प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी को पटना की 'बिहार बदलाव रैली' से काफी उम्मीदें होंगी. ये उम्मीद जन सुराज के बिहार अध्यक्ष मनोज भारती की बातों से जाहिर भी होती है, 'बिहार में बदलाव अब एक जरूरत नहीं, बल्कि जनता की मांग बन चुकी है.'
बदलाव तो तब भी हो सकता है, जब एनडीए को शिकस्त देकर महागठबंधन सत्ता हासिल कर ले, लेकिन प्रशांत किशोर की पार्टी का बदलाव से आशय जेडीयू-बीजेपी और आरजेडी में से किसी को चुनने के बजाय किसी तीसरे को मौका देने से है - और ये तीसरा प्रशांत किशोर और उनके साथी जन सुराज पार्टी को बता रहे हैं.
नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव को लगातार निशाना बनाना तो प्रशांत किशोर की रुटीन की राजनीति का हिस्सा बना हुआ है, लेकिन बीपीएससी परीक्षाओं से जुड़े छात्रों के आंदोलन में वो प्रत्यक्ष तौर पर कूद पड़े थे. कोर्ट कचहरी से लेकर जेल तक का चक्कर भी लग गया, और देखा जाये तो कुल मिलाकर पूरा मामला प्रशांत किशोर के लिए फायदेमंद ही रहा.
बेरोजगारी जैसे बुनियादी मुद्दों पर सवाल उठाने के साथ ही प्रशांत किशोर ज्वलंत मुद्दों पर भी बयान देते रहे हैं, लेकिन बहाना नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव की राजनीति को ही बनाते हैं. वक्फ बिल के मुद्दे पर भी ऐसा ही देखने को मिला था.
2024 के आखिर में हुए बिहार उपचुनाव में जन सुराज पार्टी को उतार कर प्रशांत किशोर मजबूत दस्तक भी दे चुके हैं, लेकिन अब तक वो जन सुराज पार्टी को बिहार में तीसरे विकल्प के तौर पर पेश नहीं कर पाये हैं.
ऐसा भी नहीं कि प्रशांत किशोर बिहार की राजनीति की जड़ नहीं पकड़ पा रहे हों. मुश्किल ये है कि बिहार की घोर जातीय राजनीति में वो पूरी तरह मिसफिट हो जाते हैं, जिसमें उनका ब्राह्मण होना सबसे बड़ा रोड़ा है. अगर बिहार में भी दिल्ली जैसी डेमोग्राफी होती तो प्रशांत किशोर भी अरविंद केजरीवाल की तरह मौजूदगी दर्ज करा रहे होते, लेकिन जब जातिगतण जनगणना की गला-काट प्रतियोगिता चल रही हो, तो वो चाह कर भी क्या सकते हैं.
जन सुराज पार्टी वालों के लिए राहत की बात ये है कि प्रशांत किशोर बिहार में अपनी राजनीति को लंबी रेस का घोड़ा बता रहे हैं. कहते हैं, हम सिर्फ 2025 नहीं, बल्कि 2030 के चुनावों की भी तैयारी कर रहे हैं.' एक मतलब तो ये भी हुआ कि हकीकत से वो भी बेखबर नहीं हैं.
सवाल है कि जन सुराज अभियान शुरू करने से लेकर प्रशांत किशोर अब जिस मुकाम पर खड़े हैं, उसमें एनडीए और महागठबंधन के दबदबे के बीच जन सुराज पार्टी को कहां तक खड़ा कर पाये हैं - और हां, 2025 के चुनाव में वो कुछ बड़ा भी करने जा रहे हैं या वोटकटवा बन कर ही रह जाएंगे?
क्या जन सुराज पार्टी 'वोटकटवा' बनने जा रही है
जन सुराज के जरिये राजनीति के मैदान में उतरने से पहले प्रशांत किशोर कई सफल पॉलिटिकल कैंपेन चला चुके हैं, और रियल फीडबैक हमेशा उनके पास होता है. और यही वजह है कि वोटकटवा जैसी बातों पर भी वो जन सुराज पार्टी का जोरदार बचाव करते हैं. और, ये भी समझाने की कोशिश करते हैं कि बिहार की राजनीति छोड़कर वो जाने वाले नहीं हैं.
प्रशांत किशोर साफ तौर पर कहते हैं कि की पार्टी सिर्फ वोट काटने के लिए मैदान में नहीं है. उनका कहना है, जन सुराज पार्टी को कम करके आंका जा रहा है, लेकिन हम एक बड़ा फैक्टर बनने जा रहे हैं… हम महज 2025 नहीं, बल्कि 2030 के चुनावों की भी तैयारी कर रहे हैं.'
पिछले हुए उपचुनावों में जन सुराज पार्टी ने अपनी सियासी पारी शुरू की थी, और 10 फीसदी वोट हासिल करना कोई मामूली बात भी नहीं है.
ये बात अलग है कि जन सुराज पार्टी के हिस्से में कुछ भी नहीं आ सका, क्योंकि सभी चार सीटें एनडीए के हिस्से में चली गईं, जबकि 2020 के विधानसभा चुनाव में चार में से तीन सीटों पर महागठबंधन ने जीत हासिल हुई थी.
प्रशांत किशोर का दावा अपनी जगह है, लेकिन इमामगंज और रामगढ़ उपचुनावों के नतीजे तो यही बताते हैं कि जन सुराज पार्टी चुनाव भले न जीत पाये लेकिन हार जीत में भूमिका तो निभाने ही लगी है - और ऐसे दलों को वोटकटवा नहीं तो क्या कहते हैं.
रामगढ़ विधानसभा सीट पर जीत का अंतर 1,362 वोटों का रहा. जन सुराज को 6,513 वोट मिले थे. बता दें कि जीतने वाली बीजेपी को 62,257 वोट मिले थे.
इमामगंज में जन सुराज पार्टी का प्रदर्शन अपेक्षाकृत बढ़िया था. इमामगंज में जीत हार का अंतर तो 5,945 वोट ही रहे, लेकिन जन सुराज पार्टी के उम्मीदवार को 37,103 वोट मिले थे. जीतने वाले जीतनराम मांझी की पार्टी के उम्मीदवार को पचास हजार से ज्यादा वोट मिले थे.
2025 में बिहार की सभी 243 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुके प्रशांत किशोर का दावा है कि जन सुराज पार्टी निर्णायक भूमिका में आने वाली है.
प्रशांत किशोर बिहार में जन सुराज पार्टी के लिए बड़ा मौका देखते हैं, अगर एनडीए नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री चेहरा घोषित करता है, और वो सार्वजनिक मंचों पर अपना प्रभाव नहीं जता पाते तो बिहार के लोग किसी और चेहरे को मौका देने का मन बना सकती है.
प्रशांत किशोर को नजरअंदाज करना कितना मुश्किल
करीब महीना भर पहले हुए एक सर्वे में बिहार के अगले मुख्यमंत्री के रूप प्रशांत किशोर के नाम पर भी लोगों की राय ली गई थी - ध्यान रहे, प्रशांत किशोर ने अभी तक खुद को मुख्यमंत्री पद का दावेदार नहीं बताया है, और न ही जन सुराज पार्टी की तरफ से प्रोजेक्ट किया गया है.
सी वोटर के सर्वे में शामिल लोगों से जब मुख्यमंत्री के रूप में पहली पसंद पूछी गई तो 15 फीसदी लोगों ने जन सुराज पार्टी के नेता प्रशांत किशोर के पक्ष में अपनी राय दी - और ये भी कोई कम बात नहीं है.
ध्यान देने वाली बात ये है कि नीतीश कुमार को पंसदीदा मुख्यमंत्री बताने वाले लोग प्रशांत किशोर से थोड़े ही ज्यादा रहे - 18 फीसदी. सर्वे में बिहार के 41 फीसदी लोग तेजस्वी यादव को पसंदीदा मुख्यमंत्री बता रहे हैं. सर्वे में शामिल 8 फीसदी लोगों ने सम्राट चौधरी को और 4 फीसदी चिराग पासवान को पसंदीदा मुख्यमंत्री बताया था.
सर्वे के नतीजे अपनी जगह हैं, और प्रशांत किशोर के दावे भी, लेकिन बगैर किसी गठबंधन के अगर जन सुराज पार्टी बिहार चुनाव के मैदान में उतरती है, तो वोटकटवा से ज्यादा भूमिका नहीं लगती. अभी तो ऐसा ही लगता है, चुनाव तक तो कुछ भी हो सकता है.