बिहार चुनाव बीजेपी के लिए नये तरीके की चुनौतियां लेकर आ रहा है. बीजेपी नेतृत्व ने वैसे तो एहतियाती उपाय कर लिये हैं. और, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी पहले से ही जमीन पर मोर्चा संभाल लिया है. करीब करीब वैसे ही जैसे लोकसभा चुनाव 2024 के नतीजे आ जाने के बाद संघ को ग्राउंड पर एक्टिव देखा गया था. लोकसभा के बाद राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों को लेकर, जिसका रिजल्ट भी देखा जा चुका है.
संघ प्रमुख मोहन भागवत बिहार के दो दिन के दौरे पर थे, और इस साल ये उनका दूसरा दौरा था. मार्च, 2025 में भी वो पांच दिन के बिहार दौरे पर गये थे, और मुजफ्फरपुर में कई कार्यक्रमों में हिस्सा लिया था. संघ कार्यकर्ताओं को मोहन भागवत अब तक तमाम जरूरी टिप्स दे आये हैं. मान कर चलना चाहिये, जमीनी स्तर पर संघ के कार्यकर्ता मिशन में जुट भी गये होंगे.
बिहार के लिए जहां तक चुनावी तैयारियों की बात है, केंद्र की बीजेपी सरकार का जाति जनगणना को लेकर फैसला और बिहार की रैलियों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण में पहलगाम से लेकर ऑपरेशन सिंदूर तक का जिक्र, अभी तक के हिसाब से दुरुस्त ही है. आगे के कैंपेन के लिए मजबूत नींव तो तैयार किया ही जा चुका है.
ऑपरेशन सिंदूर के राजनीतिक इस्तेमाल पर बीजेपी के राजनीतिक विरोधियों की आपत्ति अपनी जगह है, लेकिन संघ के सामने बिल्कुल अलग तरीके की चुनौती है. अभी से ये कहना मुश्किल है कि बीजेपी को अभी तक के इंतजामों से फायदा ही होगा या नुकसान भी. नुकसान होगा तो कितना होगा, और फायदा होगा तो कितना. अगर नुकसान ज्यादा हुआ तो फायदे का कोई मतलब नहीं रह जाएगा.
बिहार में कास्ट पॉलिटिक्स चैलेंज
संघ के लिए जातीय राजनीति हमेशा ही चिंता का कारण रहा है, क्योंकि ऐसा होने पर हिंदुत्व की एकता खतरे में पड़ जाती है. लोकसभा चुनाव में बीजेपी को जो नुकसान हुआ था, उसकी वजह जातीय राजनीति नहीं तो क्या थी? अयोध्या आंदोलन के पूर्णाहूति काल में कहां बीजेपी 'अबकी बार 400' के रास्ते आगे बढ़ रही थी, और कहां बहुमत से भी पीछे रह गई, और अयोध्या भी हार गई.
अब जबकि केंद्र की बीजेपी सरकार राष्ट्रीय जनगणना के साथ जाति जनगणना कराने का फैसला ले चुकी है, संघ के सामने पहली चुनौती तो बीजेपी को चुनावी वैतरणी पार कराने की ही है. हाल ही में एक कार्यक्रम में संवाद के दौरान मोहन भागवत ने कहा, आज आवश्यकता है कि समाज जातिगत भेदभाव से ऊपर उठे और एक समरस तथा समावेशी राष्ट्र की ओर अग्रसर हो - संघ प्रमुख की बातों में जातीय राजनीति की चिंता साफ तौर पर लग रही है.
जाति जनगणना का फैसला भी केंद्र सरकार ने ऐसे वक्त लिया, जब पहलगाम आतंकी हमले के बाद लोग पाकिस्तान समर्थित आतंकवादियों के खिलाफ एक्शन का इंतजार कर रहे थे. उन दिनों संघ प्रमुख मोहन भागवत के प्रधानमंत्री आवास जाकर नरेंद्र मोदी से मिलने की खबर आई, तो लगा था कि पाकिस्तान के खिलाफ बड़े एक्शन पर विचार हुआ होगा. लेकिन, जाति जनगणना कराये जाने के कैबिनेट का फैसला सामने आने के बाद मुलाकात का मकसद भी साफ हो गया. साफ है, संघ और बीजेपी ने सोच समझकर और मिलजुल कर इस मुद्दे पर सहमति बनाई है, और फैसला लिया है.
लेकिन, अब ये भी देखना होगा कि बीजेपी को अगर ऑपरेशन सिंदूर का फायदा मिलता है, तो जाति जनगणना के माहौल से होने वाले नुकसान की भूमिका क्या होती है - और संघ को उसी के बीच बीजेपी के पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश करनी होगी.
बीजेपी की मदद के लिए जमीन पर उतरे संघ कार्यकर्ता
मार्च के पहले हफ्ते में जब मोहन भागवत मुजफ्फरपुर गये थे, तब ही संघ कार्यकर्ताओं खास हिदायतें दे दी गई थीं. एक एक बात बारीकी से समझा दी गई थी. संघ प्रमुख भागवत की समझाइश थी, स्वयंसेवक हर बस्ती में टोली का निर्माण करें. टोली का काम होगा कि वो हर परिवार से जुड़े. मंडल स्तर पर शाखा लगनी चाहिये.
लगे हाथ स्वयंसेवकों को मोहन भागवत की तरफ से ये टास्क भी दिया गया था कि वे अपरिचितों से हर हाल में जरूर मिलें. अपरिचितों को परिचित बनायें. समझाया था, क्योंकि पहले अपरिचित आपसे परिचित होता है, उसके बाद वो मित्र बन जाता है... और मित्र को शाखा से जोड़ना चाहिये. शाखा का अनुशासन ऐसा हो कि बगल से गुजरने वाला भी ठहर जाये. ये बातें कार्यकर्ताओं के साथ संवाद के दौरान निकल कर आई थीं.
माना गया था कि बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा के संघ की जरूरत को लेकर दिये गये बयान के बाद संघ ने अपनी गतिविधियां समेट ली थीं, और नतीजा 4 जून, 2024 को सामने आ गया था. लेकिन, उसके बाद संघ के एक्टिव होते ही बीजेपी ने हरियाणा और महाराष्ट्र में जोरदार वापसी तो की ही, दिल्ली जो बार बार हाथ से फिसल जा रही थी, वहां की सत्ता पर भी काबिज हो गई - अब कोशिश यही है कि सिलसिला बिहार में भी कायम रहे.
मोहन भागवत के ताजा बिहार दौरे में एक दिन वो भी था जिस दिन लालू यादव अपना जन्मदिन मना रहे थे. 2015 के बिहार चुनाव में लालू यादव ने मोहन भागवत के ही एक बयान को बड़ा मुद्दा बना दिया था. संघ के मुखपत्र पाञ्जजन्य के एक इंटरव्यू में मोहन भागवत ने कहा था, देश हित में एक कमेटी बनाई जानी चाहिए, जो आरक्षण पर समीक्षा कर... ये बताये कि किस क्षेत्र में और कितने समय के लिए आरक्षण दिये जाने की जरूरत है. आरक्षण की समीक्षा को लेकर संघ प्रमुख के बयान को लालू यादव ने एक चुनावी रैली में बोल दिया,'ये बैकवर्ड और फॉरवर्ड की लड़ाई है' - और चुनाव में 'खेला' हो गया.
तब आरएसएस की तरफ भागवत के बयान पर सफाई भी दी गई थी, लेकिन वो बेअसर रही. यही वजह रही होगी कि 2020 के चुनाव में भी संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण पर फिर से अपनी राय दी, जो स्पष्ट था, और उसे कुछ अलग समझाये जाने की गुंजाइश भी कम थी. मोहन भागवत ने कहा था, देश में आरक्षण के लिए कानून तो बने हैं, लेकिन उसका लाभ सभी को नहीं मिल पा रहा है... जिनका जहां प्रभुत्व है वे लाभ ले रहे हैं... समाज में जब तक जरूरत है तब तक आरक्षण लागू रहना चाहिये... मेरा पूरा समर्थन है.'
और, अब जबकि 2025 के विधानसभा चुनाव होने वाले हैं, जाति जनगणना पर बीजेपी का पक्ष भी सामने आ चुका है. बेशक बीजेपी ने ये दांव काफी जोखिम लेकर खेला है. क्योंकि, जरूरी नहीं है कि जाति जनगणना के पक्ष में बनाये जा रहे माहौल से बीजेपी विरोधी दलों को मिलने वाला फायदा कम किया जा सकेगा या बीजेपी खुद भी इसका फायदा उठा लेगी.
ये जरूर है कि जाति जनगणना का नाम लेकर बीजेपी को पिछड़े वर्ग का विरोधी साबित कर पाना विपक्षी दलों के लिए आसान नहीं होगा - और सिर्फ यही बात बीजेपी के पक्ष में जाती है, जिसे समझाने की कोशिश संघ कार्यकर्ताओं की तरफ से होनी है.