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क्या सुप्रीम कोर्ट, CJI या जजों पर टिप्पणी करना अपराध है? जानें- क्या कहता है कानून

सरल शब्दों में कहें तो सुप्रीम कोर्ट, भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI), या अन्य जजों पर टिप्पणी करना अपने आप में अपराध नहीं है. संतुलित, तथ्यपरक और सम्मानजनक आलोचना अपराध की श्रेणी में नहीं आती हैं. अब देखना होगा कि समय आने पर निशिकांत दुबे के बयान की कोर्ट व्याख्या कैसे करता है. किन संदर्भों में करता है. इसे न्यायपालिका पर अनर्गल टिप्पणी मानता है अथवा सहज प्रतिक्रिया. 

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निशिकांत दुबे के बयान का मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया है.
निशिकांत दुबे के बयान का मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया है.

बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे की ओर से न्यायपालिका पर की गई टिप्पणी का मामला आज सुप्रीम कोर्ट में आया. सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस बीआर गवई ने याचिकाकर्ता से पूछा कि आप क्या चाहते हैं? इस पर वकील ने कहा, मैं अवमानना ​​का केस दर्ज करवाना चाहता हूं. जस्टिस गवई ने कहा कि आप इसे दाखिल कीजिए. आपको हमारी अनुमति की जरूरत नहीं है. आपको अटॉर्नी जनरल से मंजूरी लेनी होगी.

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अधिवक्ता नरेंद्र मिश्रा की तरफ से चीफ जस्टिस और सुप्रीम कोर्ट के जजों को पत्र लिखा गया था. इस पत्र में निशिकांत दुबे के खिलाफ उचित कार्रवाई की मांग की गई थी. पत्र में कहा गया था कि दुबे की ओर से देश के सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ दिए गए सार्वजनिक बयान अपमानजनक और भड़काऊ हैं. ये बयान झूठे, लापरवाह और दुर्भावनापूर्ण हैं, और ये आपराधिक अवमानना ​​के बराबर हैं.

सवाल उठता है कि क्या सुप्रीम कोर्ट पर या CJI या जजों पर टिप्पणी करना अपराध है? सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर किस दायरे तक कमेंट किया जा सकता है. किसी भी व्यक्ति का कौन सा बयान आलोचना के दायरे में आता है और कौन सा बयान अवमानना की श्रेणी में चला जाता है. सुप्रीम कोर्ट की अवमानना की सजा के लिए क्या सजा है.

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यह सवाल भारतीय लोकतंत्र में न्यायपालिका की गरिमा और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच संतुलन से जुड़ा है. 

बहुत सरल शब्दों में कहें तो सुप्रीम कोर्ट, भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI), या अन्य जजों पर टिप्पणी करना अपने आप में अपराध नहीं है, क्योंकि भारत के संविधान का अनुच्छेद 19(1)(a) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है. हालांकि, इस स्वतंत्रता पर अदालत की अवमानना कानून (Contempt of Courts Act, 1971) के तहत कुछ सीमाएं हैं, जो कोर्ट की गरिमा और न्यायिक प्रक्रिया की अखंडता की रक्षा करती हैं.

इसके अलावा संविधान के अनुच्छेद 19(2) के तहत यह कुछ "यथोचित प्रतिबंधों" का भी प्रावधान है. जैसे कि न्यायपालिका की गरिमा, सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता. इन मुद्दों पर संभलकर बोलने की अपेक्षा की जाती है. 

संतुलित, तथ्यपरक और सम्मानजनक आलोचना अपराध की श्रेणी में नहीं आती हैं. 

लेकिन यदि कोई टिप्पणी कोर्ट की अवमानना (Contempt of Court) के दायरे में आती है, तो यह अपराध माना जा सकता है. निशिकांत दुबे के हालिया बयान, जिसमें उन्होंने सुप्रीम कोर्ट को "धार्मिक युद्ध" भड़काने का जिम्मेदार ठहराया, ने इस मुद्दे को फिर से चर्चा में ला दिया है.

निशिकांत दुबे ने कहा था कि देश में धार्मिक युद्ध भड़काने के लिए सुप्रीम कोर्ट जिम्मेदार है. इससे जुड़ी पूरी खबर आप यहां पढ़ सकते हैं.

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यह भी पढ़ें: 'धार्मिक युद्ध भड़काने के लिए सुप्रीम कोर्ट जिम्मेदार...', निशिकांत दुबे के बयान पर हंगामा, BJP ने किया किनारा

न्यायालय की अवमानना कानून, 1971 भारत में कोर्ट की अवमानना को परिभाषित और नियंत्रित करता है. यह दो प्रकार की अवमानना को मान्यता देता है. 

नागरिक अवमानना: न्यायालय के किसी भी निर्णय, डिक्री, निर्देश, आदेश, रिट अथवा अन्य किसी प्रक्रिया या किसी न्यायालय को दिये गए उपकरण के उल्लंघन के प्रति अवज्ञा को नागरिक अवमानना कहते हैं.

आपराधिक अवमानना: आपराधिक अवमानना का दायरा व्यापक है. इसका मतलब ऐसी टिप्पणियों या कार्य से जो कोर्ट की गरिमा को ठेस पहुंचाते हों या उसे बदनाम करते हों.

न्यायिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप करते हों.

कोर्ट की प्रक्रियाओं को बाधित करते हों.

धारा 2(c) के तहत आपराधिक अवमानना में ऐसी टिप्पणियां शामिल हैं जो कोर्ट की निष्पक्षता पर सवाल उठाएं या उसे अपमानित करे. 

जजों के खिलाफ व्यक्तिगत हमले, जैसे "भ्रष्ट" या "बिकाऊ" कहना, जो उनकी निष्पक्षता को कमजोर करें.

ऐसी टिप्पणियां जो जनता में कोर्ट के प्रति अविश्वास पैदा करें. 

यही नहीं संविधान भी अनुच्छेद 129 के तहत सुप्रीम कोर्ट को अवमानना की सजा देने की शक्ति देता है. 

संविधान का अनुच्छेद 129 सुप्रीम कोर्ट को "कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड" का दर्जा देता है. सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट के अनुसार संविधान के अनुच्छेद 129  और 142 के तहत, उच्चतम न्यायालय को न्यायालय की अवमानना के लिए दंडित करने की शक्ति सहित स्वयं इस न्यायालय की अवमानना के लिए दंडित करने की शक्ति प्रदत्त है. 

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उच्चतम न्यायालय  (क) स्वतः संज्ञान लेते हुए, या (ख) अटॉर्नी जनरल या सॉलिसिटर जनरल द्वारा की गई याचिका पर, या किसी व्यक्ति द्वारा की गई याचिका पर, और आपराधिक अवमानना के मामले में अटॉर्नी जनरल या सॉलिसिटर जनरल की लिखित सहमति से कार्यवाही कर सकता है. 

ये प्रावधान कोर्ट को अपनी स्वतंत्रता और गरिमा की रक्षा करने का अधिकार देते हैं. 

कोई टिप्पणी आपराधिक कब मानी जाती है?

सभी टिप्पणियां अवमानना नहीं मानी जातीं. कोर्ट के फैसलों की तर्कसंगत और सम्मानजनक आलोचना को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत संरक्षित किया जाता है. जैसे किकिसी फैसले के कानूनी आधार पर सवाल उठाना. 

लेकिन यदि किसी की टिप्पणी कोर्ट की गरिमा को ठेस पहुंचाती है, जजों की निष्पक्षता पर व्यक्तिगत हमला करती है, या न्यायिक प्रक्रिया को कमजोर करती है, तो यह अवमानना मानी जा सकती है. 

ये सारा मामला बयान की व्याख्या, उसके संदर्भ, उसकी तीव्रता और मानसिकता का है. 

निशिकांत दुबे ने 19 अप्रैल 2025 को कहा कि सुप्रीम कोर्ट "धार्मिक युद्ध" और "गृह युद्ध" भड़का रहा है, और अगर कोर्ट कानून बनाएगा, तो संसद को बंद कर देना चाहिए. अब देखना होगा कि समय आने पर कोर्ट इस बयान की व्याख्या कैसे करता है. किन संदर्भों में करता है. इसे न्यायपालिका पर अनर्गल टिप्पणी मानता है अथवा सहज प्रतिक्रिया. 

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सजा क्या हो सकती है?

न्यायालय की अवमानना कानून, 1971 की धारा 12 के तहत आपराधिक अवमानना के लिए अधिकतम 6 महीने की साधारण कारावास की सजा का प्रावधान है. इसके अलावा अधिकतम 2,000 रुपये का जुर्माना भी लगाया जा सकता है. या फिर कोर्ट दोनों सजाएं एक साथ दे सकता है.

भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कोर्ट की गरिमा के साथ संतुलित करने की चुनौती रही है. अदालतें ने बार-बार कहती रही हैं कि वह आलोचना के लिए खुला है, लेकिन व्यक्तिगत हमले या संस्थागत अपमान बर्दाश्त नहीं किए जाएंगे. 

निशिकांत दुबे की टिप्पणी राजनीतिक बयानबाजी के दायरे में आ सकती है. हालांकि, ऐसी टिप्पणियां कोर्ट के साथ टकराव का जोखिम पैदा करती हैं. 

अवमानना कानूनों की आलोचना करते हुए भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद की याद दिलाई जाती है. बता दें कि ब्रिटेन में अवमानना कानूनों को समाप्त कर दिया गया है. 

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