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विदेश दौरे से लौटे राष्ट्रवादी सांसदों को कोई राजनीतिक फायदा भी होगा क्या?

ऑपरेशन सिंदूर पर सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल शशि थरूर और असदुद्दीन ओवैसी से लेकर रविशंकर प्रसाद जैसे नेताओं के लिए नई राजनीतिक छवि गढ़ने का बड़ा मौका था. आगे क्या बदले में कोई राजनीतिक फायदा भी मिल सकता है?

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शशि थरूर और नरेंद्र मोदी को फिर से ऐसे मिलते देखने के बाद, ये देखना है कि कांग्रेस नेतृत्व का क्या रुख होता है?
शशि थरूर और नरेंद्र मोदी को फिर से ऐसे मिलते देखने के बाद, ये देखना है कि कांग्रेस नेतृत्व का क्या रुख होता है?

देश के सांसदों की टीम पूरी दुनिया को पाकिस्तान की हकीकत बता कर स्वदेश लौट चुकी है. लौटने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की भी हो चुकी है. कुछ और भी रस्में होंगी, वे भी एक एक करके पूरी हो ही जाएंगी.

पहलगाम हमले के बाद ऑपरेशन सिंदूर और फिर सीजफायर, पूरा घटनाक्रम जितना सधा हुआ और सटीक था, उतना ही ध्यान खींचने वाला भी रहा. फिर ऑपरेशन सिंदूर को लेकर विदेशी जमीन पर भारत का पक्ष रखने की जिम्मेदारी कुछ सांसदों को दी गई - बेशक ये मिशन कूटनीतिक था, लेकिन राजनीति से भी भरपूर था. 

विदेश दौरे के लिए कुल 7 प्रतिनिधिमंडल बनाये गये थे, और अलग अलग दलों और अलग राजनीतिक तेवर वाले होने के बावजूद एक मकसद के साथ एक स्वर में भारत के पक्ष को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर सबके सामने रखा. 

जो कुछ भी सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों ने विदेशों में कहा, पूरे देश ने सुना. खूब वाहवाही लूटी. तारीफें बटोरी. आगे और भी ऐसे इवेंट होंगे तो महफिल वही लूटेंगे, मानकर चलना चाहिये - लेकिन उसके बाद? फिर से पार्टी पॉलिटिक्स शुरू हो जाएगी. 

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असदुद्दीन ओवैसी तो ऑपरेशन सिंदूर शुरू होने के वक्त से ही छाये हुए थे, विदेशी धरती पर भी AIMIM नेता के बयान सुर्खियां बटोर रहे थे. प्रियंका चतुर्वेदी का भी अलग ही रंग देखने को मिला है. लाइव टीवी बहसों में बीजेपी पर बरसने वाली प्रियंका चतुर्वेदी जबसे सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा बनी हैं, उनके हर बयान में मोदी मोदी ही सुनाई दे रहा है.

शशि थरूर तो सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल में शामिल किये जाने के समय से ही साथी नेताओं के निशाने पर रहे, राहुल गांधी के ‘नरेंदर-सरेंडर’ वाले बयान पर उनका रिएक्शन तो पहले से लगी आग में घी का ही काम किया होगा. 

अब सवाल ये उठता है कि इन नेताओं के लिए विदेश दौरे का हासिल क्या है? 

शशि थरूर का भविष्य क्या है?

शशि थरूर जैसे नेता के लिए ये मिशन एक बड़ा मौका था, भारत के ग्लोबल फेस के तौर पर खुद को फिर से पेश करने का. और शशि थरूर ने अपनी वाक्पटुता, अनुभव और संवाद कौशल से जगह जगह अपनी छाप भी छोड़ी है. 

एक खास मौका ये भी आया जब वो अपने पत्रकार बेटे के सवाल का देश की सरकार के प्रतिनिधि के रूप में जवाब दे रहे थे, और अपनी पार्टी के नेता के बयान पर प्रतिक्रिया भी. 

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मुश्किल ये है कि शशि थरूर ने जो लाइन ली है, कांग्रेस नेतृत्व उससे कतई इत्तेफाक नहीं रखता. जब राहुल गांधी को ही शशि थरूर का स्टैंड ठीक नहीं लगता तो बाकी कांग्रेस नेताओं की कौन कहे. 

पहलगाम आतंकी हमले में सरकार ने भी अपना चूक मान लिया था, लेकिन शशि थरूर को खुफिया चूक कोई खास बात नहीं लगी. बोले ऐसा होता रहता है. इजरायल पर हमास के अटैक का उदाहरण देते हुए सरकार को संदेह का लाभ देने की कोशिश की. ट्रंप के दबाव में सीजफायर को साफ साफ नकार दिया - भारत में भी और विदेश दौरे में भी. अमेरिका जाकर भी. 

कांग्रेस में शशि थरूर के बहुत सारे दुश्मन हैं जिनके निशाने पर वो रहते ही हैं. कहने को तो शशि थरूर ने यहां तक कह दिया है कि कांग्रेस ये न समझे कि उनके पास कोई विकल्प नहीं है, करने के लिए उनके पास बहुत सारे काम हैं. ये तो उनके शब्द हैं, लेकिन संदेश ये भी है कि वो बीजेपी में भी जा सकते हैं, या कहीं और भी. 

पहले से ही शशि थरूर के बीजेपी से नजदीकियों की चर्चा होती रही है, क्या अब वो वक्त आ गया है?

असदुद्दीन ओवैसी ने अपनी नई छवि गढ़ ली है

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असदुद्दीन ओवैसी विपक्ष के उन नेताओं में से हैं, जो सरकार के हर कदम पर सवाल तो उठाते हैं, लेकिन विपक्ष के बाकी नेताओं को दिखावा लगता है. 

ओवैसी तो पहलगाम हमले के बाद ही एक्टिव हो गये थे. ऑपरेशन सिंदूर के बाद हुई सर्वदलीय बैठक के बाद से तो उनका अलग ही रूप देखा गया. उससे पहले मुस्लिम नेता के रूप में मशहूर ओवैसी अचानक छा गये. राष्ट्रवादी नेता के रूप में. और विदेश दौरे में भी ओवैसी ने अपनी जोरदार मौजूदगी दर्ज कराई है. 

विपक्षी खेमे में ओवैसी भी निर्गुट आंदोलन वाले नेता रहे हैं, लेकिन दूसरे विपक्षी नेता ओवैसी को बीजेपी का मददगार मानते हैं. ओवैसी की ये दलील सही हो सकती है कि वो तो अपनी लाइन की राजनीति करते हैं, लेकिन तस्वीर के दूसरे पहलू में तो यही नजर आता है कि उनकी राजनीति से फायदा तो बीजेपी को ही मिलता है. 

आगे भी ओवैसी अपनी नई छवि बरकरार रख पाएंगे या फिर से अपनी राजनीतिक लकीर के फकीर बन जाएंगे?

प्रियंका चतुर्वेदी के लिए मौका तो है, लेकिन फायदा भी मिलेगा क्या?

प्रियंका चतुर्वेदी पहले कांग्रेस की नेता और प्रवक्ता हुआ करती थीं. एक ऐसा दौर आया कि कांग्रेस को छोड़ने का फैसला किया. तब खबरें आई थीं कि वो बीजेपी में जाना चाहती थीं, लेकिन स्मृति ईरानी के खिलाफ उनके बयान नो एंट्री के बोर्ड बन गये. तब स्मृति ईरानी बीजेपी के ताकतवर नेताओं में शुमार थीं, लेकिन अमेठी की हार के बाद से वो हाशिये पर पहुंच गई हैं. 

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अगर तब स्मृति ईरानी बाधा बनी थीं, तो क्या अब प्रियंका चतुर्वेदी के लिए बीजेपी में कोई गुंजाइश बन सकती है. क्योंकि बीजेपी में स्मृति ईरानी के अच्छे दिन तो लगता है जैसे जा चुके हों. 

शिवसेना के जिस धड़े में प्रियंका चतुर्वेदी हैं, राजनीति के लिए टाइमपास जैसा ही है. उद्धव ठाकरे ने प्रियंका चतुर्वेदी को तब तो राज्यसभा भेज दिया था, लेकिन अब आगे कुछ और तो लगता नहीं कि संभव है. ऐसे में प्रियंका चतुर्वेदी फिर से बीजेपी में जाने का मौका सामने आया है. 

सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल में जिस तरह से प्रियंका चतुर्वेदी को मोदी-मोदी करते देखा गया, संकेत भी है कि उनके मन में क्या चल रहा है - लेकिन, सवाल यही है कि क्या प्रियंका चतुर्वेदी की मन की मुराद पूरी हो पाएगी?

कनिमोझी के लिए भी कोई स्कोप है क्या

डीएमके की कनिमोझी दिल्ली की राजनीति में लंबे समय से हैं, लेकिन उनकी छवि क्षेत्रीय नेता की ही रही है. सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल ने कनिमोझी की छवि को राष्ट्रीय स्तर पर मजबूती दी है.

कनिमोझी की ये भूमिका डीएमके के लिए तो महत्वपूर्ण हो सकती है, लेकिन खुद उनके हिस्से में क्या आएगा, ये भी अहम सवाल है.

कनिमोझी तमिलनाडु में सत्ताधारी डीएमके की नेता हैं, लेकिन सत्ता की बागडोर उनके भाई एमके स्टालिन के हाथ में है. अगर डीएमके में स्टालिन के बाद कोई आगे बढ़ रहा है तो वो उनके बेटे उदयनिधि स्टालिन ही हैं, कनिमोझी नहीं. 

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कनिमोझी के मन में भी कुछ न कुछ मलाल तो होगा ही. वैसा ही जैसा प्रियंका गांधी वाड्रा या मीसा भारती के मामले में माना जाता है. अब सुप्रिया सुले जैसी स्थिति किसी और की तो हो नहीं सकती. 

तमिलनाडु में भी अगले साल चुनाव होने वाले हैं. बीजेपी को भी तमिलनाडु में अपनी जगह बनानी है. जैसे पश्चिम बंगाल में बीजेपी ने मुकुल रॉय और शुभेंदु अधिकारी को आजमाने का फैसला किया, तमिलनाडु में भी ऐसे प्रयोग हो सकते हैं क्या? 

लेकिन, ये संभव तो तभी है, जब कनिमोझी के मन में भी खीझ हो. और मौके की भी तलाश हो.

रविशंकर प्रसाद के दिन लौटेंगे क्या?

अव्वल तो रविशंकर प्रसाद बीजेपी के बचाव में मोर्चा संभालने के लिए कहीं भी भेज दिये जाते हैं, लेकिन जब से केंद्र में मंत्री पद से इस्तीफा ले लिया गया, बस टाइमपाल ही चल रहा है - क्या अब कुछ मिल सकता है क्या?

रविशंकर प्रसाद ने ताजा जिम्मेदारी भी उसी शिद्दत से निभाई है, जिस तरह से चारा घोटाले में लालू यादव के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ी थी. या जब भी राहुल गांधी या कांग्रेस के खिलाफ मैदान में उतरना पड़ता है, अपना जौहर दिखाते हैं. 

क्या रविशंकर प्रसाद को भी राजनीतिक लाभ अलग से मिलेगा? बिहार चुनाव भी ज्यादा दूर नहीं है.
 

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