ईरान की राजधानी तेहरान से लाखों की संख्या में लोग घर-बार छोड़कर भाग रहे हैं. जिसे जहां भी जगह मिल रही है वह वहां भाग जाना चाहता है पर तेहरान में नहीं रहना चाहता है. इजरायल के मिसाइल और द्रोण हर दिन कहर मचा रहे हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भी ईरान के लोगों को तेहरान छोड़ने की चेतावनी दी है. जिसके चलते समझा जा रहा है कि ईरान पर बहुत बड़ी कार्रवाई होने जा रही है. ईरान के दर्जनों बड़े अधिकारी, नेता और वैज्ञानिक मारे जा चुके हैं. पर दुनिया में ईरान को लेकर किसी को भी हमदर्दी नहीं है. इस्लामी देशों से जैसे समर्थन की उम्मीद थी वह नहीं दिखाई दे रही है. रूस और चीन भी ईरान के पक्ष में खड़े होने से कन्नी काट रहे हैं. इजरायल और ईरान के बीच 2025 में शुरू हुआ सैन्य टकराव जिसे ऑपरेशन राइजिंग लायन और ईरान के जवाबी ऑपरेशन ट्रू प्रॉमिस के रूप में जाना जाता है ने वैश्विक स्तर पर व्यापक चर्चा छेड़ दी है.
दर्जनों आतंकी गुटों का पनाहगाह ईरान
मध्य एशिया में सऊदी अरब , यूएई, कुवैत जैसे देश भी हैं. दुनिया में और दर्जनों मुस्लिम देश हैं जो शांतिपूर्ण तरक्की को ही अपना लक्ष्य मानते हैं. पर शायद आज का ईरान ऐसा नहीं है.आज अगर वेस्ट चाहता है कि ईरान के पास न्यूक्लियर बम न आए तो इसके पीछे उनके पर्याप्त रिजन हैं. ईरान पर लंबे समय से आतंकी संगठनों को समर्थन देने और फंडिंग करने का आरोप लगता रहा है, जिसने वैश्विक और क्षेत्रीय सुरक्षा को प्रभावित किया है. ईरान की इस्लामिक रिवॉल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स (IRGC) इन गतिविधियों का मुख्य केंद्र मानी जाती है. ईरान के प्रमुख आतंकवादी संगठनों में हिजबुल्लाह (लेबनान), हमास और फिलिस्तीनी इस्लामिक जिहाद (गाजा), हूती विद्रोही (यमन), और इराकी शिया मिलिशिया शामिल हैं. इन समूहों को ईरान से हथियार, प्रशिक्षण, और वित्तीय सहायता मिलती है, जिसका उपयोग क्षेत्रीय अस्थिरता फैलाने में होता रहा है.
हिजबुल्लाह का 1983 के बेरूत बमबारी (299 मृत) और 1992 के इजरायल दूतावास हमले (अर्जेंटीना, 29 मृत) का हाथ था. ईरान इसे मिसाइलें और ड्रोन देता रहा है, जिसका उपयोग इजरायल के खिलाफ होता है. हमास और फिलिस्तीनी इस्लामिक जिहाद गाजा में आतंकियों को रॉकेट और ड्रोन तकनीक प्रदान करता है. 7 अक्टूबर, 2023 के हमले (1,200+ मृत) में हमास को ईरान का समर्थन माना गया. इस्लामिक जिहाद भी इजरायल पर रॉकेट हमले करता है. हूती विद्रोहियों ने भी कम आतंक नहीं मचाया है.
यमन में हूतियों को ईरान से बैलिस्टिक मिसाइलें और ड्रोन मिलते हैं. 2019 में सऊदी अरब की अरामको तेल सुविधाओं पर हमला और 2023-24 में लाल सागर में जहाजों पर हमले इसके उदाहरण हैं.
इराकी मिलिशिया ने कताइब हिजबुल्लाह जैसे समूहों ने 2020 में बगदाद में अमेरिकी दूतावास पर हमले किए. ईरान इन समूहों का उपयोग क्षेत्रीय प्रभाव बढ़ाने और इजरायल, अमेरिका, सऊदी अरब जैसे विरोधियों पर दबाव बनाने के लिए करता है. अमेरिका ने IRGC को आतंकी संगठन घोषित किया है और प्रतिबंध लगाए हैं. 2025 में इजरायल के हमलों ने ईरान के परमाणु और सैन्य ढांचे को निशाना बनाया, जिसे इन गतिविधियों की सजा माना गया.
रूस और चीन की रणनीतिक सीमाएं
रूस 2022 से यूक्रेन युद्ध में उलझा हुआ है, जिसने उसकी सैन्य और आर्थिक संसाधनों को कमजोर किया है. रूस के लिए मध्य पूर्व में एक नया युद्ध शुरू करना रणनीतिक रूप से जोखिम भरा है. रूस ने ईरान को S-300 वायु रक्षा प्रणाली और शाहेद-136 ड्रोन जैसे हथियार प्रदान किए हैं, लेकिन 2025 के युद्ध में उसने केवल कूटनीतिक बयान दिए, जैसे कि इजरायल की निंदा और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में आपात बैठक की मांग. रूस ने प्रत्यक्ष सैन्य हस्तक्षेप से इनकार किया, क्योंकि यह अमेरिका और नाटो के साथ टकराव को बढ़ा सकता है.
रूस मध्य पूर्व में अमेरिकी प्रभाव को कम करना चाहता है, लेकिन वह अपनी ऊर्जा केंद्रित यूक्रेन और यूरोप पर रखना चाहता है. रूस ईरान से पर्याप्त दूरी बनाकर रह रहा है, जो इस रणनीति को दर्शाता है.
चीन ने इजरायल की कार्रवाइयों की निंदा की और ईरान को संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का समर्थन देने की बात कही. हालांकि, उसने सैन्य सहायता देने से इनकार किया. चीन ने ऐतिहासिक रूप से ईरान को साइबर तकनीक और डुअल-यूज़ उपकरण प्रदान किए हैं, लेकिन प्रत्यक्ष सैन्य हस्तक्षेप उसकी तटस्थ छवि को नुकसान पहुंचा सकता है.
रूस और चीन ने UNSC में ईरान के पक्ष में प्रस्ताव पेश किए, लेकिन ये प्रस्ताव सैन्य समर्थन के बजाय कूटनीतिक थे. यह दर्शाता है कि दोनों देश ईरान को पूरी तरह अकेला नहीं छोड़ रहे, लेकिन वे सैन्य जोखिम लेने से बच रहे हैं.
इस्लामिक देशों का विभाजित और तटस्थ रुख
सऊदी अरब और यूएई सुन्नी-प्रभुत्व वाले देश ईरान (शिया-प्रभुत्व) के साथ ऐतिहासिक प्रतिद्वंद्विता रखते हैं. सऊदी अरब ने इजरायल के हमलों की निंदा की, लेकिन कोई सैन्य समर्थन नहीं दिया. अब्राहम समझौते (2020) के बाद सऊदी अरब और यूएई के इजरायल के साथ संबंध बेहतर हुए हैं, जिसने ईरान के खिलाफ उनके रुख को मजबूत किया.
यमन में ईरान समर्थित हूतियों के खिलाफ सऊदी अरब की कार्रवाइयाँ जारी हैं, जो ईरान के साथ उनके तनाव को दर्शाती हैं. जॉर्डन, ओमान, इराक जैसे देशों ने इजरायल को अपने हवाई क्षेत्र का उपयोग करने से नहीं रोका, जिससे इजरायल को ईरान पर हमले में आसानी हुई. विशेषज्ञों का मानना है कि ये देश अपने हितों को प्राथमिकता दे रहे हैं और युद्ध में उलझना नहीं चाहते.
ईरान ने अपने नागरिकों और सैन्य अधिकारियों की मौत के आंकड़े (100+ नागरिक, 9 परमाणु वैज्ञानिक) जारी कर मुस्लिम देशों को एकजुट करने की कोशिश की, लेकिन अरब देश तटस्थ रहे. पाकिस्तान ने भी तटस्थता बनाए रखी, क्योंकि वह चीन के साथ अपने संबंधों को प्राथमिकता देता है और अमेरिका से आर्थिक सहायता पर निर्भर है.तुर्की ने फिलिस्तीन और हमास के समर्थन में बयान दिए, लेकिन ईरान के लिए प्रत्यक्ष सैन्य समर्थन की कोई बात नहीं की. तुर्की की प्राथमिकता क्षेत्र में अपनी स्थिति मजबूत करना है, न कि ईरान के लिए युद्ध में कूदना.
सीरिया और लेबनान ईरान के करीबी सहयोगी होने के बावजूद, ये देश सैन्य रूप से कमजोर हैं. हिजबुल्लाह (लेबनान) और हमास (गाजा) जैसे ईरान समर्थित प्रॉक्सी समूह सक्रिय हैं, लेकिन उनकी क्षमता सीमित हैं.