विदेश मंत्री डॉ. एस जयशंकर ने हालिया पहलगाम आतंकी हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच पैदा हुई स्थिति को महज दो पड़ोसियों के बीच का टकराव मानने से इनकार किया है. यूरोपीय न्यूज़ साइट Euractiv को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि यह एक वैश्विक आतंकवाद से जुड़ा मुद्दा है, जिससे अंततः पश्चिमी देश भी नहीं बच सकेंगे.
जयशंकर ने कड़े शब्दों में कहा, "मैं आपको कुछ याद दिलाना चाहता हूं कि एक व्यक्ति था ओसामा बिन लादेन. आखिर उसने, बाकी सारी दुनिया छोड़कर, पाकिस्तान के मिलिट्री टाउन में, उनके 'वेस्ट पॉइंट' के बराबर स्थित जगह पर वर्षों तक खुद को क्यों सुरक्षित महसूस किया? मैं चाहता हूं कि दुनिया समझे. यह सिर्फ भारत और पाकिस्तान के बीच का मामला नहीं है. यह आतंकवाद का मामला है. और यही आतंकवाद एक दिन आप लोगों के दरवाजे पर भी दस्तक देगा."
विदेश मंत्री ने यह बयान यूरोप की यात्रा के दौरान दिया, जो भारत द्वारा ऑपरेशन सिंदूर शुरू किए जाने के एक महीने बाद हो रही है. यह ऑपरेशन पहलगाम हमले की प्रतिक्रिया में शुरू किया गया था.
यूरोपीय नेताओं से मुलाकात और भारत की वैश्विक छवि
ब्रसेल्स में जयशंकर ने यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेयेन और यूरोपीय संघ की विदेश नीति प्रमुख काजा कैलास से मुलाकात की. उन्होंने भारत को एक भरोसेमंद और मूल्यों से जुड़ा साझेदार बताया और EU-India फ्री ट्रेड वार्ता में भारत की भूमिका को रेखांकित किया.
उन्होंने कहा कि भारत, 1.4 अरब की जनसंख्या वाला देश है, जो कुशल श्रमिकों के साथ चीन की तुलना में अधिक विश्वसनीय आर्थिक भागीदार है. जयशंकर ने एक बार फिर भारत की गैर-निर्देशात्मक नीति पर जोर दिया और कहा, "हम यह नहीं मानते कि मतभेद युद्ध से सुलझ सकते हैं और यह हमारा काम नहीं कि हम बताएं समाधान क्या होना चाहिए."
उन्होंने स्पष्ट किया कि भारत इस युद्ध से पूरी तरह अछूता नहीं है, लेकिन यह भी नहीं चाहता कि वह किसी एक पक्ष का समर्थन करके नीतिगत न्याय करे. उन्होंने कहा कि भारत की रूस के साथ ही नहीं, यूक्रेन के साथ भी मजबूत साझेदारी है, और देश अपनी नीतियां अपने ऐतिहासिक अनुभवों और हितों के आधार पर तय करता है.
पश्चिम की ऐतिहासिक भूमिका पर सवाल
जयशंकर ने भारत की आज़ादी के शुरुआती वर्षों की घटनाओं को याद करते हुए पश्चिमी देशों पर सवाल उठाए. उन्होंने कहा कि आजादी के कुछ ही महीनों बाद हमारी सीमाओं का उल्लंघन हुआ. और उस समय जो देश सबसे ज्यादा मौन या टाल-मटोल करने वाले थे, वे पश्चिमी देश ही थे. उन्होंने कहा कि जो देश उस समय चुप थे, आज वही देश अंतरराष्ट्रीय सिद्धांतों की दुहाई देते हैं. ये दोहरापन स्वीकार नहीं किया जा सकता.