Premanand Maharaj: हमारे बड़े-बुजुर्ग कहकर गए हैं कि जीवन का अर्थ ही संघर्ष और मेहनत है. अगर इंसान संघर्ष करना बंद कर दे तो उसकी प्रगति रुक जाएगी. दरअसल, संघर्ष व्यक्ति को मजबूत और समझदार बनाता है. इसी जीवन रूपी संघर्ष से जुड़ा एक सवाल भक्त ने प्रेमानंद महाराज से पूछा. उस महिला में महाराज जी से कहा कि, 'अर्जुन जी युद्ध से पहले सन्यास लेना चाहते थे परंतु श्रीकृष्ण ने उन्हें युद्ध में लड़ने का संदेश दिया था. ऐसे ही हमारे जीवन में भी युद्ध करना, मेहनत करना और संघर्ष करते रहना क्यों आवश्यक होता है.'
कर्तव्यों के लिए है मनुष्य जीवन
प्रेमानंद महाराज ने इस प्रश्न का बहुत ही सुंदर उत्तर देते हुए कहा कि, 'मनुष्य को जीवन अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए मिला है. स्वधर्मे निधनं श्रेयः, परधर्मो भयावहः यानी अपने धर्म का पालन करते हुए मृत्यु भी श्रेष्ठ है, पर दूसरे के धर्म का अनुसरण करना भयावह होता है. अर्जुन उस समय अपने निज धर्म (क्षत्रिय धर्म) को छोड़कर संन्यास रूपी धर्म अपनाना चाहते थे. भगवान ने उन्हें समझाया कि जब तक तुम्हारा निज धर्म का कार्य पूरा नहीं होता, तब तक संन्यास उचित नहीं है. जब तक कर्तव्य बाकी है, तब तक कर्म करना ही श्रेष्ठ है.
लेकिन, भगवान ने अर्जुन को युद्ध करने के लिए कैसे कहा- 'सर्वदा सर्वकाले निर्युद्ध्य च, ' यानी मेरा स्मरण करते हुए युद्ध करो. इसी तरह आप डॉक्टर हैं, मास्टर हैं, वकील हैं, किसान हैं या व्यापारी हैं, जो भी कार्य आपको मिले वो भगवान का स्मरण करते हुए कीजिए. यही आपका धर्म है, यही पूजा है, और यही भगवत् प्राप्ति का मार्ग भी है.'
संत रविदास का दिया उदाहरण
आगे प्रेमानंद महाराज कहते हैं कि, 'इन्हीं कर्मों को जोड़ते हुए मैं आपको एक संत की महिमा के बारे में बताता हूं, जिनमें संत रविदास जी सर्वोत्तम उदाहरण हैं. वे गृहस्थ थे, उनकी पत्नी थी, परंतु उन्होंने अपने कर्म को ही पूजा माना था. उस समय एक पंडित जी रोज गंगा स्नान को जाते थे, तो रविदास जी ने उनसे कहा कि, 'आप तो रोज गंगा स्नान के लिए जाते हैं, तो मेरे लिए ये दो केले गंगा जी को अर्पित कर देना और कहना रविदास ने भेजे हैं.' पंडित जी ने गंगा जी में केले अर्पित किए तो गंगा जी के जल से हाथ निकला और वे केले ले लिए.
फिर, वही हाथ प्रकट होकर बोला कि 'पंडित जी, रविदास को हमारी ओर से ये स्वर्ण कंगन दे देना.' पंडित जी हैरान रह गए, पर जब लौटने लगे तो चाहे जिस गली से जाएं, बार-बार घूमकर रविदास जी के घर के सामने ही पहुंच जाते. आखिरकार उन्होंने रविदास जी को वह कंगन दे दिया. तब रविदास जी बोले, 'मन चंगा तो कठौती में गंगा' मतलब अगर मन शुद्ध है तो वही स्थान तीर्थ बन जाता है. उन्होंने अपने कर्म को ही पूजा बनाया, और उसी में सिद्धि प्राप्त की.'
कर्म ही है धर्म
अंत में प्रेमानंद महाराज कहते हैं कि, 'जैसे अर्जुन जी के लिए युद्ध धर्म था, वैसे ही हमारे लिए हमारा कर्म धर्म है. भगवान ने जो काम हमें दिया है, उसे धर्मपूर्वक, सत्यपूर्वक और भगवान के स्मरण के साथ करते रहना चाहिए. यही स्वधर्म है, यही पूजा है, और यही भगवत् प्राप्ति का मार्ग है. जब हम अपने कर्म में बेईमानी छोड़कर, ईमानदारी और भगवान के नाम के साथ कर्म करेंगे, तभी भगवान प्रसन्न होंगे. इसलिए, भगवान ने अर्जुन जी से कहा था कि 'संन्यास नहीं अर्जुन, इस समय युद्ध करो. युद्ध करते हुए मेरा स्मरण करो, यही तुम्हारा स्वधर्म है, यही तुम्हारा परम कर्तव्य है.'