मीडिया के एक सवाल पर जवाब देकर उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा माफिया अभी ठीक से मुंह तक बंद नहीं कर सका था कि एक विदेशी बंदूक उसकी कनपटी के नजदीक आती है और उससे निकलती एक गर्म गोली सीधे सिर में जा धंसती है. यह सब, चंद सेकंड्स में घट जाता है. हाथों में कैमरा लिए मौके पर मौजूद मीडिया के साथी इससे पहले कि कुछ समझते तब तक गोलियों की ताबड़तोड़ ताड़-ताड़ की आवाज़ें आना शुरू हो जाती हैं और यह पूरा हत्याकांड वहां मौजूद कैमरों में कैद हो जाता है.
कुछ ही देर में टेलीविजन से लेकर मोबाइल पर खबर फ्लैश होती है, 'प्रयागराज में अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ की गोली मारकर हत्या.' यह यूपी ही नहीं पूरे देश के लिए सबसे बड़ी खबर थी. पुलिस की कड़ी सुरक्षा में अतीक और उसके भाई अशरफ की हत्या, अब मोहल्ले की बातचीत से लेकर न्यूज़ चैनल्स के डिबेट शो तक... सबसे बड़ा मुद्दा बन चुकी है. हर किसी के मन में यही सवाल है कि इस हत्याकांड को आखिर किसके इशारे पर अंजाम दिया गया?
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आतंक के जिस साम्राज्य को बनाने में अतीक को 44 साल लग गए उसे ख़त्म होने में पूरा एक मिनट भी नहीं लगा. महज 30 सेकेंड के अंदर 8 गोलियां अतीक के बदन में धंस चुकी थीं. तो वहीं हथकड़ी में साथ बंधे अतीक के भाई अशरफ को पांच गोलियों ने मौत की नींद सुला दिया. 15 अप्रैल की देर शाम एक ऐसे हत्याकांड को अंजाम दिया गया जिसे कोई सपने में भी नहीं सोच सकता था. हालांकि अतीक इस बात को लेकर कई बार अंदेशा जाता चुका था कि उसे गुजरात से यूपी लेकर तो जा रहे हैं, लेकिन वहां उसकी हत्या हो सकती है. अतीक के इन अंदेशों पर मुहर लग चुकी है. अतीक मर चुका है. लेकिन यह कहानी इतनी नहीं है.
अतीक को जानने के लिए हमें समय के पहिये को पीछे की तरफ धकेलना होगा और उस दौर में पहुंचना होगा जब 17 साल के एक लड़के के अपराधी बनने की पटकथा लिखी जा रही थी. कैसे पढ़ाई से जी चुराता एक लड़का जुर्म की दुनिया में ऐसा दाखिल हुआ कि कभी लौट नहीं सका. अतीक की कहानी जानने से पहले हमें उस नाम को भी जानना होगा जिसने अतीक अहमद को जुर्म की दुनिया का नया सरताज बना दिया. वो नाम था- शौक-ए-इलाही यानी कि चांद बाबा.
बात नवंबर 1984 की है, इलाहाबाद इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कानून और प्रशासनिक अव्यवस्था से जूझ रहा था. इसी दौर में शहर के चौक इलाके में एक बाबा की हत्या कर दी जाती है. बाबा, नीम-हकीम बताए जाते थे. चांद नाम के एक लड़के ने अपने भाई की मौत का बदला लेने के लिए बाबा को मौत के घाट उतार दिया था. 84 के उस दौर में पहले से ही राजनीतिक हलचल मची हुई थी, ऐसे में इस हत्याकांड की वजह से पुलिस के हाथ पांव और फूल गए. लिहाजा सभी तंत्र भिड़ा कर बाबा की हत्या करने वाले चांद को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और नैनी जेल भेज दिया.
लेकिन ये कहानी अभी ख़त्म नहीं हुई थी, चांद कुछ समय बाद जमानत पर जेल से बाहर आ गया और चौक के ही ठठेरी बाजार में अपने भाई के दोस्त का भी काम तमाम कर दिया. यह हमला बम से किया गया था. इसके ठीक बाद चांद ने एक वकील को पैसे के लेन-देन के चक्कर में बम से उड़ा दिया. इलाहाबाद एक नए गैंगस्टर का गवाह बन चुका था. एक नया लड़का जो अपने विरोधियों को बम से उड़ा देता था. चांद ने बैक-टू-बैक तीन मर्डर किये तो वो जुर्म की दुनिया में नया लीडर मान लिया गया. चांद का पहला शिकार एक बाबा था तो चांद को नया नाम भी उसी से जोड़ कर मिला, 'चांद बाबा'.
चांद बाबा की कहानी किसी फ़िल्मी किरदार से कम नहीं रही, चांद जितना खूंखार अपराधी के तौर पर दर्ज हुआ उतना ही उसकी रहमदिली के चर्चे भी रहे. आज भी अगर इलाहाबाद (प्रयागराज) के सब्जी मंडी मोहल्ले में घूम कर उसके किस्से सुने जाएं तो लोग उसे रॉबिनहुड बताने से नहीं चूकते. चांद बाबा का उदार व्यक्तित्व भी उतना ही चर्चा में रहा. स्थानीय लोगों से सुने गए किस्सों में एक किस्सा यह भी है कि चांद बाबा ने रानी मंडी, चौक में एक वैश्यालय को इलाके में रहने वाले लोगों के निवेदन पर खाली करवा दिया था. जिसके बाद तो जैसे पुलिस की नजर में अपराधी चांद बाबा, लोगों की नजर में एक आइकॉन बनता चला गया.
इतनी लोकप्रियता के चलते चांद को राजनीतिक संरक्षण भी हासिल हुआ. जुर्म की दुनिया में घुसे एक लड़के के घर अब पॉलिटिकल चेहरों का आना जाना लगा रहता था. इसी बीच जून, 1988 में चौक कोतवाली में एक नए कोतवाल नवरंग सिंह ने चार्ज लेते ही चांद बाबा को गिरफ्तार करने का फैसला किया. पूरी प्लानिंग की गई कि कैसे इलाहाबाद के खूंखार गैंगस्टर को सलाखों के पीछे लाया जाएगा. बिना किसी को भनक लगे, नवरंग सिंह ने चौक इलाके की घेराबंदी कर दी. लेकिन चांद बाबा इस घेरे को तोड़ने में कामयाब रहा.
पुलिस की इस हरकत से चांद बाबा बौखला उठा और घेरा तोड़कर निकलते ही उसी रात उसने कोतवाली पर हमला कर दिया. चांद बाबा ने गुस्से में कोतवाली पर बमों की झड़ी लगा दी. कहा जाता है कि वो रात लोग कई सालों तक नहीं भूले, फटते बमों का इतना शोर कि पूरी रात कोई सो तक नहीं सका. यही चांद बाबा की एक खासियत थी और एक पहचान भी कि वो एक बमबाज भी था, ऐसा बमबाज कि वो कभी भी कहीं भी बम बना लेता था. एक बार जेल में जब जेल अधीक्षक ने चांद की किसी मांग पर असहमति जताई तो उसने जेल में ही देसी बम बनाकर अधीक्षक पर हमला कर दिया. हालांकि इस हमले में जेल अधीक्षक बच गए थे.
बहरहाल, साल 1988 में जब कोतवाली कांड हुआ तो उसके बाद चांद बाबा ने अपने साथियों की सलाह मशविरा पर सरेंडर कर दिया. और नैनी जेल से ही निगम चुनाव में अपनी दावेदारी पेश कर दी. यह ऐसी दावेदारी थी जिसे जीत भी हासिल हुई. चांद बाबा, चुनाव जीतने के बाद जेल से बाहर आया और उस दिन वो अतीक अहमद की एक खुली जीप पर सवार हुआ. अतीक और चांद बाबा एक साथ उस दिन देखे गए. जेल से सब्जी मंडी तक ऐसा भव्य रोड शो कि देखने वाले गाड़ियां ही गिनते रह गए.
इस रोड शो के बाद माना जाने लगा कि अतीक और चांद बाबा एक साथ हैं, हमराज हैं, जुर्म की दुनिया से लेकर आम जीवन में भी अच्छे साथी हैं. लेकिन ये भ्रम भी टूटने में बहुत दिन नहीं लगे. एक साल के अंदर ही इलाहाबाद ने एक बार फिर ऐसा गैंगवार देखा जिसने जिले को एक नया बॉस दे दिया, जिसका नाम था अतीक अहमद. वही अतीक अहमद जो एक समय बाद विधायक और विधायक से सांसद तक बना. तमाम आरोपों के बीच लोकतंत्र के मंदिर तक पहुंचने के सफर में अतीक के साथ कई किरदार और कई कहानियां जुड़ीं.
गरीब परिवार में जन्म लेने के बाद गरीबी से पीछा छुड़ाने के लिए शुरू हुई एक लड़के की दास्तान अपराध की दुनिया जुड़ गई. कौन जानता था कि हाईस्कूल में फेल होने के बाद अपने पिता से डांट खाता हुआ लड़का एकदिन ऐसा सिक्का जमाएगा कि उसके आगे किसी की बोली नहीं निकल सकेगी. अतीक के घर की हालत की बात करें तो उसके पिता तांगा चलाकर परिवार पाल रहे थे. 10 अगस्त 1962 को फिरोज़ अहमद के घर जन्मा अतीक महत्वाकांक्षाओं को लेकर बड़ा हुआ, जो एक उम्र तक आते-आते किसी भी सूरत में गरीबी से पीछा छुड़ाना चाहता था. जिसके लिए वो कुछ भी कर सकता था, कुछ भी का मतलब कुछ भी... लूट, अपहरण से लेकर रंगदारी वसूलने तक सब कुछ. इस सब के बीच अचानक अतीक का नाम एक हत्या में शामिल हो जाता है.
छोटे मोटे अपराध के साथ बड़ा होने वाला अतीक 17 साल की उम्र तक आते आते पुलिस की वांटेड लिस्ट में शुमार हो चुका था. जैसे-जैसे अतीक की उम्र बढ़ती गई, उसके क्राइम का ग्राफ दोगुनी रफ़्तार से बढ़ता चला गया. और एक समय बाद अतीक के नाम हत्याओं के आरोप बढ़ते चले गए. जिसमें साल 2002 में नेस्सन की हत्या और 2004 में बीजेपी नेता मुरली मनोहर जोशी के करीबी अशरफ का मर्डर का आरोप भी शामिल हुआ.
राजनीति की दुनिया से मिलने वाले संरक्षण ने अतीक को और बेख़ौफ़ बना दिया था. जिसमें बड़े कारोबारी और पूर्व केंद्रीय मंत्री शेरवानी का नाम अतीक के शुरुआती संरक्षकों में लिया जाता है. इन्हीं सब की मदद से अतीक स्क्रेप का ठेकेदार बन गया और ऐसे धंधे में पहुंच गया जो सफेदपोश करते हैं. राजनीतिक संरक्षण के नाते अतीक ने बहुत जल्द स्क्रेप ठेकेदारी में एकाधिकार कर लिया. अतीक की गुंडई तो चल रही थी साथ ही अब ठेकेदारी से भी पैसे बरसने लगे. ये वही वक्त था जब अतीक बखूबी समझ चुका था कि अपराध की दुनिया में उसके दोस्त कम और दुश्मन ज्यादा हैं. ऐसे में अतीक ने खुद को बचाए रखने के लिए माफिया से नेता बनने का फैसला लिया.
राजनीति में अतीक की एंट्री भी किसी फिल्म की स्क्रिप्ट जैसी ही रही. कहा जाता है कि उसने चांद बाबा से 1989 के विधानसभा चुनाव में अपनी दावेदारी की इच्छा जताई थी. जिसका चांद बाबा ने समर्थन कर अतीक को आगे बढ़ने के लिए कहा. लेकिन राजनीति तो राजनीति है, चांद बाबा किसी उकसावे में आ गया और उसने भी उसी इलाहाबाद पश्चिम सीट से पर्चा भर दिया जहां से अतीक ने बतौर निर्दलीय प्रत्याशी अपनी दावेदारी रखी थी.
अब एक म्यान में दो तलवार कैसे रह सकती थीं, जिस चकिया से पूरे इलाहाबाद में चांद बाबा अपना साम्राज्य चला रहा था, उसी चांद बाबा की कुर्सी पर अतीक ने गिद्ध की तरह अपनी नजरें गड़ा दी. अतीक ने खुद को चांद बाबा के बराबर खड़ा कर लिया.
माहौल गर्म हो चुका था, कभी एक खुली जीप में साथ दिखने वाले और अतीक और चांद बाबा अब एक दूसरे की जान के दुश्मन थे. हालात ऐसे बन चुके थे कि जिस भी दिन दोनों आमने सामने होंगे उस दिन शायद कोई एक ही बचे, और ऐसा ही हुआ भी. 6 नवंबर 1989 के दिन अतीक अपने गुर्गों के साथ रौशन बाग इलाके में एक चाय की टपरी पर बैठा था. तभी वहां चांद बाबा अपने साथियों के साथ पहुंचा और रौशन बाग एक भीषण गैंगवार का गवाह बना.
यह गैंगवार किसी फ़िल्मी सीन से कम नहीं था. होठों में दबी सिगरेट को जमीन पर फेंक कर जूते से मसलते एक गुर्गे ने मारो की आवाज़ दी तो यूं लगा मानो किसी डायरेक्टर ने एक्शन कह दिया हो. असलहों के साथ एक दूसरे के पीछे भागते लोग... उन्हें देखकर चीखते हुए लोग. अफरातफरी का माहौल और इसी तस्वीर के बीच उड़ती धूल में आमने समाने खड़े अतीक और चांद बाबा. गोलियां और बम की आवाज़ के बीच चांद बाबा ढेर हो चुका था. अतीक पर चांद की हत्या का आरोप लगा. लेकिन इस गैंगवार में चांद की टीम में शामिल इस्लाम नाटे, जग्गा और अख्तर कालिया बच गए. हालांकि ये लोग भी अपनी जान बहुत दिन तक नहीं बचा सके. पुलिस के साथ एक एनकाउंटर में इस्लाम नाटे का काम तमाम कर दिया गया. देखते ही देखते अख्तर कालिया और मुंबई भाग चुके जग्गा को इलाहाबाद लाकर निपटा दिया गया.
दूसरी तरफ इस गैंगवार के बाद जब तक पुलिस अतीक पर कोई एक्शन लेती चुनाव के नतीजे आ चुके थे. चांद बाबा की हत्या के बाद जिस अतीक को पुलिस तलाश रही थी वो अब इलाहाबाद पश्चिम सीट से विधायक था. अतीक ने यह चुनाव 25 हजार 909 वोट से जीत लिया था, वहीं शौक-ए-इलाही यानी कि चांद बाबा को सिर्फ 9 हजार 221 वोट मिले थे. अतीक अब कोई गुंडा या अपराधी ही नहीं था, बल्कि वो अब एक विधायक भी बन चुका था. जिसे वहां की जनता ने चुनकर सदन जाने का मौका दिया था. इलाहाबाद के एक चर्चित जवाहर पंडित हत्याकांड को छोड़ दें तो शहर के लगभग सभी अपराधों में अतीक का नाम शामिल होने लगा था. ऐसे में 1979 से लेकर 2023 तक अतीक के खिलाफ 44 साल में 101 केस दर्ज किए गए.
अतीक के राजनीतिक सफ़र को देखें तो 1989 में पहली बार इलाहाबाद (पश्चिमी) विधानसभा सीट से विधायक बने अतीक अहमद ने 1991 और 1993 का चुनाव निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में लड़ा और विधायक भी बना. जिसके बाद 1996 में इसी सीट पर अतीक को समाजवादी पार्टी ने टिकट दे दिया और वह एक बार फिर इसी सीट से विधायक चुना गया. अतीक अहमद ने 1999 में अपना दल का दामन थाम लिया. उसने प्रतापगढ़ से चुनाव लड़ा, लेकिन वह यह चुनाव हार गया. लेकिन 2002 में इसी पार्टी से वह फिर विधायक बन गया. 2003 में जब यूपी में सपा सरकार बनी तो अतीक ने फिर से मुलायम सिंह का हाथ पकड़ लिया. लेकिन 2004 तक आते आते अतीक को लग गया था कि अब केवल विधायक तक सीमित रहने से कुछ फायदा नहीं, अब सांसद होना ही उसका एकमात्र लक्ष्य था.
15 अप्रैल 2023 को अतीक का जो हश्र हुआ उसकी नींव कहीं न कहीं साल 2004 में ही पड़ गई थी. ये वो साल तथा जब अतीक, जवाहरलाल नेहरु की फूलपुर सीट पर समाजवादी पार्टी के टिकट पर लोकसभा का चुनाव जीत गया. दरअसल, अतीक इलाहाबाद की जिस पश्चिमी सीट से विधायक था. वह सीट उसके फूलपुर सीट से सांसद बनने के बाद खाली हो चुकी थी, जिस पर उपचुनाव होना था. इस उपचुनाव में अतीक ने अपने भाई अशरफ को उतार दिया तो दूसरी तरफ बहुजन समाज पार्टी ने राजू पाल को अपना प्रत्याशी बनाया. अशरफ को अपने भाई के दबदबे पर इतना यकीन था कि चाहे जो हो यह चुनाव उसके हाथ से कोई नहीं छीन सकता. दूसरी तरफ अतीक भी यह मान चुका था कि जीत उसके भाई की ही होगी.
लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था, साल 2004 के उपचुनाव के नतीजे अतीक की उम्मीद के उलट थे. अतीक-अशरफ के दंभ को राजू पाल ने मिट्टी में मिला दिया था. माना जाता है कि उपचुनाव में मिलने वाली हार को अतीक ने अपने अस्तित्व पर उठती अंगुली के तौर पर ले लिया था.
उपचुनाव में जीत दर्ज कर पहली बार विधायक बने राजू पाल की कुछ महीने बाद 25 जनवरी, 2005 को दिनदहाड़े गोली मारकर हत्या कर दी जाती है. इस हत्याकांड में सीधे तौर पर सांसद अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ को आरोपी बनाया गया था. हालांकि हत्याकांड के अगले ही दिन 26 जनवरी को आजतक के साथ हुए एक इंटरव्यू में अतीक ने राजू पाल को लेकर अपने ऊपर लगने वाले सभी आरोपों को खारिज कर दिया था. अपने बयान में उसने कहा कि राजू पर कुछ समय पहले उनके गांव में भी हमला हुआ था. किसी के कहने से यह साबित नहीं हो जाता कि इस सब में (राजू पाल हत्याकांड) में मेरा हाथ है. ये सब मेरी छवि को खराब करने के लिए कहा जा रहा है.
समय का पहिया आगे बढ़ा और 5 जुलाई, 2007 को राजू पाल हत्याकांड के गवाह रहे उमेश पाल ने अतीक के खिलाफ घूमनगंज थाने में अपहरण और जबरन बयान दिलाने का मुकदमा दर्ज करा दिया. इतना ही नहीं दो महीने के अंदर ही अतीक के खिलाफ इलाहाबाद में 9, कौशाम्बी और चित्रकूट में एक-एक मुकदमा दर्ज करवा दिया गया. ऐसे में यह भी माना जाता है कि यूपी में मायावती की सरकार बनते ही अतीक अहमद की उल्टी गिनती शुरू हो गई थी. वहीं अतीक भी खुद को मायावती से जान का खतरा तक बता चुका था
इसको लेकर एक कहानी यह भी है कि साल 2002 में अतीक को किसी मामले में पुलिस ने गिरफ्तार कर जेल भेज दिया. यह वो दौर था जब यूपी में मायावती की सरकार थी. ऐसे में 8 अगस्त को जब पुलिस अतीक को कोर्ट लेकर जा रही थी, तब उसपर गोलियों और बम से हमला किया गया. जिसमें अतीक को कुछ चोट आई, लेकिन उसकी जान बच गई. तब अतीक ने बसपा सुप्रीमो और तत्कालीन सीएम पर आरोप लगाया था कि मायावती उसको मरवाना चाहती हैं. इस सब की वजह वह यूपी के सबसे प्रचलित गेस्ट हॉउस कांड बताता रहा, जिसमें मायावती पर हमला हुआ था. इस हमले में अतीक का नाम भी शामिल था.
लेकिन थोड़ा ही ऊपर जिस नींव की हम बात कर रहे थे, वो यह है कि जब साल 2005 में राजू पाल की हत्या हुई तो उस हत्या का एकमात्र गवाह उमेश पाल रहा. और उसकी भी इसी साल यानी कि 2023 में फ़रवरी के महीने में दिनदहाड़े प्रयागराज के धूमनगंज इलाके में हत्या कर दी जाती है. ये पूरा हत्याकांड भी एकदम फ़िल्मी तरीके से अंजाम दिया गया. और आरोप गुजरात की साबरमती जेल में बंद अतीक पर लगा.
24 फरवरी को दिन रोज की तरह ही बीत रहा था, धूमनगंज इलाके में रोज की तरह दुकानों के शटर खुल चुके थे तो सब्जियों के ठेले भी सड़कों पर अपने ग्राहकों को तलाश रहे थे, तभी अचानक गोलियों और बम की आवाज़ें आना शुरू हो जाती है. चारों तरफ भागम-भाग, हर कोई अपनी जान बचाने को इधर से उधर दौड़ रहा होता है, लेकिन इस शूटआउट में बदमाशों की गोलियों का निशाना तो कोई और ही था. और वो था राजू पाल के मर्डर में इकलौता गवाह उमेश पाल.
यह पूरा हत्याकांड इलाके में लगे सीसीटीवी में कैद हो जाता है. फुटेज में साफ देखा जा सकता है कि कैसे चारों ओर से शूटर्स ने उमेश पाल और उनके दो गनर्स पर ताबड़तोड़ गोलियां बरसा दीं. बम तो इस कदर फेंके गए कि इलाका धुआं-धुआं हो गया. प्रयागराज एक बार फिर बम-और गोलियों के आतंक से सहम चुका था. ऐसे में पुलिस किसी भी सूरत में उस शूटआउट में दिखने वालों को खोजने में जुट गई.
दूसरी तरफ स्पेशल टास्क फ़ोर्स ने अपनी कार्रवाई शुरू कर दी. उमेश पाल की हत्या के सिर्फ तीन दिन बाद यानी कि 27 फरवरी को अतीक के ड्राईवर अरबाज का एनकाउंटर होता है, इसके ठीक पांचवे दिन दूसरे आरोपी शूटर उस्मान चौधरी हो एसटीएफ की टीम मर गिराती है. एसटीएफ की इस कार्रवाई का भले ही अतीक के गुट पर अबतक कोई ख़ास असर ना पड़ा हो, लेकिन स्पेशल टास्क फ़ोर्स की टीम इसी बीच एक ऐसी कार्रवाई को अंजाम देती है जिसके बाद कहीं न कहीं अतीक का किला भरभरा कर गिर जाता है. यह चोट सीधे तौर पर अतीक पर थी, और एसटीएफ के निशाने पर उसका बेटा असद आ चुका था.
13 अप्रैल को एसटीएफ की टीम अतीक के बेटे असद और उसके गुर्गे गुलाम को झांसी में मार गिराती है. हालांकि पुलिस के इस एनकाउंटर पर सवाल भी उठे, विपक्ष ने सरकार को घेरने की पुरजोर कोशिश तक की, लेकिन जब तक इस कार्रवाई पर कोई चर्चा हो पाती तब तक सनसनीखेज तरीके से एक और शूटआउट की खबर सामने आ जाती है.
27 फरवरी: पुलिस ने 27 फरवरी को अतीक अहमद के करीबी अरबाज को ढेर कर दिया था. उमेश पाल की हत्या में शूटरों ने जिस क्रेटा कार का इस्तेमाल किया गया था, उसे अरबाज ही चला रहा था. अरबाज, अतीक अहमद की गाड़ी भी चलाता था. हत्या में जिस क्रेटा कार का इस्तेमाल किया गया था, वह भी अरबाज के घर के बाहर मिली थी.
6 मार्च: प्रयागराज के लालापुर इलाके का रहने वाला विजय चौधरी बाहुबली डॉन अतीक अहमद का कुख्यात शार्प शूटर था. उसने ही उमेश पर सबसे पहले फायरिंग की थी. विजय चौधरी को यूपी पुलिस ने 6 मार्च को प्रयागराज के कौंधियारा में एनकाउंटर में मार गिराया था. विजय चौधरी का नाम शुरुआती एफआईआर में नहीं था.
13 अप्रैल: अतीक के बेटे असद और गुलाम को 13 अप्रैल को झांसी में एनकाउंटर में मार गिराया गया था. दोनों पर उमेश पाल पर फायरिंग का आरोप था. उमेश पाल की हत्या का जो सीसीटीवी फुटेज सामने आया था, उसमें भी दोनों फायरिंग करते नजर आए थे.
एसटीएफ की ताबड़तोड़ कार्रवाई के बाद राजनीति से लेकर सोशल मीडिया तक दो धड़े बंट गए. जिसमें एक तरफ वो लोग थे जो कार्रवाई को सही ठहरा रहे थे तो दूसरी तरफ ऐसे लोग भी थे जो सरकार पर हमलावर रहे और पुलिस के एक्शन पर सवाल उठा रहे थे. 13 अप्रैल को एनकाउंटर में मारे गए असद और गुलाम को 15 अप्रैल को प्रयागराज के एक कब्रिस्तान में दफना दिया गया. अतीक गुहार लगाता रहा कि उसे उसके बेटे के जनाजे में जाने के लिए परमिशन दे दी जाए, लेकिन उसके नसीब में शायद अपने बेटे के जनाजे को देख पाना नहीं लिखा था.
उसी शाम अतीक और उसके भाई अशरफ को प्रयागराज के सरकारी अस्पताल लाया जाता है. दोनों का मेडिकल होना था, ऐसे में मीडिया अतीक का वर्जन लेना चाहती थी कि सुबह उसे उसके बेटे के जनाजे में शामिल नहीं होने दिया गया और अब देर शाम कॉल्विन हॉस्पिटल लाया गया है. एक हथकड़ी में बंधे अतीक और अशरफ पुलिस की गाड़ी से उतरते हैं और उनके सामने मीडिया के दर्जनों कैमरे लग जाते हैं. चारों तरफ पुलिस की घेराबंदी और सामने मीडिया के कैमरे... सबसे पहला सवाल यही पूछा जाता है कि आप अपने बेटे असद के जनाजे में नहीं गए? जिस पर अतीक कहता है कि अब नहीं ले गए तो नहीं गए. वहीं अशरफ, गुड्डू बमबाज को लेकर बस इतना ही कह पाता है, 'मेन बात ये है कि गुड्डू मुस्लिम...'
30 सेकंड के अंदर 18 राउंड गोलियां... इस तरह अतीक के 44 सालों के अपराध की कहानी एक झटके में ख़त्म हो जाती है. 6 नवंबर 1989 को जिस जगह अतीक के गुरु चांद बाबा की गोली मारकर हत्या हुई, उसी रौशन बाग इलाके में 34 साल बाद अतीक भी गोलियों का ही शिकार हो जाता है. पुलिस घेरे में इस दोहरे हत्याकांड को अरुण मौर्या, सनी और लवलेश तिवारी अंजाम दे देते हैं. यह तीनों पत्रकार बनकर पुलिस के काफिले के नजदीक पहुंचे थे. इस पूरे मामले में तीनों शूटर्स का कहना है कि वो अतीक को मारकर बड़े माफिया बनना चाहते थे, इसलिए उन्होंने इस हत्याकांड को अंजाम दिया.
ऐसे में यह सब कुछ ठीक वैसा ही है जैसा कभी अतीक ने चाहा था, या ठीक वैसा जैसा चांद बाबा ने कभी चाहा था, या फिर वैसा जैसा यूपी में कभी श्रीप्रकाश शुक्ला ने तय किया था कि बड़े नाम को शिकार बनाओ और उससे भी बड़ा नाम बन जाओ, फिर पैसा तुम्हारा, सारी शोहरत तुम्हारी और मौक़ा लगा तो राजनीति में भी पांव जमा दिए जाएंगे...
प्रयागराज, जहां हर बारहवें साल कुंभ होता है, जहां हिंदी साहित्य और संगीत के साधक रहे और उनकी तपस्या से इस पुण्य भूमि में हर बार नए-नए फूल खिले, जहां से भारत के स्वतंत्रता संग्राम को नई धार मिली. एक ऐसा शहर जो राजनीति, शिक्षा और साहित्य का केंद्र रहा, उसी संगम नगरी में अतीक अहमद ने अपराध और राजनीति का संगम बनाकर माफियागीरी की नई धारा बहा दी. जुर्म के उसी जाल ने अतीक के पूरे परिवार को तबाह कर दिया.
44 साल पहले गोलियों की आवाज़ से शुरू हुई कहानी 44 साल बाद गोलियों की आवाज़ पर ही ख़त्म हो चुकी है. अतीक और अशरफ अब वहीं दफना दिए गए हैं जहां अतीक के बेटे असद और शूटर गुलाम को दफनाया गया था... बहरहाल, आपको बता दें कि उमेश पाल मर्डर केस में अभी अतीक की पत्नी शाइस्ता के अलावा तीन शूटर अरमान, गुड्डू मुस्लिम और साबिर फरार हैं. तलाश जारी है, जांच जारी है और आरोप प्रत्यारोप का दौर भी जारी ही है.
Report: Akashdeep Shukla
Creative producer: Rahul Gupta
UI developers: Kirti Soni and Mohd Naeem Khan