साफतौर पर देखा जा सकता है कि कैसे राजधानी के सरकारी अस्पतालों में मरीजों को लाइन में लगने के लिए रिश्वत देने पर मजबूर किया जा रहा है और डॉक्टर कथित तौर पर अस्पताल में उपलब्ध मुफ्त दवाइयों के बजाय निजी दुकानों से दवाइयां लिख रहे हैं.
दरअसल, हाल ही में उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री ब्रजेश पाठक ने लखनऊ के बलरामपुर अस्पताल का औचक निरीक्षण किया था और डॉक्टरों द्वारा सरकारी पर्चियों पर बाहर की दवाइयां लिखने पर नाराजगी जताई थी. इतना ही नहीं इस बाबत दो डॉक्टरों को नोटिस भी जारी किए गए थे. इस पर 'आज तक' ने शहर भर में सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं की जांच शुरू की तो हकीकत सामने आ गई.
आपको बता दें कि शहर के सबसे व्यस्त सरकारी चिकित्सा केंद्रों में से एक बलरामपुर अस्पताल में निराशाजनक तस्वीर देखने को मिली. यहां मरीज इलाज के लिए सीढ़ियों और गलियारों में भीड़ लगाए हुए थे, कई लोग दवाइयों के पर्चे लेकर जा रहे थे, जिनके बारे में उन्हें बताया गया था कि वे अस्पताल में 'उपलब्ध नहीं' हैं- लेकिन उन्हें पता चला कि वे दवाएं आस-पास की दुकानों पर आसानी से बिक रही हैं.
मरीज की आपबीती, दलाल का किया जिक्र
मौके पर मौजूद इंद्रजीत नामक एक मरीज, जो अपने बच्चों के इलाज के लिए आया था, ने 'आज तक' को बताया कि उसे अक्सर बाहर से दवाइयां खरीदने के लिए कहा जाता है. जिस पर उसे हर हफ़्ते 300 रुपये तक खर्च करने पड़ते हैं. उसने यह भी आरोप लगाया कि राजा नाम का एक आदमी मरीजों को कतार में आगे बढ़ाने के लिए 100 रुपये लेता है.
बुनियादी इलाज के लिए भी रिश्वत
'आज तक' की टीम ने बलरामपुर अस्पताल के रेडियोलॉजी विभाग का भी दौरा किया, जहां एक मरीज ने आरोप लगाया कि एक महिला ने लाइन में किसी को आगे बढ़ाने के लिए 100 रुपये की रिश्वत ली. वीआईपी और प्रभावशाली लोगों, जैसे- वकील और पुलिस अधिकारियों को तुरंत ध्यान दिया गया, जबकि आम मरीज घंटों इंतजार करते रहे.
स्टिंग ऑपरेशन के दौरान, एक रिपोर्टर ने मरीज बनकर एक कंपाउंडर को रिश्वत की पेशकश की, जिसने पहले तो लंबी कतार का हवाला दिया, लेकिन बाद में नरम पड़ गया और कहा कि वह 400 से 500 रुपये में बात कर सकता है. फिर एक वार्ड बॉय ने सौदे की पुष्टि की और प्रिस्क्रिप्शन मांगा.
अल्ट्रासाउंड विंग में, एक कंपाउंडर ने पैसे के बदले में तेजी से स्कैन करने का वादा किया. वहीं, ऑर्थोपेडिक विभाग में, एक अन्य कर्मचारी ने कतार से बचने के लिए 500 रुपये की मांग की, और रिपोर्टर को चुप रहने की सलाह दी.
सिविल अस्पताल का हाल
श्याम प्रसाद मुखर्जी सिविल अस्पताल में भी इसी तरह की चीजें देखने को मिलीं. यहां निजी फ़ार्मेसियों से घिरा हुआ अस्पताल उनके साथ तालमेल बिठाकर काम करता हुआ दिखाई दिया. थायरॉइड का इलाज करवा रहे मुकेश मौर्य नामक एक मरीज़ ने कहा कि उन्हें अस्पताल में कभी भी दवा नहीं मिलती. एक अन्य मरीज़, रत्नेश ने कहा कि उनके पर्चे पर कुछ दवाओं के आगे 'टिक' लिखा था, जो उन्हें बाहर से दवा खरीदने का एक अलिखित निर्देश था.
कुछ मरीज़ों ने यह भी दावा किया कि डॉक्टरों ने सुझाव दिया कि प्राइवेट/बाहरी दवाएं "ज़्यादा प्रभावी" या "पचाने में आसान" होती हैं, जिससे बेस्ट क्वालिटी का भ्रम पैदा होता है और उन्हें अनावश्यक खर्चों की ओर धकेला जाता है.
सीएचसी इंदिरानगर का हाल
इंदिरानगर के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में भी हालात उतने ही खराब थे. मरीज आवारा कुत्तों के साथ टिन शेड के नीचे बैठे थे. दो महिलाओं ने बताया कि कैसे ज़्यादातर टेस्ट और दवाइयां बाहर से मंगवानी पड़ती हैं. एक ने बताया कि उसे एक टेस्ट के लिए लोहिया अस्पताल और दूसरे के लिए एक निजी लैब में भेजा गया. अस्पताल के कर्मचारियों ने माना कि ज़रूरी स्त्री रोग संबंधी दवाइयां अक्सर उपलब्ध नहीं होतीं.
हरकत में आई यूपी सरकार
इस पूरे मामले में 'आज तक' से बात करते हुए उत्तर प्रदेश के डिप्टी सीएम ब्रजेश पाठक ने कहा कि वे नियमित रूप से औचक निरीक्षण करते हैं और अनियमितता पाए जाने पर सख्त कार्रवाई करते हैं. उन्होंने पुष्टि की कि बलरामपुर में डॉक्टर पर्याप्त स्टॉक उपलब्ध होने के बावजूद अलग-अलग ब्रांड की दवाएं लिख रहे थे. उन्होंने कहा कि नोटिस जारी किए गए हैं और अनुशासनात्मक कार्रवाई चल रही है.
ब्रजेश पाठक ने डॉक्टरों द्वारा मरीजों को कुछ दवाएं बाहर से खरीदने के लिए संकेत देने के लिए "टिक मार्क" का उपयोग करने के मुद्दे को भी स्वीकार किया. उन्होंने कहा कि अस्पतालों में पर्याप्त स्टॉक है और उन्होंने कहा कि दवा बजट का 20 प्रतिशत आपातकालीन खरीद के लिए आरक्षित है, उन्होंने कहा कि इस प्रावधान का बिना देरी किए इस्तेमाल किया जाना चाहिए.