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जब लाइफ ने मारा यू-टर्न
दो बहनों ने मुझे दुआओं में मांगा था...घर में सबका लाड़ला था. हंसी-शरारतों के बीच बचपन निकल गया. स्कूल में नाम रखा गया अभिलाष श्रीवास्तव. स्कूल बैग में तमाम उम्मीदों के साथ मां-बाप का इंजीनियर बनाने का सपना लेकर पढ़ाई में लग गया. घर पर सख्ती होने लगी. मेरी इमेज एक ब्राइट स्टूडेंट की बन गई तो फिर उसे 12वीं तक वैसे ही मेंटेन रखा.
12वीं की पढ़ाई तक आते-आते दोनों बहनों की शादी हो गई. अब पापा-मम्मी के साथ बचा मैं. मम्मी डायबिटीज के कारण बीमार रहती हैं, वहीं पापा की पोस्टिंग सिद्धार्थ नगर में कानूनगो के तौर पर है. 12वीं के बाद मेरी लाइफ में एक यूटर्न आया, जब मैंने घरवालों को बताया कि मुझे इंजीनियर नहीं रेडियो कमेंटेटर बनना है. ये शौक मुझे स्कूल लाइफ में ही लग गया था. मम्मी-पापा के चेहरे पर 12 बज गए, लेकिन बेटा जिद कर बैठा था तो कौन मना करे. मैंने लखनऊ में रेडियो का कोर्स ज्वाइन कर लिया. कोर्स ज्वाइन करने के बाद घर में काफी डांटा गया. एक तरह से घर से निष्कासित-सा कर दिया गया. पापा ने तो पूरे छह महीने बात नहीं की. जिस लड़के ने 12वीं की पढ़ाई फिजिक्स केमेस्ट्री मैथ से की हो, और 80 पर्सेंट नंबर आए हों, उसके पेरेंट्स तो उम्मीद करेंगे ही. मेरे पापा बहुत खुश थे कि अब लड़का मेरा आईआईटी निकालेगा. लेकिन मेरे दिमाग में कुछ और चल रहा था. मेरे दिमाग में ऑल इंडिया रेडियो में क्रिकेट कमेंट्री करने का भूत सवार था.
मैंने लखनऊ से रेडियो का कोर्स किया. फिर एफएम में काम किया, लेकिन घर का प्रेशर था कि घटने का नाम नहीं ले रहा था. पापा कहते कि अरे कम से कम ग्रेजुएशन कर लो. उनको लगने लगा था कि कम उम्र में काम और शोहरत मिल रही है तो मनबढ़ हो गया है. फिर मैंने एक और बम दागा कि मैं अपनी पसंद के विषय जर्नलिज्म में ही ग्रेजुएशन करूंगा.
डिप्रेशन में कब आ गया, पता नहीं चला...
इसके बाद माखनलाल चतुर्वेदी कॉलेज आ गए और पत्रकारिता में ग्रेजुएशन किया. ग्रेजुएशन के बाद तुरंत नौकरी लग गई. मैंने शुरुआत पीआर यानी पब्लिक रिलेशन से की थी. बहुत जल्दी समझ आ गया कि ये पत्रकारिता तो नहीं है, तो मैंने एक डेली न्यूजपेपर में सीखना शुरू किया. उस वक्त मेरा युवा मन पता नहीं कहां-कहां दौड़ रहा था. यही दौर प्यार-मुहब्बत और दिल्लगी का भी था. दोनों ही साथ साथ चलने लगे. काम से खाली बचा समय एक लड़की से अपनी लांग डिस्टेंस रिलेशनशिप को निभाने में लगाने लगा.
ट्रेनिंग के बाद छोटे-छोटे पोर्टल में काम किया. उसके एक साल बाद दिल्ली के एक नेशनल डेली में नौकरी लग गई. लेकिन यहां एक बार फिर टर्न आया. पत्रकारिता के साथ ही मुझे बीसीसीआई से कमेंट्री का भी मौका मिल गया. इंटरनेट रेडियो में रेडियो फॉर क्रिकेट के साथ मैंने दो आईपीएल किए. अब रेडियो का काम खत्म हुआ तो अखबार की नौकरी में फिर दिमाग लगाया. इस नौकरी में मुझे बस एक ही दिक्कत थी. वो ये कि अखबार निकलने के बाद रात के तीन बज जाते थे. ऑफिस इतनी दूर नोएडा के आउट स्कर्ट में था कि कैब से ही आना-जाना पड़ता था. घर पहुंचते-पहुंचते करीब-करीब सुबह हो जाती थी. कई बार नींद पूरी नहीं हो पाती थी तो माहौल सूट न होने के कारण नौकरी छोड़ दी.
अब मैं चार महीने घर पर बैठा रहा, चीजें खराब दिख रही थीं. करियर को लेकर चिंता बढ़ी थी. जब मैं अपने मेंटल इश्यू को समझने की कोशिश करता हूं तो लगता है शायद यहीं से उतार-चढ़ाव शुरू हुआ होगा. अभी मुझे याद भी नहीं सही से कि डिप्रेशन का बीज कब पड़ा या कैसे पड़ा. ऐसा कुछ मुझे महसूस भी हुआ होगा तो समझ नहीं आया या कहें कि हल्के में लिया होगा.
नौकरी की चिंता जल्द ही मिट गई. मुझे एक हेल्थ वेबसाइट में नौकरी का ऑफर मिला. वेबसाइट ज्वाइन की और हेल्थ कंटेंट लिखने लगा. सैलरी बढ़िया थी और माहौल तो बहुत ही अच्छा था. मुझे काम में मजा आने लगा था. फिर यहां भी कुछ ऑफिशियल सिस्टम चेंज हुआ. इस चेंज में मेरी जिम्मेदारी बदल दी गई. मेरा लेखन से दूर-दूर तक का रिश्ता नहीं था. बोर होने लगा तो छुट्टी लेकर घर गया. बहुत सोचा-विचारा और यहां से भी रिजाइन कर दिया. अब सोचा कि गणित वगैरह की पढ़ाई करके कुछ अलग करियर बनाऊंगा, अब मैं ये लाइन ही छोड़ दूंगा.
उधर मैं जिस लड़की के साथ लांग डिस्टेंस रिलेशन में था. उसके साथ भी मिस अंडरस्टैंडिंग पनपने लगी. तब कुछ अच्छा चल नहीं पा रहा था. अब तो सही से वो दौर याद भी नहीं, लेकिन धीरे-धीरे मेरी उससे बातचीत कम होने लगी थी. परिवार वाले उसकी शादी का दबाव डाल रहे थे. मेरा करियर स्थिर नहीं था. खैर हमने समझदारी दिखाते हुए बातचीत पर ब्रेक लगाना शुरू किया था जो कि धीरे धीरे खत्म ही हो गया. मैंने इस दौरान मास्टर्स की पढ़ाई भी की. इस सब पेचोखम को सुलझाने में मेरे बचपन के दोस्त काफी मदद कर रहे थे.
दोस्ती के मामले में मैं खुद को किस्मतवाला मानता था कि भले ही मेरे क्लोज्ड फ्रेंड तीन ही थे, लेकिन जो दोस्त थे उन पर इमोशनली निर्भरता बहुत ज्यादा थी.. मैं उनके साथ बातचीत करके खुश था. इन तीनों में से एक मेरी बचपन की दोस्त थी, वो मेरे बारे में काफी कुछ जान रही थी. उसके साथ मैं कई बातें साझा कर रहा था.
मेरे साथ सब गलत हो रहा है
अब आगे की कहानी बताता हूं कि मैं दिल्ली आकर अब फिर से नौकरी करने लग गया था. यहां मैंने जिस इमारत में किराये पर फ्लैट लिया वो चार मंजिला बिल्डिंग थी. मेरा थर्ड फ्लोर था. यहां लैंड लार्ड रहते नहीं थे. नीचे के फ्लोर में दो लड़के रहते थे. मैं आराम से रहने लगा. लेकिन एक दौर ऐसा आया जब उस बिल्डिंग में अकेला आदमी सिर्फ मैं बचा था. नीचे फ्लोर खाली हो गया था. सच कहूं तो मुझे ये लगता है कि इस अकेलेपन में मैंने अपने फियर को पहचाना, अपनी एंजाइटी को महसूस किया. पहली बार जब मन में ख्याल आया कि मैं यहां अकेला रहता हूं. मेड ही आती है. कहीं अगर कुछ हो गया तो कोई जान भी नहीं पाएगा. डोर अंदर से बंद भी रहेगा.
लेकिन मैंने इन सब थॉट्स को इग्नोर ये सोचकर किया कि ये सब तो चलता रहता है. दूसरी तरफ मेरी नौकरी अच्छी चल रही थी. लेकिन, खुद को अकेला महसूस करने लगा था, फियर हावी होने लगा था.
मेरे थॉट्स को मैं अब रीकॉल भी नहीं करता हूं. लेकिन वो ओवर थिकिंग थी जब मुझे लगता था कि मैं सब गलत चीजें बर्दाश्त कर रहा हूं. दुनिया में मेरे साथ सब गलत हो रहा है. फिर एक दिन मैंने सोचा कि किससे मैं अपने मन के भावों को बताऊं. दोस्त को कॉल लगाया वो बिजी था, फिर अपने सारे कॉन्टैक्ट लिस्ट को स्वाइप किया. ऐसा लगा कि जैसे कोई मुझे जानता ही नहीं. मैं सच में बिल्कुल अकेला हूं.
एंजाइटी की पहचान हुई
फिर मुझे मेरी एंजाइटी ने एक सिम्प्टम देना शुरू किया. ये सिम्प्टम था माइग्रेन का, मैं जब महसूस करूं तो लगता था कि मैं कहीं न कहीं असहज हूं. जब मैं लोगों के बीच जाता हूं, आवाजें मेरे कान में गूंजती हैं और मेरे सिर में दर्द शुरू हो जाता है. मैंने कई डॉक्टरों को दिखा डाला, लेकिन ये सिर दर्द जाने का नाम नहीं लेता था. एंजाइटी के बारे में इतना अवेयर नहीं था. मैंने ऊपर जिन दोस्तों के बारे में बताया, उन्हीं में से एक दोस्त थी मेरी, उससे बातचीत ज्यादा होने लगी. वो सारी बातें जानती थी या यूं कहें कि मुझे पूरा समझती थी. ये सिरदर्द, अकेलापन, फियर, घबराहट सब मुझे भीतर ही भीतर जैसे तोड़ रहे थे. मैं और ज्यादा इंट्रोवर्ट होता जा रहा था.
इसमें सबसे बुरा ये हुआ कि इसी घुटन के दौर में मेरी दोस्त से मेरी लड़ाई शुरू हो गई. शायद मैं उस पर अपना एंगर निकाल रहा था. उससे मेरी हर छोटी मोटी बात पर लड़ाई होती. मैं खीझ जाता, कुछ कह देता और छोटी सी बात पर लड़ाई भयंकर रूप ले लेती. दूसरी तरफ डर कि अब अगर इससे दोस्ती टूटी तो मैं बहुत ज्यादा अकेला हो जाऊंगा. लड़ाइयां होतीं तो वो मुझे अंदर से अटैक करती थीं. मुझे उस वक्त कन्फर्म हो गया था कि मैं किसी डिप्रेशन की तरफ जा रहा हूं. पहले पहल तो मैंने इसे खुद से हराने की सोची.
मेरे लिए ये ऐसा समय था जिसे आज मैं शब्दों में बयां कर ही नहीं सकता. मेरा दिल जैसे डूबता जा रहा था. हर दिन मेरा दिमाग मुझसे बगावत को तैयार बैठा था. दोनों ही मेरे कमांड अक्सर ठुकरा देते थे. मेरा बस हर वक्त रोने का मन करता था. घबराहट बहुत तेज होती थी और लगता था कि मेरा दिमाग जैसे फट जाएगा. मैं फूट-फूटकर रोता भी. घबराहट मुझे तोड़ना शुरू कर देती. जब ये लक्षण बहुत ज्यादा होने लगे तो मैं पहले लखनऊ फिर अपने गांव आ गया. गांव का शांत माहौल, मिलनसार लोग, परिवार की भीड़ सब था. बस मेरे दिल को सुकून नहीं था. कई बार तो ये हताशा इस कदर हावी होती कि लगता था कि सब तोड़-फोड़ दूं, जला दूं. कई बार एंजाइटी होने पर दौड़ने लगता कि शायद कुछ निजात मिले.
जब आप अपनी मेंटल हेल्थ संबंधी परेशानी किसी से साझा करते हैं तो सबसे पहले आपको सीख मिलती है कि क्या यार, जाओ कहीं घूमकर आओ, सब ठीक हो जाएगा. मोटिवेशनल वीडियो सुनो. यहां मैं अब अपने ये अनुभव भी जरूर बताऊंगा. हुआ ऐसा कि मैंने भी अपने दोस्तों से बात की, बताया तो घूमकर आने की नसीहत मिली. मैंने सोचा कि चलो दिल्ली ही चला जाऊं. वहां डॉक्टर से मिलूंगा.
दिल्ली आकर यहां वहां सब जगह घूमा, एक बार मसूरी भी गया. लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात. फिर मैं यहां अपने एक दोस्त से मिला, जो मेरे साथ पढ़ चुका था. मैंने उससे कहा कि यार मुझे किसी डॉक्टर से मिलवाओ तो उसने बेहद दोस्ताना अंदाज में कहा कि छोड़ो भी चिंता, बस थोड़ी दारू पी लो सब ठीक हो जाएगा. उसने भी मेरी हालत को बहुत सीरियसली नहीं लिया. इसमें उसकी गलती भी नहीं है. अधिकतर लोग दूसरों की इस समस्या को सीरियसली नहीं लेते. इस तरह मेरी डॉक्टर से मुलाकात नहीं हो पाई. दूसरा साइकेट्रिस्ट से मिलने का एक अलग टैबू होता है. लोग पागल समझेंगे. घर वाले क्या सोचेंगे, दवाएं नींद वाली होती हैं आदि आदि.
मैंने पहली बार शराब पी
दोस्त के यहां से लौटकर मैं रात में जब बेड पर था, तभी मेरे साथ बहुत अजीब होने लगा. मेरी एंजाइटी इतनी बढ़ी कि मैं शराब न पीने की वो सारी सीखें भूल गया जो मेरे पिता ने मुझे बचपन से दी थीं. मैंने उससे कहा कि मैं आ रहा हूं मुझे थोड़ी सी शराब ही पिला दो. मैं कुछ देर नॉर्मल रहना चाहता हूं. उसके घर जाते रास्ते भर सोच रहा था कि मैं शराब पीने वालों से कितनी नफरत करता हूं, लेकिन फिर भी मैंने दोस्त के घर जाकर पहली बार शराब भी पी ली. दो पेग पिए और वापस आ गया. इससे मुझे कोई फायदा नहीं दिखा, उल्टा दूसरे दिन एंजाइटी डबल हो गई थी.
यहां से मैं वापस घर लौट आया. ये मेरे डिप्रेशन की जर्नी थी जिसने मुझे एक अजीब इंसान बना दिया था. मुझे खुद पर ही कई बार दया आती थी. हमेशा दूसरों को हंसाने वाला खुशमिजाज लड़का क्या हो गया था. अब तो मुझे माइग्रेन के साथ घबराहट और फिर रात में बीच-बीच में नींद टूटने की समस्या हो रही थी. मैं कैसे भी सो तो जाता लेकिन बीच रात में दो बजे या तीन बजे नींद खुल जाती और मैं फिर से घबराकर कांपने लगता. जागने के बाद वो समय मेरे लिए बहुत डरावना होता था. पता नहीं कैसी कैसी नेगेटिव चीजें दिमाग में आती थीं. घर की बनावट ऐसी है कि नीचे दो रूम हैं. मम्मी-पापा ऊपर रहते हैं. मैं नीचे रूम में रहता था. अब रात में दो बजे दिमाग में पता नहीं कैसे कैसे ख्याल आते. वो सीवियर लेवल के नेगेटिव ख्याल होते और नींद कहीं दूर भाग जाती. मुझे अपने भीतर के उस दौर के अभिलाष के बारे में सोचकर बुरा लगता है जो नींद से डरने लगा था. मैं सोचता था कि अगर सो जाऊंगा और नींद खुल गई तो क्या करूंगा.

किताबें भी काम नहीं आईं
रात में जागने के लिए मैंने किताबें खूब ऑर्डर कर लीं कि रात में पढ़ूंगा. लेकिन किताबें दो पन्ने खोलता, पढ़ नहीं पाता. किताबों का सॉल्यूशन भी समझ नहीं आया. इस बीच मैंने एक बहुत अलग चीज की. दरअसल मम्मी का इलाज देखते देखते मुझे दवाओं के कॉम्बीनेशन पता चल गए थे. इसलिए नींद के लिए मैंने मम्मी की दवाएं लेनी शुरू कर दीं. पहले एक दिन नींद आई, फिर दो चार दिन परेशान रहा तो धीरे धीरे ये डोज बढ़ गई थी.
लेकिन नींद फिर भी नहीं आती थी, जानबूझ कर ओवर डोज किया, पता था कि साइड इफेक्ट है लेकिन मेरे लिए अभी करेंट कंडीशन से निपटना ज्यादा जरूरी था. किसी को कुछ बता नहीं पा रहा था. लग रहा था कि ऐसा कोई है नहीं जो मुझे समझ सके.
डिप्रेशन से लड़ने के लिए आर्टिकल लिखने पर भी वक्त लगाता था. 14 नवंबर को डायबिटीज डे आ रहा था तो मुझे एक मेडिकल हेल्थ वेबसाइट के लिए लिखना था. वहां से मुझे असाइनमेंट मिला कि इस खास दिन पर स्टोरी दो. उसी दिन मेरी अपनी दोस्त से बिना बात की लड़ाई हुई. 13 से लड़ाई शुरू हुई, 14 तक ये लड़ाई बहुत बढ़ने लगी. इतना करने के बाद उस दिन की रात बहुत अजीबोगरीब बीती. अब समझ नहीं आया कि क्या करूं. मेरी एंजाइटी बूस्ट कर रही थी. मुझे लगा कि जीवन कुछ है नहीं, इसे खत्म करना चाहिए.
आत्महत्या का प्लान तैयार किया
मम्मी इंसुलिन पर हैं. तब भी थीं. उन्हें मैं ही इंजेक्शन देता था. उन्हें इंजेक्शन दिया, फिर खाना देकर खुद खाना अपने रूम में लेकर आ गया, जबकि पहले साथ खाता था. अब रात के 10 बज गए, खाने की इच्छा नहीं थी. फिर यही ख्याल आया कि अब बस, कुछ इच्छा नहीं बची. आज खत्म कर लूंगा सब. पता नहीं ये सब क्या था. मैं पैनिक हो रहा था. चेतना थी मुझे उस टाइम. अभी भी याद आ रहा है कि मैं कैसे सोच रहा था. मैं सोच रहा था कि कुछ कर लेता हूं तो मम्मी पापा का क्या होगा. मैं हेल्थ पर लिखता रहा हूं, लोग क्या सोचेंगे कि दूसरों को हेल्दी रहना सिखा रहा था, खुद ही कुछ कर नहीं पाया. अगर आज मर गया तो कल को लोग कैसी-कैसी बातें करेंगे. माता पिता से पुलिस तहकीकात करेगी, वो अकेले हो जाएंगे. कई बातें रोक रही थीं मुझे लेकिन जो दिमाग का एक कोना था वो कह रहा था कि कोई सॉल्यूशन नहीं है अब. तुम्हें कर गुजरना चाहिए. मरने के बाद का मत सोचो, तुम्हारे साथ ही तुम्हारी प्रॉब्लम खत्म हो जाएंगी. मैंने ये सब सोचकर सुसाइड लेटर लिख डाला, जिसमें मां-बाप, समाज के सवालों के भय से निकलने का रास्ता था. मैंने सब लिखा. क्यों मैं ऐसा कर रहा हूं, किसी को मेरे जाने के बाद परेशान न किया जाए जैसी तमाम बातें लिखीं. फिर वो पढ़ पढ़कर रोया, खूब पढ़ा खूब रोया, खूब पढ़ा खूब रोया, फूट फूटकर रोया. पास में दवाओं के खतरनाक कॉम्बीनेशन को तैयार करके जहर तैयार कर लिया था.
अब मन में यह आया कि अगर अभी कुछ करूंगा तो मम्मी परेशान न हो जाएं रात में. इसलिए सुबह चार बजे का अलार्म लगाकर आत्महत्या करने का पूरा प्लान तैयार कर लिया. उससे पहले मैं कुछ घंटे मन को शांत रखना चाहता था. इसलिए नींद की दवा ओवरडोज में खा ली. ये दवा इतनी ज्यादा थी कि इसने मुझे सुला दिया.
फिर सुबह चार बजे का अलार्म बजा और फिर ये बजता ही रहा. मुझे सुनाई ही नहीं दिया. मैं सोता ही रहा. मेरी सुबह 11 बजे नींद खुली. मैं खुद को थोड़ा हल्का महसूस कर रहा था. लेकिन वो रात मेरे मन में एक डरावना सपना बनकर बैठ गई. मैंने सुबह उठते ही सोचा कि नहीं मुझे सुसाइड नहीं करना. मैं बुरी तरह डर गया था. मैंने अब रात में सोने से पहले डबल डोज दवाएं लेनी शुरू की. अब एंजाइटी के साथ गिल्ट वाली भावना भर गई थी. मुझे समझ आ रहा था कि मैं डिप्रेशन में हूं, और अब इसका कोई सलूशन नहीं है.
हर हालात से लड़ सकता है इंसान
लेकिन अब मुझे समझ आ गया था कि न मैं खुद, न घूमना फिरना, न शराब, न मोटिवेशनल स्पीकर और न ओवरडोज दवाएं किसी से कुछ नहीं होगा. अब मुझे हेल्प की जरूरत है. मैंने फोन के जरिये भोपाल के मनोचिकित्सक डॉ सत्यकांत त्रिवेदी जिनका मैं इंटरव्यू ले चुका था, से बात की और उनको अपनी प्रॉब्लम बताई. उनसे बात करते हुए भी लग रहा था कि ये क्या सोचेंगे, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. डॉक्टर ने इसे मेंटल हेल्थ एमरजेंसी कहा. उन्होंने सबसे पहले मेरी ऑनलाइन काउंसिलिंग की. फिर मैं मनोवैज्ञानिक डॉ विधि पिलियानी से मिला. डॉ सत्यकांत की सलाह पर दवाओं और डिसऑर्डर की स्वीकार्यता बढ़ाने के उद्देश्य से मैंने दूसरे साइकेट्रिस्ट को भी दिखाया. उसके बाद डॉ. सत्यकांत त्रिवेदी ने सेकंड ओपिनियन भी लिया और अब मेरी दवाएं और काउंसलिंग शुरू हो चुकी थी.
कॉग्निटिव बिहेविहरिल थेरेपी से भी मैं बहुत कुछ सीख रहा था. समय बीतते बीतते बहुत कुछ बदलने लगा था, लोगों से मिलना जुलना नॉर्मल हो रहा था. मुझे अब नींद आने लगी थी. लाइफस्टाइल से लेकर सोचने के ढंग में करेक्शन कर रहा था. जैसे मुझे डॉ विधि ने बताया कि अपने आधे रूम को जिम बना लिजिए, जब भी नींद खुले आप एक्सरसाइज शुरू कर दें, उस वक्त एनर्जी अच्छी होती है. मैं ऐसे ही करता था, खूब सारे डंबल मंगा लिए थे.
नवंबर से शुरू डॉ सत्यकांत से प्रिस्क्राइब दवाओं का जनवरी में असर दिखने लगा था. मार्च में होली आते आते बहुत कंट्रोल हो गया था. अपने मन में जीवनपर्यंत दवाएं चलने की बात की जगह मुझे पता चल चुका था कि असल में ये दवाएं जीवनरक्षक होती हैं. इन पर इतना सोचना नहीं चाहिए. इन दवाओं को डॉक्टर शुरू करते हैं तो डॉक्टर ही इन्हें धीरे-धीरे कम करके आपको बाहर भी निकाल देते हैं. आज तीन साल बाद मैं कह सकता हूं कि आज मैं बिल्कुल फिट हूं.
मेरे बारे में पढ़ते हुए कोई सोच सकता है कि ऐसे तो बहुत से लोग बाहर आए हैं पर अभिलाष ही क्यों? सहानुभूति या कोई और वजह है. नहीं, मेरी प्रेरणा का श्रोत विराट कोहली हैं, जिन्होंने अपनी बात रखी बिना ये सोचे कि उन्हें कोई जज करेगा. तभी मुझे लगा कि मुझे भी अपनी कहानी बतानी चाहिए. एंजाइटी-डिप्रेशन-सुसाइडल थॉट्स आने के पीछे हालात को दोष नहीं दे सकते. इंसान मानसिक रूप से स्वस्थ हो तो वो हर हालात से लड़ सकता है, लेकिन अगर मेंटल हेल्थ की समस्या हो तो उसे हालात ही प्रॉब्लम लगते हैं.
मैं ये सब इसलिए बता रहा हूं कि अगर आप इस समस्या को जल्दी पहचान लेते हैं तो डॉक्टर से जल्दी मिल लेते हैं. ऐसे मामलों में डॉक्टर से मिलने में लोग आमतौर पर लेट कर देते हैं. इसके बाद दवाओं के मामले में भी डॉक्टर के ऊपर भरोसा जरूरी है.
इस दौर ने मुझे बहुत कुछ सिखाया
मैं अपने आपको प्रिविलेज मानता हूं कि मैं इस दौर से गुजरा हूं. इस दौर में मैं बहुत सेंसिटिव बना. अपने खाली वक्त के दौरान एक्टिविटी के तौर पर मैंने खुद के ऑडियो रिकॉर्ड किए. जब मैं अपने ऑडियो सोशल मीडिया पर शेयर करता तो लोग मुझसे कनेक्ट होते थे. ये मुझे नींद न आने के दौर की बात है.
ठीक होने के तीन साल मैंने एक बड़े न्यूजपेपर ग्रुप में नौकरी शुरू की. यहां होने वाले मनोवैज्ञानिक टेस्ट में मैं स्वस्थ था, और मुस्कुरा रहा था.