आज कैलाश सत्यार्थी का जन्मदिन है. कैलाश सत्यार्थी के होने का अर्थ है दुनिया में बचपन बचाने की मुहिम का जिंदा होना. बचपन, जो बेपरवाह होता है हर उलझन से, संकट से, वही जब संकट में हो तो हमारे दौर में उसको बचाने की जो सबसे ताकतवर आवाज सुनाई देती है, वह कैलाश सत्यार्थी की होती है. सत्यार्थी 'नोबेल शांति पुरस्कार' से सम्मानित पहले ऐसे भारतीय हैं, जिनकी जन्मभूमि और कर्मभूमि दोनों भारत है. उन्होंने अपना नोबेल पुरस्कार राष्ट्र को समर्पित कर दिया है, जो अब ऱाष्ट्रपति भवन के संग्रहालय में आम लोगों को देखने के लिए रखा है. आप डिफेंडर्स ऑफ डेमोक्रेसी अवॉर्ड, मेडल ऑफ इटैलियन सीनेट, रॉबर्ट एफ कैनेडी ह्यूमन राइट्स अवॉर्ड, हार्वर्ड ह्यूमैनिटेरियन अवॉर्ड से भी सम्मानित हैं.
इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में स्नातक की डिग्री लेने के बाद सत्यार्थी ने जीवकोपार्जन के लिए अध्यापन कार्य चुना और एक कॉलेज में पढ़ाने लगे. लेकिन उनके मन में गरीब व बेसहारा बच्चों की दशा देखकर उनके लिए कुछ करने की अकुलाहट थी. इसी के चलते एक दिन उन्होंने नौकरी छोड़ दी और बच्चों के लिए कुछ कर गुजरने को विवश हुए. बाल-मजदूरी को खत्म कराने की दृष्टि से उन्होंने 1981 में ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ की स्थापना की. यह वह दौर था, जब समाज यह स्वीकारने तक को तैयार न था कि बच्चों के भी कुछ अधिकार होते हैं और बालश्रम समाज पर एक अभिशाप है. सत्यार्थी के नेतृत्व में बचपन बचाओ आंदोलन ने सीधी छापामार कार्रवाई के जरिए अब तक 90 हजार से ज्यादा बच्चों को बंधुआ मजदूरी और गुलामी की जिंदगी से मुक्त कराकर उनका पुनर्वास करा चुका है. बाल मजदूरों को छुड़ाने की छापामार कार्रवाई के दौरान उन पर अनेक बार प्राणघातक हमले भी हुए हैं.
सत्यार्थी ने बच्चों के अधिकारों को लेकर 'ग्लोबल मार्च अगेंस्ट चाइल्ड लेबर' की जिसके चलते बालश्रम को लेकर देश-दुनिया में कई कानून बने और अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने 'कन्वेंशन-182' पारित किया. उनके द्वारा शुरू 'ग्लोबल मार्च अगेंस्ट चाइल्ड लेबर' आज बालश्रम उन्मूलन की दिशा में प्रयासरत विश्व का सबसे बड़ा सिविल सोसाइटी नेटवर्क है. यह संगठन करीब 150 देशों में काम करता है. आप 'ग्लोबल कैंपेन फॉर एजुकेशन' व उत्पादों के बालश्रम रहित होने के प्रमाणीकरण व लेबल लगाने की विधि 'गुडवीव' के भी जनक हैं. नोबेल पुरस्कार विजेताओं और विश्व नेताओं को एकजुट कर उन्होंने 'लॉरिएट्स एंड लीडर्स फॉर चिल्ड्रेन' की स्थापना की है. इसी तरह बच्चों के प्रति हिंसा को खत्म करने के मकसद से '100 मिलियन फॉर 100 मिलियन' नामक विश्वव्यापी आंदोलन के जरिए 10 करोड़ युवाओं को समाज के हाशिए पर खड़े 10 करोड़ वंचित बच्चों की सहायता के लिए प्रेरित कर रहे हैं. इसी तरह आप 'कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रेंस फाउंडेशन', 'बाल मित्र ग्राम' और शहरी स्लम इलाके में 'बाल मित्र मंडल', बच्चों के लिए 'फेयर शेयर फॉर चिल्ड्रेन' नाम से विश्वव्यापी अभियान भी चला रहे हैं.
कोविड महामारी के दौरान आपने लेखन के क्षेत्र में भी प्रवेश किया और प्रभात प्रकाशन से आपकी एक पुस्तक 'कोविड-19: सभ्यता का संकट और समाधान' नाम से आई है. आजतक के वरिष्ठ कार्यकारी संपादक संजीव पालीवाल ने कैलाश सत्यार्थी उनके जन्मदिन के अवसर पर उनसे उनकी इसी पुस्तक पर खास बातचीत की. पढ़िए, इस लंबी बातचीत के खास अंश.
क्या कोविड-19 के प्रभाव ने आपको लेखन के क्षेत्र में आने को विवश किया? फिर आपने अपनी पुस्तक में इसे सभ्यता का संकट बताया और फिर उसका समाधान भी सुझाया है. इस पर थोड़ा विस्तार से इस पर प्रकाश डालिए?
-सामान्य तौर पर पिछले साल फरवरी-मार्च में जब ये संकट आया, तो दुनिया ने इसे स्वास्थ्य का संकट समझा और उसी के आधार पर उसके समाधान खोजे गए. यह लम्बे समय तक चलने वाली आपदा है और फिर इसका आर्थिक असर नजर आने लगा क्योंकि जब लॉकडाउन लगने लगा, काम-धंधे बंद होने लगे, लोग बेरोजगार होने लगे, आर्थिक स्थितियां खराब होने लगीं, दुनिया में विकास की रफ़्तारें कम होने लगीं और लोग घरों में बंद होने लगें, तब तरह-तरह के आर्थिक संकटों के संकेत आने लगे. उसी प्रक्रिया में हमने देखा कि 1 अरब 25 करोड़ बच्चों का स्कूल जाना बंद हो गया. जब हमने देखा कि लॉकडाउन लगने के बाद स्थिति बहुत खराब हो गई, प्रवासी मजदूरों का आधुनिक सभ्यता, विकास से मोहभंग हो गया और वे घरों की ओर वापस होने लगे, उनके बच्चे त्राही-त्राही करने लगे, तब हमने एक अध्ययन कराया. उस अध्ययन में हमने पाया कि घरों में बैठे लोगों की ऑनलाइन चाइल्ड पोर्नोंग्राफी सामग्री की मांग बढ़ने लगी. वे बच्चों के अश्लील चलचित्र देखना चाहते थे. भारत में पहले लॉकडाउन के 8-10 दिनों के अंदर ही चाइल्ड पोर्नोग्राफी फिल्मों की मांग दोगुनी हो गई. घरों में लोग अवसाद में जीने लगे. निराशाएं पैदा होने लगीं. घरों के अंदर अलगाव पैदा होने लगे. इस तरह से तरह-तरह की समस्याएं आने लगीं. तब मुझे लगा कि ये सिर्फ स्वास्थ्य और आर्थिक संकट का मामला नहीं है बल्कि यह उससे भी गंभीर है.
समाज में सोचने-समझने के तरीके, जीने के तरीके, टैक्नोलॉजी की प्राथमिकताएं, राजनीति की प्राथमिकताएं सभी बदलने लगी थीं. हमें समझना चाहिए कि जीवन जीने की जो साझा पद्धति है उसी से सभ्यता का निर्माण होता है और महामारी से समाज का साझापन छिन्न-भिन्न होने लगा था. बहुत सारे लोग भावुक होकर चैरिटी का काम करने लगे थे. कुछ लोग मदद कर रहे थे. दुनिया में एक सामूहिक भय जो उत्पन्न हो गया था, वैसा कभी देखने को नहीं मिला था. पहले भी महामारियां आई थीं और उनमें इससे ज्यादा लोग मरे. लेकिन सामूहिक भय इतना कभी देखने को नहीं मिला, जिसका असर जीवन के हरेक पक्ष पर पड़ा. जिन तत्वों से सभ्यता का निर्माण होता है वे सारे तत्व खतरे में पड़ गए. हमको लगा कि इसको दूसरे तरीके से देखा जाना चाहिए और इसकी व्याख्या और समाधान उसी तरीके से ढूंढे जाने चाहिए. इन्हीं बातों को लेकर मैंने यह किताब लिखी. मैंने समाधानों को भी ढूंढने की कोशिश की, क्योंकि मेरा हमेशा यह मानना रहा है कि अगर कहीं समस्या है तो उसके गर्भ में ही समाधान निहित है. इस समस्या का समाधान केवल वैक्सीन में नहीं है. इस समस्या का समाधान केवल अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में नहीं है बल्कि उस जीवन पद्धति को पटरी पर लाने में है जो एक दूसरे की मदद करती है, एक दूसरे के प्रति उत्तरदायित्व के बोध को महसूस करती है और जो एक साझापन दुनिया में खड़ा करे.
आपने अपनी पुस्तक में एक वाक्य का जिक्र किया है, 'करुणा का वैश्वीकरण', यह क्या है? और आज के हालात में कितना व्यावहारिक है?
-आज के हालात में महामारी के वायरस का वैश्वीकरण हुआ. आज से पहले भी असहिष्णुता, अशांति और डर का का वैश्वीकरण हो रहा था. लेकिन वैश्वीकरण की जो अवधारणा समाज में मौजूद है वह है- आर्थिकी, उत्पादन, ज्ञान और तकनीक का वितरण हरेक के बीच हो. खुले बाजार की अर्थव्यवस्था को वैश्वीकरण माना जाता है. हर चीज का वैश्वीकरण हो गया और क्षणमात्र में दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने में सूचनाएं पहुंचने लगीं. शेयर बाजार और व्यापार भी एक-दूसरे से जुड़ गए. लेकिन वैश्वीकरण का परिणाम भी हमने देखा कि लोग कितने स्वार्थी होते जा रहे हैं और एक दूसरे को पीछे धकेलकर आगे बढ़ने की प्रतिस्पर्धा में जुटे हुए हैं. इन सबका जवाब करुणा के वैश्वीकरण में निहित है. करुणा को हम सहानुभूति से जोड़कर नहीं देख रहे हैं. सहानुभूति एक बहुत अच्छी चीज है. जब हम दूसरे को देखते हैं और उसके प्रति हमारे मन में जुड़ाव का जो एक भाव आता है, उसे हम सहानुभूति कहते हैं. सहानुभूति से कहीं ज्यादा गहरी चीज है संवेदना. जब हम महसूस करते हैं कि दूसरे का दुख, दर्द हमारी परेशानी है, तब वह संवेदनशीलता हो जाती है. लेकिन बिल्कुल अंदर का जो तत्व है वह है करुणा. यानी दूसरे के दुख-दर्द को अपना दुख-दर्द महसूस करके उसका निराकरण ठीक वैसे ही करें जैसे हम अपने दुख-दर्द का करते हैं. करुणा के वैश्वीकरण का संबंध इस बात में है कि पूरा संसार जहां इतना नजदीक से जुड़ गया है लेकिन वहीं दूसरी ओर बाकी चीजों को लेकर वह भीतर से कट भी गया है. यानी इंसानियत और उत्तरदायित्व की उसमें कमी हो गई है. करुणा के आधार से हम नए प्रकार का वैश्वीकरण कर सकते हैं. और यह काम भारत की धरती से होगा. भारत की धरती करुणा, मानवता और शांति की धरती है. यहीं से करुणा के बीज खिलेंगे. हम मानते हैं कि भारत के लोगों के डीएनए में, उसकी बुनियाद में करुणा है. हालांकि सारी मानव बिरादरी में करुणा है. परमात्मा ने सबको करुणा बांटी है. परमात्मा ने हम सबको असीम करुणा बांटी है और उस करुणा का हमें वैश्वीकरण करना चाहिए.
सहिष्णुता पर दुनिया किस तरह अमल करेगी?
-जिस वक्त आर्थिक संकट आते हैं संसार में, बेरोजगारी बढ़ती है, तो सामाजिक तनाव भी बढ़ते हैं. ऐसे हालात में पहले लोग खुद और अपने परिवार को बचाना चाहते हैं. असुरक्षा में डर हमको संकुचित कर देता है. इससे निजात पाने का तरीका है कि हम सहिष्णु बनें. इसका अर्थ यह हुआ कि हम एक दूसरे की असलियत को स्वीकार करें. जरूरी नहीं कि हम उसको मान ही लें. हम यह मान लें कि विविधताओं से ही संसार चलता है. हर चीज की विविधता है. अगर हम कहें कि एक ही रंग के फूल खिलें, एक ही रंग-रूप के सभी लोग हों, सबके एक ही विचार-आचार हों, तो यह संभव नहीं है. इस असलियत को स्वीकार करते हुए हम ऐसे तत्व ढूंढें जो हमको एक दूसरे से जोड़े. करुणा एक ऐसा तत्व है जो हमको जोड़ता है. कोई नहीं चाहता कि हिंसा के जरिए समाज का निर्माण हो. हिंसा के जरिए कभी भी न्याय, समानता और शांति नहीं मिल सकती. करुणा के जरिए हमें शांति, न्याय, समानता स्थापित करनी चाहिए और इसकी बुनियाद सहिष्णुता पर टिकी है. हम एक दूसरे की बात को समझें और करुणा का वैश्वीकरण करें. किसी को नीचा दिखाने से असहिष्णुता और तनाव बढ़ते हैं. विविधता को विकसित करते हुए हम सहिष्णुता को स्थापित करें.
आपकी कविताओं का भी एक संकलन आने वाला है. कोरोना काल के दौरान आपकी एक कविता 'खून से सनी रोटियों' काफी चर्चा में रही. यह कविता सुनाएं?
-मैं बचपन से ही कुछ न कुछ लिखता रहा हूं, जैसे-कविता, कहानी, आलेख. सामाजिक कार्यक्रमों के अलावा मैं यह सब करता रहा हूं. साहित्य में हमारी दिलचस्पी शुरू से रही है. जिस कविता को मैं सुना रहा हूं उसकी पृष्ठभूमि यह है कि भूसावल में एक घटना घटी कि कुछ प्रवासी मजदूर जब अपने गांवों को लौट रहे थे, तो वे रेल के नीचे आ गए और पटरी पर उनकी मौत हो गई. उसी पर यह कविता है…
खून से सनी रोटियों के साथ चिपकी पड़ी हैं जो
रेल की पटरियों पर, वो मेरी उंगलियां हैं
बड़ी मेहनत से कमाई थीं वे रोटियां
लम्बे सफर के लिए बचाई थीं वे रोटियां
रोते-रोते मुझे छोड़कर मां भूखी सो पाई होगी?
उसने तो बांधकर रख दी थीं घर के पूरे आटे की रोटियां
शहर तक के मेरे लम्बे सफर के लिए
नहीं मालूम था कि कुछ रास्ते एकतरफा होते हैं
मां के आंसुओं से कहीं ज्यादा, बहुत ज़्यादा
तकलीफ़देह थी उसकी खांसी और सूखती जाती काया
बहुत रुलाता था भूखी गायों का रंभाना
शेरू की असमय मौत और रोज–रोज साहूकार का गरियाना
पिता के हाथों के खोदे गए मगर अब सूखे पड़े कुएं में
यूं ही बार-बार झांकना बहुत रुलाता था
संकट एक कहीं से आया और मुझे एहसास दे गया
मेरे और शहर के सपने अलग-अलग हैं
मेरे और उनके अपने भी अलग-अलग हैं
बहुत हो चुका, लौट पड़ा था उसे पकड़ने छूट गया जो अपने घर पर
मेरी मां को मत बतलाना जो देखा तुमने पटरी पर
कहना, कैसे मर सकता है
जिसकी नज़र उतारी थी तूने उधार की राई लेकर?
बोल सको तो सच कह देना
ईंट-ईंट, पत्थर-पत्थर में बसता है अब तेरा बेटा
बसता है वो हर मकान में, मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर में
देख रहे हो जो कुछ भी अपनी आंखों से
हाथों से जो कुछ भी तुम छू सकते हो
उन सब में मैं हूं- मैं अब भी ज़िंदा हूं
मेरे सपने मरे नहीं हैं, फिर मैं कैसे मर सकता हूं
कायनात जब तक जिंदा है, मैं जिंदा हूं
मरते वो हैं जिनके सपने मर जाते हैं.
आपने अपनी किताब में एक जगह लिखा है कि ज्ञानी, धनी और शक्तिशाली कभी सुखी नहीं हो सकते?
-मैं खुद ज्ञानी, धनी और शक्तिशाली नहीं होना चाहता. सुख का संबंध संतोष से है. ज्ञानियों को लगता है कि वे संतोषी हो गए हैं लेकिन असलियत तो यह है कि ज्ञानी कभी भी संतोषी नहीं हो पाते. उन्हें लगता है कि ज्ञान के अनंत सागर से कुछ बूंदें और वे पी लें. इसलिए ज्ञानियों को कभी संतोष नहीं होता. ज्ञान की परतें कई बार हमारे दिल-दिमाग पर इतनी जम जाती हैं कि हमको या तो वे बहुत चतुर बना देती हैं या बुद्धिमान. वे हमको बहुत घमंडी भी बना देती हैं या आत्मकेंद्रित. ज्ञान की परतों का हमलोग इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं, क्योंकि ज्ञान की बूंदें अगर हमारे जीवन का हिस्सा बनें तो वह बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है. बजाय इसके कि इसको हम गठरी बनाकर अपने दिमाग में रख लें. इसीलिए लोग सुखी नहीं हो पाते. यही हाल शक्ति का है. शक्ति, ताकत की भूख इसलिए होती है कि सारी ताकत मेरे पास आ जाए. उसके लिए किसी न किसी को दबाना पड़ता है, सताना पड़ता है. इसमें भीतर की भी हिंसा होगी और बाहर की भी हिंसा होगी. शक्ति को हासिल करने के लिए हम अपने भीतर भी हिंसक बन जाएंगे. तीसरी चीज है पैसा. पैसा भी एक ऐसी मृग-तृष्णा है जिसका कभी अंत नहीं हो सकता. जितना मिले उतना कम है. तीनों को हासिल करने वाले लोग कभी सुखी नहीं हो सकते. बुढापे में उनको राम-नाम जपने का स्मरण आता है, तब तक तो काफी देर हो चुकी होती है.
बच्चों की पढ़ाई-लिखना बंद होना कितना बड़ा संकट है?
-करीब डेढ़ अरब बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे थे. अभी भी पूरी दुनिया में सबा अरब बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं. घरों में कैद बच्चे अपने में घुट रहे हैं. बचपन का संबंध मिलना-जुलना, लड़ना-झगड़ना, हंसी-मजाक करना, दोस्तों के बीच खेलना-कूदना, नई-नई बातें सीखने से हैं. स्कूल नहीं जाने वाले बच्चों में आधे बच्चे ऐसे हैं जिनके पास ऑनलाइन पढ़ने की सुविधा नहीं है. करीब 45-47 करोड़ बच्चों को ऑनलाइन पढ़ने का अवसर नहीं मिल पा रहा है. बच्चों को मिड डे मील मिल रहे थे, वजीफे मिल रहे थे, वे भी बंद हैं. भारत में तो फिर भी कुछ न कुछ मिल रहा है. मिड डे मील के बदले में आर्थिक सहायता मिल जाती है. ऐसे बच्चों का स्कूल छूटना और फिर बाल वेश्यावृत्ति, बाल मजदूरी, बाल दुर्व्यापार, गुलामी और फूटपाथी बच्चों की भीड़ में धकेला जाना स्वाभाविक है. यह बहुत बड़ा खतरा है कि लाखों बच्चे अब स्कूल में नहीं रहेंगे और इस स्थिति के लिए मजबूर होंगे. यह बहुंत ही चिंताजनक है. लेकिन जो बच्चे घर में घुट रहे हैं उनकी भी मानसिक स्थिति बहुत बुरी है. लॉकडाउन के पहले से मैं कहता रहा हूं कि आप बच्चों से दोस्ती का रिश्ता पैदा करें. लेकिन ज्यादातर मां-बाप के बीच एक खुशामद का रिश्ता होता है. वे चिंता करेंगे कि अपने बच्चों को कैसे महंगे अंग्रेजी स्कूलों में भेजें. उन्हें अच्छा खाना खिलाएं और अच्छे कपड़े पहनने को दें ताकि उनके बच्चे खुश रहें. लेकिन इसमें बच्चों की खुशी नहीं है. बच्चे की खुशी इसमें है कि वह एक दोस्त की तरह अपने मन के भीतर की वेदना, भावना, खुशी अपने मां-बाप से जाहिर कर सकें. ये हमारे परिवारों में सामान्य तौर पर नहीं होता. बच्चों के साथ दोस्ती का रिश्ता नहीं होने से भी जो बच्चे घर के अंदर हैं वे भीतर से और घुटने लगे हैं. अभी भी मौका है कि हम अपने बच्चों के साथ मिल-बैठकर एक गुणात्मक समय व्यतीत करें. और हम उनको यह महसूस कराएं कि हम उनके दोस्त हैं, नहीं कि हर हमेशा निर्देशित करने वाले पिता.
कोविड-19 जेनरेशन किस तरह अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ियों से अलग होगी?
-ये बच्चे पूरी तरह से तकनीक पर निर्भर होंगे. वे उन सब तरीकों को खोजेंगे जिनसे आत्मकेंद्रित होकर पढ़-लिख सकें. ज्ञान अर्जित कर सकें और आगे बढ़ने के सपने देख सकें. अभी तक वे सिर्फ मोबाइल पर अपने मनोरंजन के लिए तरह-तरह के खेल देख रहे थे. अब पढ़ाई भी ऑनलाइन हो रही है, इससे अंदर ही अंदर वे सिमटेंगे. दूसरी ओर जब तक वे एक दूसरे से नहीं मिलेंगे, तो एक दूसरे के प्रति उत्तरदायित्व का बोध भी उनमें विकसित नहीं होगा. एक और बड़ा खतरा है कि शिक्षकों की जरूरत कम हो जाएगी. शिक्षकों की जरूरत कम होने पर उनसे ज्ञान और चारित्रिक गुणों को जो हम सीखते थे, वह भी कम हो जाएगा. ज्यादातर शिक्षकों के लिए बच्चे महत्वपूर्ण होते हैं. गुरु-शिष्य का रिश्ता कमजोर होगा. दुख-सुख और संकट की घड़ी में बच्चे शिक्षकों से ही अपनी समस्याओं को साझा करते हैं. हमें इस पर ध्यान देना होगा. सरकारें भी अब कहेंगी कि हम ऑनलाइन शिक्षा पर ज्यादा खर्च करेंगे. स्कूलों को बनाने में, शिक्षकों की नियुक्ति करने में, उन्हें तनख्वाह देने में हम पैसा खर्च नहीं करेंगे. ऐसा नहीं हो इसका हमें ध्यान रखना होगा. बच्चे दुबारा जब स्कूल पहुंचेंगे, तो उस रिश्ते को कायम करें. कुछ मनोवैज्ञानिक प्रयास भी करें. जैसे खेलकूद के जरिए, सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिए. तभी बच्चे पुरानी स्मृति में आ सकेंगे और त्रासदी की स्मृति से मुक्ति पा सकेंगे.
आपको लगता है कि हमारा समाज या हमलोग बदलेंगे?
- धर्मों के माध्यम से यदि हम सिर्फ पाखंड को जीते हैं और चमत्कारों में आशा रखते हैं, तो यह अवैज्ञानिक बात है. धर्मों के अंदर जो अंतर्निहित मूल्य हैं, उनके अंदर जो जीवन की गहरी शिक्षाएं हैं और एक बेहतर शांतिपूर्ण दुनिया के निर्माण के मूलमंत्र छुपे हुए हैं, अगर हम उनको निकालेंगे, तो करुणा की बुनियाद हर जगह नजर आएगी. उसमें हमें सहिष्णुता, एक दूसरे के प्रति उत्तरदायित्व की भावना और कृतज्ञता नजर आएगी. इसीलिए इस पुस्तक में मैंने करुणा, कृतज्ञता, सहिष्णुता और उत्तरदायित्व की बात रखी है जोकि मेरी बात नहीं है. इसको मैंने किताब में भी लिखा है और यही सभी धर्मों का निहितार्थ है और उसके अंदर मौजूद हैं. और अगर हम इसको आधार बनाकर अपने जीवन में उतारते हैं या समाज की सभ्यता का हिस्सा बनाते हैं, तो हम एक बेहतर समाज का निर्माण कर सकते हैं. हम यह भी सीख सकते हैं कि अगर मंदिर, मस्जिद या गुरुद्वारे में घंटी बजाकर या प्रार्थना करके महामारी खत्म नहीं कर सकें, तो हमें कुछ और सोचना चाहिए. लेकिन इसका यह भी अर्थ नहीं है कि हम ईश्वर और धर्म को भूल जाएं. ईश्वर और धर्म के अंदर जो बुनियादी चीजें हैं, उनसे हम सीखें.
हम कोरोना काल के दौरान प्रवासी मजदूरों पर लिखी आपकी एक और कविता 'बिन मौसम के आया पतझड़' सुनना चाहेंगे. साहित्य तक के पाठकों को सुनाइए?
- मेरे दरवाज़े के बाहर घना पेड़ था,
फल मीठे थे
कई परिंदे उस पर गुज़र-बसर करते थे
जाने किसकी नज़र लगी
या ज़हरीली हो गईं हवाएं
बिन मौसम के आया पतझड़ और अचानक
बंद खिड़कियां कर, मैं घर में दुबक गया था
बाहर देखा बदहवास से भाग रहे थे सारे पक्षी
कुछ बूढ़े थे तो कुछ उड़ना सीख रहे थे
छोड़ घोंसला जाने का भी दर्द बहुत होता है
फिर वे तो कल के ही जन्मे चूज़े थे
जिनकी आंखें अभी बंद थीं, चोंच खुली थी
उनको चूम चिरैया कैसे भाग रही थी
उसका क्रंदन, उसकी चीखें, उसकी आहें
कौन सुनेगा कोलाहल में?
घर में लाइट देख परिंदों ने
शायद ये सोचा होगा
यहां ज़िंदगी रहती होगी,
इंसानों का डेरा होगा
कुछ ही क्षण में खिड़की के शीशों पर,
रोशनदानों तक पर
कई परिंदे आकर चोंचें मार रहे थे
मैंने उस मां को भी देखा, फेर लिया मुंह
मुझको अपनी, अपने बच्चों की चिंता थी
मेरे घर में कई कमरे हैं उनमें एक पूजाघर भी है
भरा हुआ फ्रिज है, खाना है, पानी है
खिड़की-दरवाज़ों पर चिड़ियों की खटखट थी
भीतर टीवी पर म्यूज़िक था, फ़िल्में थीं
देर हो गई, कोयल-तोते,
गौरैया सब फुर्र हो गए
देर हो गई, रंग, गीत, सुर,
राग सभी कुछ फुर्र हो गए
ठगा-ठगा सा देख रहा हूं आसमान को
कहां गए वो जिनसे हमने सीखा उड़ना
कहां गया एहसास मुक्ति का, ऊंचाई का
और असीमित हो जाने का
पेड़ देखकर सोच रहा हूं
मैंने या मेरे पुरखों ने नहीं लगाया,
फिर किसने ये पेड़ उगाया?
बीज चोंच में लाया होगा उनमें से ही कोई
जिनने बोए बीज पहाड़ों की चोटी पर
दुर्गम से दुर्गम घाटी में, रेगिस्तानों, वीरानों में
जिनके कारण जंगल फैले, बादल बरसे
चलीं हवाएं, महकी धरती
धुंधला होकर शीशा भी अब,
दर्पण सा लगता है
देख रहा हूं उसमें अपने बौनेपन को
और पतन को
भाग गए जो मुझे छोड़कर
कल लौटेंगे सभी परिंदे
मुझे यक़ीं है, इंतजार है
लौटेगी वह चिड़िया भी चूज़ों से मिलने
उसे मिलेंगे धींगामुश्ती करते वे सब मेरे घर में
सभी खिड़कियां, दरवाज़े सब खुले मिलेंगे
आसपास के घर-आंगन भी
बांह पसारे खुले मिलेंगे.