भारतीय सनातनी परंपरा में मृत्यु को जीवन का ही एक पहलू माना गया है, इसलिए इसे वेदों और पुराणों में कहीं भी नकारात्मक नहीं माना गया है. यही वजह है कि अन्य परंपराओं में जहां डेथ एक डेविल है और सेटन (शैतान) उसका साथी, वहीं सनातन परंपरा में मृत्यु का देवता यम है, जो मृत आत्माओं को उनका उत्तम लोक देने वाला है.
उनका स्वरूप भयानक है, इसके बावजूद वह भय का नहीं धर्म का प्रतीक है. इसलिए यमराज को धर्मराज कहा गया है, क्योंकि वह धर्म के पालन में बहुत दृढ़ हैं और वेदों ने उनकी संकल्पना धर्म के संरक्षक के तौर पर की है. यही वजह है कि यम कभी धर्म के अंश के रूप में हरिश्चंद्र के रूप में दिखाई देते हैं तो महाभारत में वह साक्षात धर्म बनकर विदुर और युधिष्ठिर के रूप में जन्म लेते हैं.
ऋग्वेद में विवस्वान यम के नाम से जाने जाते हैं यमराज
ऋग्वेद में यम को विवस्वान यम कहा गया है. संभवतः इसी वजह से पुराणों में यम को सूर्य पुत्र कहा गया है. वेदों में विवस्वान सू्र्य का ही एक नाम है. ऋग्वेद के दशम मंडल का 14वां सूक्त यमसूक्त है. इसमें यम की स्तुति करते हुए कहा गया है कि, विवस्वान यम, तुम मृत आत्माओं को श्मशान की भूमि में से निकालकर उन्हें उत्तम लोक प्रदान करने वाले हो. इसलिए तुम आओ और यज्ञ की इस हवि को ग्रहण करो. तुम इस लोक में शांति रखो और प्रकृति के नियम को बनाए रखो.
परेयिवांसं प्रवतो महीरनु बहुभ्यः पन्थामनुपस्पशानम् ।
वैवस्वतं संगमनं जनानां यमं राजानं हविषा दुवस्य ॥1॥
यमो नो गातुं प्रथमो विवेद नैषा गव्यूतिरपभर्तवा उ ।
यत्रा नः पूर्वे पितरः परेयुरेना जज्ञानाः पथ्या अनु स्वाः ॥2॥
मातली कव्यैर्यमो अङ्गिरोभिर्बृहस्पतिर्ऋक्वभिर्वावृधानः ।
भावः उत्तम पुण्य कर्मों को करने वालों को मृत्यु के बाद ठीक जगह पर ले जाने वाले और उनके कर्मों के अनुसार उन्हें शुभ स्थान देने वाले विवस्वान के पुत्र यम को हवि अर्पण कर उन्हें यज्ञभाग दो. इनके पास सभी को जाना ही पड़ता है. यही एक मात्र हैं जिन्हें पाप-पु्ण्य का ज्ञान है और यह धर्म को जानने वाले हैं. यम के मार्ग को कोई नहीं बदल सकता, जिस मार्ग पर हमारे पूर्वज पहले जा चुके हैं, उसी मार्ग पर हम सब अपने कर्म के अनुसार जाएंगे.
पुराण कथाओं में यम के कई किरदार
यम को धर्म कहने का चलन भी इसीलिए हुआ, क्योंकि यम अपने कर्तव्य में कभी नहीं डिगते हैं. जीवन का समय चक्र पूरा होने पर यम बिना भेदभाव के सभी के प्राण खींच लेते हैं. यही वजह है कि पुराण कथाओं में शिवि, युधिष्ठिर, विदुर और हरिश्चंद्र जैसे राजाओं को धर्म का अवतार माना जाता है. यह धर्म कोई और नहीं यमराज का ही एक और नाम है.
सूर्यदेव के सबसे बड़े पुत्र
यम के जन्म को लेकर भागवत पुराण में कथा है कि वह सूर्य देव के पुत्र हैं. सूर्यदेव का विवाह विश्वकर्मा की पुत्री संध्या से हुआ था, लेकिन संध्या सूर्य का तेज सहन नहीं कर पाईं और उनसे दूर रहने लगीं. उन्होंने सूर्य की जुड़वां संतान यम और यमी के जन्म के बाद अपनी ही एक छाया को प्रकट किया और खुद पिता के घर रहने चली गईं. इस तरह सूर्य की चार संतानें हुईं. संध्या से यम और यमी, छाया से शनि और ताप्ती.
कठोपनिषद में नचिकेता के गुरु हैं यम
वेदों और उपनिषदों में यम को सत्य और धर्म का प्रतीक बताते हुए उसे ही सबसे ज्ञानी भी कहा गया है. जीवन के असल मूल्य को समझने और समझाने वाला यम ही है. इस बात पर कठोपनिषद की वो कहानी भी मुहर लगाती है, जिसमें बालक नचिकेता को यम ने ही जीवन के गूढ़ रहस्यों का ज्ञान दिया था.
कहानी कुछ ऐसी है कि नचिकेता के पिता वाजश्रवा ने एक बड़ा यज्ञ किया और अपनी सारी गायें दान करने का संकल्प लिया. वास्तव में ये गायें बीमार और बूढ़ी थीं. नचिकेता को यह अच्छा नहीं लगा. वह अपने पिता को दान से रोकने लगा और कहा कि दान तो अपनी प्रिय और उत्तम वस्तु का करते हैं. आपके लिए सबसे प्रिय तो मैं हूं, तो बताइए मुझे किसे दान करेंगे. नचिकेता के बार-बार इस तरह से सवाल करने पर वाजश्रवा गुस्सा गए और उन्होंने गुस्से में ही कह दिया कि जा मैं तुझे यम को दान करता हूं.
नचिकेता ने अपने पिता की बात रखने के लिए यमलोक की यात्रा की. वहां पहुंचकर उसने यमराज को प्रसन्न किया और उनसे जीवन के मूल तत्व का ज्ञान प्राप्त किया. इस कथा में यम के भयंकर स्वरूप का वर्णन तो हुआ है, लेकिन उन्हें शांत चित्त वाला और ज्ञान के साथ रहस्यवाद का ज्ञाता भी बताया गया है. कठोपनिषद में लिखी नचिकेता की ये कहानी जीवन की जिज्ञासाओं को लेकर मनुष्य में पाई जाने वाली उलझनों को सुलझाने की पहली कोशिश है.
यम का जिक्र सावित्री और सत्यवान की कथा में भी आता है, जहां सावित्री यम से अपने पति सत्यवान के प्राण खींच लाने में सफल होती है और यम उसे अखंड सौभाग्य के साथ राज्य और पुत्र का वरदान भी देते हैं.
यम के सहयोगी हैं चित्रगुप्त
यम जिस धर्म पालन के साथ अपना कार्य करते हैं, इसमें उनका सहयोगी चित्रगुप्त हैं. चित्रगुप्त किसी डेविल या शैतान जैसे नहीं हैं, बल्कि वह शांतचित्त, सौम्य और कई तरह की कला विद्या में प्रवीण विद्याधर हैं. उनमें यक्ष प्रधान गुण हैं. वह गणना करने में निपुण हैं और लेखा-जोखा रखने में सक्षम हैं. इसलिए धर्म स्वरूप यमराज के साथ धर्म चिह्न के रूप में चित्रगुप्त दर्शाए जाते हैं.
दिवाली का पांचवा दिन एक तरफ यमद्वितीया के रूप में यमराज की पूजा का प्रतीक है तो वहीं आज चित्रगुप्त पूजा भी मनाई जाती है, जिसका प्रभाव बंगाल-बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में मुख्य रूप से दिखाई देता है. राजस्थान के भी मुनीम और मुंशी समुदाय में चित्रगुप्त पूजा मनाई जाती है और वह खुद को चित्रगुप्त का ही वंशज मानते हैं.