परों का दुख जब ज़मीनों पे गिरने लगे
तो इन्सान की आंखें अंधेरों में डूबने लगती हैं
जब पौदा जन्म लेता है तो मिट्टी अपना रंग खो नहीं देती
बल्कि और सच बोलने लगती है....
जिस्म के ज़ख्म जब शब्द-शब्द में ढलने लगते हैं तब शायरी, नज़्म और कविताओं का जन्म होता है. इसकी मिसाल हैं पाकिस्तान की मशहूर शायरा सारा शगुफ़्ता और उनके नज़्में. सारा की जिंदगी ता-उम्र दुख-दर्द और आंखों से बहते अश्कों में डूबी रही. सारा ने ज़िंदगी में कितनी तकलीफें सहीं? वक्त ने उनके साथ कितनी ज्यादतियां की? इन सवालों का जवाब उनकी दो पुस्तकें 'आंखें' और 'नींद का रंग' के हर पन्ने पर बिखरा पड़ा है. सारा की रचनाएं व्यथापूर्ण जीवन का पद्य कहें या गद्य शैली में लिखा इकबालिया बयान हैं.
सारा शगुफ़्ता ने अपनी कविताओं को किस परिप्रेक्ष्य में लिखा? इसे समझे बिना उनकी नज़्मों की गहराई में उतरा नहीं जा सकता. उनकी जिंदगी किस राह से गुजरी, रास्ते पर कितनी अड़चने-कठिनाईयां मिली, कितनी बार ठुकराई गयीं, समाज ने कितने लांछन लगाये, इन सबसे जुझते हुए सारा ने खुदकुशी के असफल-सफल प्रयास किए. सारा शगुफ़्ता की पुस्तकें 'आंखें' और 'नींद का रंग' उनकी जिदंगी का हर पन्ना खोल देती है. इन दोनों पुस्तकों में दर्ज उनकी नज़्में सारा के निजी जिंदगी की खुली किताब हैं.
सारा ने अपनी जिंदगी में बार-बार मिले आघातों से विचलित होकर कई नज़्मों को उर्दू में लिखा था. सारा की खुदकुशी के बाद उनके मित्रों ने इन नज़्मों को इकट्ठा किया और 1985 में 'आंखें' शीर्षक से प्रकाशित करवाया. यह उनकी नज़्मों के पहला संग्रह था. उनकी कुछ और नज़्मों को इकट्ठा कर 1993 में दूसरा संग्रह 'नींद का रंग' छपवाया गया. सारा शगुफ़्ता के इन दोनों संग्रहों का दिल्ली विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग की प्रोफेसर अर्जुमंद आरा ने हिंदी में लिप्यंतरण और संपादन किया है. ये दोनों पुस्तकें राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित की गयी हैं.
कविता या नज़्म में संवेदना का होना जरूरी है. सारा शगुफ़्ता की तमाम नज़्में इस पैमाने पर खरी उतरती हैं. उनकी हर नज़्म अंतरात्मा से निकली आवाज़ लगती हैं. वे बेहद संवेदनशील और विद्रोही प्रकृति की उत्कृष्ट नारीवादी शायरा थीं. इसलिए जब उन पर बदचलन और बेकिरदार होने के आरोप लगे तो पुरुष वर्चस्व वाले समाज पर उन्होंने कटाक्ष किया. 'होंठ मेरे गदागर' में वे लिखती हैं-
वफादारों की गलियों में कुतिया कम
और कुत्ता ज्यादा मशहूर होता है
'औरत और नमक' नज़्म में सारा समाज में औरत की आबरू पर उठने वाले सवालों पर कटाक्ष करते हुए लिखती हैं-
इज़्ज़त की बहुत-सी किस्में हैं
घूंघट, थप्पड़, गंदुम
इज़्ज़त के ताबूत में कैद की मीखें ठोंकी गई हैं
घर से लेकर फुटपाथ तक हमारा नहीं
इज़्ज़त हमारे गुज़ारे की बात है
इज़्ज़त के नेज़े से हमें दाग़ा जाता है
इज़्ज़त की कनी हमारी ज़बान से शुरू होती है
कोई रात हमारा नमक चख़ ले
तो एक जिंदगी हमें बे-ज़ायका रोटी कहा जाता है
सारा की नज़्मों को पढ़कर मैं दो रात सो न सका. मुझे लगा आसपास यहीं-कहीं दर्द से कराहती सारा शगुफ़्ता मौजूद हैं. उनके जख़्मों से उपजी आह रात के अंधेरे में सुनाई पड़ रही थी. सारा ने चार नाकाम शादियां कीं. पति की तरफ से ज्यादतियां और कैद मिली. इस घुटन भरी जिंदगी को उन्होंने कुछ इन शब्दों से बयां किया-
मर्द समझते हैं
औरत से अच्छी कोई कब्र नहीं होती
दरवाज़े को आजाद करते ही
मेरा घर शुरू हो जाता है
वतन से निकलती हूं तो ज़मीन शुरू हो जाती है
ज़मीन से निकलती हूं तो वतन शुरू हो जाता है
लिबासों के रंग भी तो जिस्म पे रंग छोड़ते हैं
मेरी रोशनी सिग्नल से भी कम है
पहलू अदब-बदल के शायद खरी हो जाऊं
मुझे नाखूनों में फंसे लोग पसंद नहीं
मुंह काला करने से तो बेहतर है
ज़बान सफेद पड़ जाए
दर्द की पराकाष्ठा की अभिव्यक्ति है 'सारा'. जब वे अस्पताल का बिल भरने के लिए अपने मुर्दा बच्चे को अमानत के तौर नर्स के पास छोड़ गयी थीं तो एक मां के कलेजे पर क्या बीतती है इसे शायद ही कोई महसूस कर सकता हो. ये उनकी जिंदगी का यथार्थ है. इसलिए उनकी रचनाओं में आदर्शवाद नज़र नहीं आता. वे अपनी जिंदगी के यथार्थ को ज्यों का त्यों पेश करती हैं. कितनी मजबूर, मरती, घुटती मांओं के दर्द को जैसे 'सारा' ने जीया है.
मौत की तलाश मत लो
इंसान से पहले मौत जिंदा थी
टूटने वाले जमीन पर रह गए
मैं पेड़ से गिरा साया हूं
आवाज़ से पहले घुट नहीं सकती
मेरी आंखों में कोई दिल मर गया है!
उनकी नज़मों के रिद्म में एक बैचेनी साफ झलकती है. सारा बेसुध और बरहना सर (नंगे सिर) अपने अस्तित्व को तलाशती है. जिंदगी की पथरीली पगडंडियों के अपने अनुभव को लफ्ज़ों में बयाँ करने के लिए सारा की आँख में आंसू और हाथ में कलम थी. रात के अंधेरे में चटाई पर लेटकर वे छत-दीवारों को देखती और लिखतीं-
आँगन में धूप न आए तो समझो
तुम किसी ग़ैर-इलाक़े में रहते हो
मिटटी में मेरे बदन की टूट फूट पड़ी है
हमारे ख़्वाबों में चाप कौन छोड़ जाता है
और आगे....
हमें मरने की मोहलत नहीं दी जाती
क्या ख्वाइश की मियान में
हमारे हौसले रखे हुए होते हैं...!
सारा विद्रोही तो थीं. लेकिन उनके दर्द ने ही उन्हें विद्रोही बनाया था. जब कतरा-कतरा रिसने लगता है तो कलम से निकला हर शब्द छाप छोड़ जाता है.
सारा की जुबानी-
"मेरी कराहती चीखों की आवाज़ सुनकर मकान मालकिन मुझे अस्पताल छोड़ आई...' 'मेरे पेट में दर्द और हाथ में पांच कड़कड़ाते हुए नोट थे…'
'दर्द के गर्भ से जन्म लिया मेरे बच्चे ने पांच मिनट के लिए आंखें खोली और फिर क़फन कमाने चला गया…'
डॉक्टर ने 295 रुपए का बिल हाथ में धर दिया. अस्पताल में मुर्दा बच्चा नर्स के पास छोड़ तपते बदन की आग गवारा करते हुए घर पहुंची, कहीं से ₹ 300 उधार लिये और अस्पताल पहुंचकर 295 रुपए का बिल भरा. अब मेरे पास एक मुर्दा बच्चा और 5 रुपए थे. डाक्टरों को 5 रुपए दे कहा- 'आप लोग चंदा इकठ्ठा करके बच्चे को कफ़न दें, और इस की क़ब्र कहीं भी बना दें.' 'मैंने अपने दूध की कसम खाई. शेर मैं लिखूंगी, शायरी मैं करूंगी, मैं शायरा कहलाऊंगी.'"
'आंखे' और 'नींद का रंग' सिर्फ नज़्मों का संग्रह नहीं है बल्कि सारा की जिंदगी के दुखों का संस्मरण भी है. एक नारी के मन की अस्त-व्यस्त जीवन गाथा का अंश है. अगर मौका लगे तो जरूर पढ़िए क्योंकि सारा शगुफ़्ता समाज की आदर्शवादी नारी नहीं बल्कि यथार्थवादी समाज का चेहरा भी पेश करती हैं. ऐसी अभिव्यक्ति करने वाली शायरा में ऐसी शिद्दत की ताकत होती है जिस की उड़ान हद-लाहद की मोहताज नहीं.
मैं फूलों से ज्यादा हंस सकती थी
और मौत से ज्यादा मर सकती थी...
***
पुस्तकः 'आंखें'
'नींद का रंग'
रचनाकार: सारा शगुफ़्ता
भाषाः हिंदी
लिप्यंतरण और संपादनः अर्जुमंद आरा
मूल्यः क्रमशः 150 रुपए और 199 रुपए
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
पृष्ठ संख्याः क्रमशः 128, 158