नोटकांड में फंसे जस्टिस यशवंत वर्मा की मुश्किलें बढ़ने वाली हैं. केंद्र सरकार जस्टिस वर्मा के खिलाफ संसद के अगले सत्र में महाभियोग प्रस्ताव लेकर आएगी और इसे लेकर राजनीतिक सहमति बनाई जा रही है. दिल्ली में बीते दिनों इसे लेकर बैठकों का लंबा दौर चला, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर गृह मंत्री अमित शाह, कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल और राज्यसभा में नेता सदन जेपी नड्डा शामिल रहे.
5 जजों के खिलाफ आ चुका है प्रस्ताव
जस्टिस वर्मा के खिलाफ अगर महाभियोग चलाया जाता है तो वह ऐसे छठे न्यायाधीश होंगे, जिन्हें इस प्रक्रिया से गुजरना होगा. उनसे पहले जस्टिस वी. रामास्वामी, जस्टिस सौमित्र सेन, जस्टिस एस.के. गंगेले, जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और पूर्व चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा महाभियोग की प्रक्रिया का सामना कर चुके हैं. हालांकि अब तक लाए गए सभी महाभियोग प्रस्तावों का कोई नतीजा नहीं निकल सका है.
पहली बार साल 1993 में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस वी. रामास्वामी के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू की गई थी, जिनपर वित्तीय अनियमिताओं के आरोप थे. यह प्रस्ताव लोकसभा में लाया गया था, लेकिन जरूरी दो-तिहाई बहुमत हासिल करने में विफल रहा और प्रक्रिया पूरी नहीं हो पाई थी.
इसके बाद भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे कलकत्ता हाई कोर्ट के जस्टिस सौमित्र सेन के खिलाफ साल 2011 में राज्य सभा में महाभियोग प्रस्ताव पारित किया गया था और इसके बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया था और प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकी थी. वह पहले ऐसे न्यायाधीश थे जिन पर उच्च सदन की ओर से महाभियोग प्रक्रिया शुरू की गई थी.
बयान वापस लेने पर रुकी कार्यवाही
साल 2015 में राज्यसभा के 58 सदस्यों ने गुजरात हाई कोर्ट के जस्टिस जे.बी. पारदीवाला के खिलाफ आरक्षण के मुद्दे पर आपत्तिजनक टिप्पणी करने के लिए राज्यसभा में महाभियोग प्रस्ताव पेश किया था. सांसदों ने जस्टिस पारदीवाला पर अनुसूचित जाति और जनजाति के खिलाफ अपशब्दों के इस्तेमाल का आरोप लगाया था. लेकिन तत्कालीन उपराष्ट्रपति और उच्च सदन के सभापति हामिद अंसारी के पास महाभियोग का नोटिस जाने के बाद जज ने अपने फैसले से विवादित टिप्पणी हटा ली थी और प्रक्रिया वहीं रुक गई.
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इसी साल राज्यसभा के 50 से ज्यादा सदस्यों ने मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के जस्टिस एस.के. गंगेले को हटाने की मांग करने वाले महाभियोग प्रस्ताव पर साइन किए थे, जिनपर यौन उत्पीड़न का आरोप लगा था. हालांकि, न्यायाधीश जांच अधिनियम, 1968 के तहत गठित एक जांच समिति ने यौन उत्पीड़न के आरोप को स्थापित करने के लिए रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री को अपर्याप्त पाया और प्रस्ताव को गिरा दिया गया.
दीपक मिश्रा के खिलाफ आया था प्रस्ताव
साल 2017 में राज्यसभा सांसदों ने आंध्र प्रदेश और तेलंगाना हाई कोर्ट के जस्टिस सी.वी. नागार्जुन रेड्डी के खिलाफ महाभियोग की कार्यवाही शुरू करने के लिए एक प्रस्ताव पेश किया. उन पर भेदभाव के आरोप लगे थे. हालांकि कार्यवाही चलाने के लिए जरूरी समर्थन न होने की वजह से ये प्रस्ताव गिर गया था.
मार्च 2018 में विपक्षी दलों ने तत्कालीन CJI दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग लाने के लिए एक प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किए. लेकिन राज्यसभा में तत्कालीन सभापति और उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू ने सदन में नोटिस को स्वीकार नहीं किया और प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ सकी. दीपक मिश्रा पर पक्षपातपूर्ण फैसला देने के आरोप लगाए गए थे.
जांच के घेरे में जस्टिस वर्मा
दरअसल, जस्टिस यशवंत वर्मा से जुड़ा मामला 14 मार्च 2025 की रात उस वक्त सुर्खियों में आया, जब दिल्ली स्थित उनके सरकारी आवास में आग लगने की घटना हुई और उसके बाद वहां कई बोरियों में कैश मिला. इसमें नोटों के कुछ बंडल जल चुके थे. 22 मार्च को तत्कालीन CJI संजीव खन्ना ने जांच के लिए तीन सदस्यीय कमेठी गठित की. इसमें पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस शील नागू, हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस जीएस संधावालिया और कर्नाटक हाईकोर्ट के जज अनु शिवरामन शामिल थे. जांच रिपोर्ट के आधार पर तत्कालीन CJI ने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी थी.
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उसके बाद महाभियोग प्रस्ताव लाए जाने की तैयारी पर चर्चा तेज हो गई. इस बीच आगामी संसद सत्र में जज यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पेश किए जाने की बात सामने आई है. यह कदम उस रिपोर्ट के बाद उठाया गया है जो सुप्रीम कोर्ट की ओर से गठित तीन-सदस्यीय जांच समिति ने दी थी और जिसमें जस्टिस वर्मा की भूमिका पर सवाल उठाए गए हैं.
मामले सामने आने के बाद जस्टिस वर्मा से दिल्ली हाई कोर्ट के सभी न्यायिक कार्य वापस ले लिए गए थे. उन्हें उनके मूल कैडर इलाहाबाद हाईकोर्ट में ट्रांसफर भी कर दिया गया, जहां उन्हें कोई न्यायिक कार्य नहीं सौंपा गया. जस्टिस वर्मा ने आरोपों को सिरे से खारिज किया और इसे एक साजिश बताया है. उन्होंने कैश मिलने से खुद को किनारे किया है.
कैसे होती है महाभियोग की प्रक्रिया
किसी जज के खिलाफ महाभियोग लाने के लिए राज्यसभा में कम से कम 50 और लोकसभा में 100 सांसदों के साइन के बाद ही प्रस्ताव को अध्यक्ष द्वारा मंजूर किया जा सकता है. इसे आमतौर पर कानून मंत्री ही पेश करते हैं. इस बार सरकार विपक्षी दलों से भी समर्थन जुटाने की कोशिश कर रही है ताकि न्यायपालिका में कथित भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मजबूत और एकजुट संदेश दिया जा सके. महाभियोग प्रस्ताव पहले एक सदन में पेश होता है और वहां से पारित होने के बाद दूसरे सदन में रखा जाता है.
संसद में जज को पद से हटाने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिए जाने के बाद CJI की अगुवाई में तीन सदस्यीय कमेटी बनाई जाती है. इस कमेटी में एक हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस, एक सीनियर जज होते हैं. यह कमेटी जज के खिलाफ आरोप की जांच कर अपनी रिपोर्ट संसद को सौंपती है. कमेटी की जांच रिपोर्ट में अगर जज के खिलाफ आरोप सही पाए जाते हैं, जज को हटाने का प्रस्ताव संसद में बहस और वोटिंग के लिए रखा जाता है. जज को हटाने के लिए जरूरी है कि संबंधित प्रस्ताव दो-तिहाई बहुमत से पारित हो.
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संसद में प्रस्ताव पारित होने के बाद इसे राष्ट्रपति के पास भेज दिया जाता है. राष्ट्रपति की मंजूरी के साथ ही हाईकोर्ट के जज को पद से हटा दिया जाता है. महाभियोग प्रस्ताव के जरिए इतिहास में पहले किसी भी जज को नहीं हटाया गया है. जजों के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने के कोशिशें तो हुई, लेकिन महाभियोग आया नहीं. इसकी प्रक्रिया बहुत कठिन और लंबी होती है.