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मैं 35 की उम्र में कदम रख चुकी हूं और अब समझ पाई हूं कि मोटापा कभी मेरे किसी काम में आड़े नहीं आया. चाहे प्यार करना हो, नौकरी में अच्छा काम करना हो, घूमने-फिरने जाना हो, किसी भी किस्म के कपड़े पहनने हो या फिर खुलकर हंसना हो, मोटापा आड़े नहीं आता, लेकिन जमाना आता है.
मैं एक्सीडेंटल जर्नलिस्ट नहीं बनीं. जर्नलिस्ट होना मैंने खुद चुना. बचपन से मुझे सिर्फ वजन के कारण हीन भावना से भरा गया. मैं लिखकर अपनी बात कहना सीख गई थी. मैं कविताएं लिखने लगी और उनके जरिये अपनी कल्पनाएं बाहर लाने लगी. फिर सोचा कि आगे की जिंदगी लिखने-पढ़ने में ही बिताऊंगी. इस पेशे में आई तो सोचकर आई कि मैं यहां ऐसे लोगों के बारे में लिख सकूंगी जो मेरी तरह किसी न किसी कारण से हर कदम पर जज किए जाते हैं. आज मैं सामाजिक पहलुओं पर लिखकर वो कर पा रही हूं. यह करके मेरे दिल को सुकून तो मिलता ही है, दिल कॉन्फीडेंस से लबरेज भी हो जाता है.
मोटापे को लेकर मैंने जो झेला वो किसी आम आदमी के लिए महसूस कर पाना भी मुश्किल है. एक वो दौर भी मैंने जिया है जब मैं कैमरे से दूर भागती थी. मुझे अपने शरीर से इस कदर ऑब्सेशन हो गया था कि दिन रात अपने आपको मैंने कोसा तक है. बचपन में गोलमटोल मैं चबी बेबी कही जाती थी, लोग मुझे प्यार करते थे. लेकिन फिर जैसे-जैसे बड़ी हुई, मेरा बढ़ता वेट कब लोगों की आंखों में खटकने लगा, मैं कुछ समझ ही नहीं पाई. कुछ रिश्तेदार तो यहां तक कह देते थे कि मुझे कोई नौकरी नहीं देगा, जिस जॉब में जाओगी, वहां कुर्सियां टूट जाएंगी. ऐसा एक बार हुआ भी था, मैं अपने असाइनमेंट पर थी, वहां मैं जिस कुर्सी पर बैठी वो टूट गई, वो मेरे जॉब की शुरुआत थी. उस वक्त मेरे कानों में वही शब्द गूंज रहे थे. लेकिन वहां जब आसपास देखा तो ऐसा कुछ भी महसूस नहीं कराया गया. जो लोग थे आसपास, उनमें से किसी ने न मजाक बनाया और न हंसे. मेरे दिल से आवाज आई, 'वाह मुझे जज नहीं किया गया' मुझे अहसास हुआ कि यार, ऐसा नहीं है दुनिया में सब ऐसे नहीं हैं.
स्कूल के दिनों की एक बात याद आ रही है जो बहुत चुभी थी. नौवीं कक्षा में जब मैंने स्कूल बदला तो मेरा एक दोस्त पहले से वहां पढ़ता था. मैं नए स्कूल को लेकर बहुत एक्साइटेड थी. वहां जब पहले दिन गई तो मेरे दोस्त ने बताया कि पता है, आज लड़के कह रहे थे कि हमें लग रहा था कि कोई सुंदर लड़की आएगी, लेकिन ये कौन आ गई. मेरे बालमन को ये बात बहुत बुरी लगी थी.
फिर कॉलेज लाइफ के दौर में भी मुझे तमाम एडजेक्टिव्स से नवाजा गया. कुछ दोस्त भी बने हालांकि दूसरे लोगों की तुलना में ये बहुत कम थे. कॉलेज लाइफ के दौरान मुझे पढ़ने और सिनेमा देखने का शौक था लेकिन उसे देखकर भी मन उदास हो जाता था. हमेशा सोचती थी कि फिल्मों या साहित्य में ऐसी फीमेल कैरेक्टर नहीं मिलतीं जो ओवरवेट हों. मोटापे से इतनी एलर्जी है सबको. मैं ये सारे रिस्पांस देखती थी. पर्सनल लाइफ की हालत तो लंबे समय तक ऐसी रही कि पूछो मत. मैंने डाइटिंग की हद तक पार की. कई-कई दिन तक बहुत कम खाए रही लेकिन एक इंच भी कम नहीं होता था.
मेरे अंदर ये भूत नौवीं क्लास में घुसा था जब मैंने न्यूट्रिशन सप्लीमेंट लेने शुरू किए. मैं नौवीं क्लास में एक शेक लेती थी, जिसे पीकर सोने को कहा गया था. लेकिन उससे मेरा पेट भरता नहीं था. उसके बाद खाना भी खा लेती थी. अभी लॉकडाउन से पहले तक मैं 15 जिम ज्वाइन कर चुकी थी. लेकिन एक बात मैं कह सकती हूं कि मुझे कभी जिम ज्वाइन करके खुशी नहीं मिली. वैसे मुझे डांस करना पसंद है, घूमना पसंद है, पर जिम ज्वाइन करके मुझे पल भर भी खुशी नहीं हुई. मैं अब तक अपनी खुशी के खिलाफ पैसा खर्च करती रही. कैसे सिंगल मदर ने मुझे और मेरे भाई को पाला और उनकी अर्निंग का बड़ा हिस्सा इसमें खर्च किया. वैसे मम्मी ने हमेशा सपोर्ट किया. मुझसे कहती थीं कि अपने हिसाब से अपनी लाइफ जियो किसी की मत सुनो. मेरी फैमिली में भी ज्यादातर लोग ओवरवेट नहीं हैं, जो हैं भी वो मेरी तरह नहीं हैं. मैंने चेक कराया तो पता चला कि मेटाबोलिज्म लो है, इसके अलावा मेरी फैमिली में बुआ हेल्दी थीं तो ये जेनेटिक है. उस पर मुझे खाने पीने का शौक है, मनभर कर खाना बहुत पसंद है. इस तरह मेरी जर्नी में मैं अपने शरीर का वजन सालो-साल अपने मासूम दिल पर लेकर चलती रही.
लेकिन, फिर 30 साल की उम्र तक मैंने अपने शरीर को एक्सेप्ट करना सीख लिया. 32 की होते होते भी कई चीजें बदल गईं. जॉब ने मुझे खुद को एक्सेप्ट करने में मदद की. वर्क प्लेस मेरे लिए सेंक्चुरी जैसा बन गया जहां मुझे लगा कि यहां लोग मेरा काम देखते हैं, कोई मुझे जज नहीं करता.
फिर 32 की उम्र में ही एक बहुत बड़ी मदद मेरी डेटिंग साइट्स ने की. जब मैंने ऑनलाइन डेटिंग ट्राई की तो मुझे कई बहुत अच्छे लोग मिले. जिनके लिए बॉडी बिल्ड मायने नहीं रखती थी. मेरा लोगों ने हौसला बढ़ाया. मैंने अपने बारे में क्यूट और स्वीट जैसे कॉम्प्लीमेंट सुने. अब जब पहली बार मैंने किसी के मुंह से अपने लिए ब्यूटीफुल सुना तो खुद को गौर से आईने में देखा. मुझे धीरे धीरे अहसास हुआ कि हां मैं भी तो सुंदर हूं. आजतक मैं खुद से ऐसे क्यों नहीं मिली. मेरी सोच एकदम बदलने लगी. मैं हर आउटफिट पहनने लगी और खुद को और सुंदर महसूस करती. मैंने तब जाना कि लोगों के साथ साथ मैं भी तो खुद को जज कर रही थी. सुंदरता आपके अपने कॉन्फीडेंट होने पर होती है. ऐसा नहीं है कि मैं पतला होने को खराब मानती हूं, लेकिन अगर आप पतले नहीं हो सकते तो अपने आपको वैसे ही एक्सेप्ट तो कर सकते हैं. खुद को प्यार तो कर सकते हैं. इसका क्या मतलब कि जब ऐसी हो जाऊंगी तब घूमने जाऊंगी, जब पतली हो जाऊंगी तब वेस्टर्न पहनूंगी. मुझे भी लोगों ने कपड़ों को लेकर इतना टोका कि तुम साड़ी न पहनो वरना मोटी एजेड लगोगी, बिकिनी पहनोगी तो मोटी कमर और टांगें कैसी दिखेंगी.
ड्रेसेज की बात आई तो मैं एक बात और शेयर कर रही हूं. एक वक्त तक मैं सलवार सूट ही पहनती थी और किसी के साथ रिलेशनशिप में आ गई थी, मुझे लगता था कि वो मुझे एकदम जज नहीं करता था लेकिन वो रिलेशन वाकई टॉक्सिक निकला. हुआ यूं कि मैंने जब पहली बार जींस पहनी तो मुझे ऑफिस और सब जगह काफी तारीफ मिली थी. मैं अपने ब्वॉयफ्रेंड से भी जींस पहनकर मिलने चली गई. लेकिन उसका रिऐक्शन बहुत अजीब था. उसने मेरी तुलना दिव्यांगों से करते हुए कहा कि जिसमें कोई कमी होती है तो वो अपनी शारीरिक कमी को कपड़ों से छुपाता है, लेकिन तुम अपना मोटापा दुनिया को दिखाने चली आई. उससे रिलेशन की कई यादें बहुत कड़वी हैं. जैसे एक बार उसका किसी से अफेयर था, मुझे शक था मैंने उससे पूछा तो बताया नहीं. तो मैंने उसी लड़की से पूछ लिया. इस पर वो इतना नाराज हो गया और बोला कि तुम्हें क्यों शक होता है क्योंकि मोटी हो इसलिए. उसने मेरे साथ वायलेंस भी किया. मुझे लगा कि मैंने इस इंसान को अपनी लाइफ का इतना वक्त दिया. लेकिन इसने भी मुझे वैसे ही जज कर लिया जैसे दुनिया फर्स्ट टाइम मिलने पर करती है. मेरे लिए वो ब्रेक अप बिना किसी मलाल के हुआ. मेरा मन बहुत मजबूत हो गया था.
मैं अब सोचने लगी थी कि क्या मोटापे के अलावा इन लोगों को मुझमें कोई और बात नहीं दिखती. माना मोटापा मेरी जिंदगी का एक पहलू है, लेकिन मेरे जीवन के और भी पहलू हैं. इन लोगों के मन पर मेरा शरीर ही असर डालता है, जबकि शरीर मन से अलग है. हम जब दूसरों को प्यार करते हैं तो ये नहीं देखते कि हमारा शरीर कैसा है. फिर भी दुनिया आपको ऐसा ही फील कराती है.
वो देखो.....
जैसे मुझे शादियों-पार्टियों में जाना बहुत ज्यादा पसंद है, लेकिन मैं जानबूझकर नहीं जा पाती. मुझे पता है कि मैं वहां खुश होने के लिए जाऊंगी लेकिन वहां सब इतना परेशान कर देंगे. घूरेंगे-हंसेंगे या परिचित हुए तो सलाह देने लग जाएंगे. समाज में बच्चों तक के मन में यही सब भर दिया जाता है. जैसे साथ के बच्चे चिढ़ा दें तो चिढ़ा दें, लेकिन कई बार मुझे इतना बुरा लगा कि मैं निकल रही हूं और सड़क पर स्कूली बच्चों का रिक्शा जा रहा हो तो बच्चे बोल देंगे कि देखो वो जा रही है कितनी मोटी कितनी काली वगैरह वगैरह. हम अपने बच्चों को बचपन से ही बॉडी शेमिंग सिखा देते हैं.
पढ़े-लिखे भी पीछे नहीं हैं
सिर्फ बच्चे तो बच्चे लोग बहुत पढ़-लिखकर भी बॉडी से आगे दिमाग की सोच तक पहुंच नहीं पाते. एक शादी का वाकया बताऊं कि मेरी मम्मी को एक ने सलाह दी कि आप इसकी बेरियाट्रिक सर्जरी कराकर चर्बी निकलवा दो. बताइए जिसके इतने साइड इफेक्ट हैं और वो डॉक्टर होकर ऐसी सलाह दे रहे हैं. उनसे कोई पूछे कि क्या आपको लगता है कि मोटापा अगर मुझे मंजूर है तो क्या आपके लिए मेरा शरीर इतना बड़ी समस्या है कि मैं एक कठिन सर्जरी से गुजरूं. कम ऑन! जीने दो यार. मुझे कोई शुगर और थायरायड जैसी बीमारी नहीं है. डाइजेस्टिव सिस्टम भी अच्छा है फिर भी जरा सा घुलते मिलते ही हर कोई मुझे थायराइड चेक कराने की सलाह देता है. मैं अपनी बात लिखकर सब तक इसलिए पहुंचाने की सोचती हूं ताकि मेरे बारे में जानकर दूसरे लोग जो मोटे या पतले, लंबे या कम हाइट या किसी भी तरह अलग दिखने वाले अपने शरीर को स्वीकार नहीं कर पाते, वो ये समझें कि आपके शरीर को आपको स्वीकार करना है, दुनिया को नहीं.