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सोच-समझकर AAP ने चुना 'फुल विपक्षी रोल'? 5 Points में समझें क्यों हटी दिल्ली MCD मेयर चुनाव से पीछे

दिल्ली में मेयर भी बीजेपी का होगा. आम आदमी पार्टी ने मेयर चुनाव से हटने का ऐलान कर दिया था. क्या आम आदमी पार्टी ने सोच-समझकर फुल विपक्षी रोल चुना? 5 पॉइंट में समझिए

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अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया
अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया

दिल्ली के मेयर चुनाव में आम आदमी पार्टी ने भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को वॉकओवर दे दिया है. नामांकन के अंतिम दिन आम आदमी पार्टी के नेता सौरभ भारद्वाज ने पूर्व मुख्यमंत्री आतिशी के साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस की और इस बात का ऐलान किया कि हम उम्मीदवार नहीं उतारेंगे. दिल्ली की सत्ता से बाहर होने के बाद आम आदमी पार्टी के इस ऐलान से बीजेपी के मेयर का रास्ता साफ हो गया है. पार्टी ने मेयर के लिए एमसीडी में विपक्ष के नेता सरदार राजा इकबाल सिंह को उम्मीदवार बनाया है, जिनके निर्वाचन का ऐलान अब महज औपचारिकता रह गया है.

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दिल्ली बीजेपी के अध्यक्ष वीरेंद्र सचदेवा ने आम आदमी पार्टी के इस कदम को लेकर कहा है कि लोकतंत्र की प्रक्रिया से भागना नहीं चाहिए. बेहतर होता कि चुनाव लड़ते. अब सवाल ये उठ रहे हैं कि आम आदमी पार्टी ने मेयर चुनाव से हटने का फैसला क्यों किया? क्या नंबर नहीं होना ही वजह थी या दिल्ली विधानसभा में विपक्ष की भूमिका में आने के बाद आम आदमी पार्टी ने एमसीडी की सत्ता वाली रेस से हटने का फैसला किसी व्यापक रणनीति के तहत लिया है? इसे चार पॉइंट में समझा जा सकता है.  

1- विपक्ष में होकर विपक्ष की तरह दिखना जरूरी है

दिल्ली की सत्ता गंवाकर आम आदमी पार्टी विपक्ष में आ गई है लेकिन एमसीडी की सत्ता उसके ही पास थी. एमसीडी की सत्ता में रहते हुए दिल्ली सरकार और बीजेपी को घेरना आम आदमी पार्टी के लिए भी कठिन हो रहा था. आम आदमी पार्टी के वार पर पलटवार के लिए बीजेपी एमसीडी को आधार बनाने का विकल्प था. एक मुश्किल यह भी थी कि अधिकारी एमसीडी की सत्ताधारी दल की सुनें या दिल्ली की सत्ता पर काबिज पार्टी की, दुविधा की स्थिति प्रशासनिक मशीनरी के लिए भी थी.

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कुछ ही दिन हुए जब आम आदमी पार्टी के मेयर महेश कुमार खिची ने गृह मंत्री अमित शाह को पत्र लिखकर निगम आयुक्त अश्विनी कुमार को हटाने की मांग की थी. उन्होंने निगम आयुक्त पर बीजेपी के इशारे पर काम करने का आरोप लगाते हुए कहा था कि अश्विनी कुमार ने सदन की सलाह के बगैर संपत्ति कर देने वालों पर अतिरिक्त यूजर चार्ज थोप दिए. निगम आयुक्त ने अपने खिलाफ आरोप निराधार बताए थे. लेकिन माना जा रहा है कि आम आदमी पार्टी को एमसीडी के अधिकारियों को प्रभावित कर ऐसे फैसले कराए जाने का डर था जिससे उसको नुकसान हो.

2- पार्टी की एकजुटता और कार्यकर्ताओं का मनोबल

अभी अधिक समय नहीं बीता जब आम आदमी पार्टी को विधानसभा चुनाव में हार के साथ दिल्ली की सत्ता गंवानी पड़ी थी. दिल्ली की सत्ता से विदाई के बाद आम आदमी पार्टी के सामने एकजुटता और कार्यकर्ताओं का मनोबल बनाए रखने की चुनौती है. मेयर चुनाव में नंबर नहीं होने के बावजूद पार्टी अगर कैंडिडेट उतारती तो क्रॉस वोटिंग का खतरा भी था. करीबी लड़ाई अगर बड़ी हार में बदलती तो इसका असर कार्यकर्ताओं के मनोबल पर भी पड़ सकता था. सौरभ भारद्वाज ने कहा भी कि हमारे पार्षदों को डरा-धमकाकर, लालच देकर तोड़ने की कोशिश बीजेपी की ओर से की जा रही थी. येन-केन प्रकारेण आज नंबर उनके (बीजेपी के) पास है.

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3- AAP के पास मेयर के लिए जरूरी नंबर नहीं

दिल्ली के निगम सदन की स्ट्रेंथ इस समय 238 है. लोकसभा सदस्य, राज्यसभा सांसद और मनोनित विधायकों को भी जोड़ लें तो आंकड़ा 262 पहुंचता है. ऐसे में अपना मेयर बनाने के लिए 132 वोट की जरूरत होगी. एमसीडी चुनाव में 134 सीटें जीतने वाली आम आदमी पार्टी के पास 113 पार्षदों के साथ तीन विधायकों और तीन राज्यसभा सांसदों के वोट हैं. कुल मिलाकर पार्टी का नंबर 119 तक ही पहुंचता है जो जरूरी आंकड़े से 13 कम है. इनमें भी एक सांसद स्वाति मालिवाल पार्टी के खिलाफ लगातार मोर्चा खोले हुए हैं. वहीं, बीजेपी के पास कुल मिलाकर 135 वोट हैं जो मेयर चुनाव में जीत सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त हैं. 

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4- एमसीडी की सत्ता और सरकार का कनेक्शन

दिल्ली में केंद्र शासित प्रदेश की सरकार और एमसीडी का कनेक्शन भी बड़ा अजीब है. दिल्ली में जिस पार्टी की सरकार रहती है, वह एमसीडी की सत्ता से बाहर रहती है और एमसीडी की सत्ता में रहने वाली पार्टी दिल्ली में सरकार नहीं बना पाती. बीजेपी भी लंबे समय बाद दिल्ली की सत्ता में लौटी तो एमसीडी की सत्ता से विदाई के बाद ही. एमसीडी की सत्ता में आने के बाद ही आम आदमी पार्टी की सरकार चली गई. बात संयोग नहीं, मुद्दों की है.

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दरअसल दिल्ली में आम जनता से सीधे जुड़े स्वच्छता, पेयजल, नाली-गली के मुद्दे एमसीडी से ही संबंधित हैं. इन मुद्दों को लेकर जनता की नाराजगी विधानसभा के चुनाव में सत्ताधारी दल को भुगतनी पड़ती है. ऐसा ही हालिया विधानसभा चुनाव में भी हुआ. आम आदमी पार्टी के नेता यह समझ रहे थे कि सूबे में सत्ता परिवर्तन के बाद उनके लिए एमसीडी में भी काम कर पाना शायद उतना आसान नहीं होगा. ऐसे में पार्टी की रणनीति अब सरकार और एमसीडी के कामकाज को लेकर बीजेपी को घेरने की, जनता की समस्याएं उठा नाराजगी को कैश कराने की है. 

5- आंदोलन से निकली पार्टी आंदोलन के ट्रैक पर लौटेगी

आम आदमी पार्टी का जन्म अन्ना हजारे की अगुवाई में हुए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से हुआ था. अपने पहले ही दिल्ली चुनाव में दमदार प्रदर्शन से सबको चौंका कांग्रेस के समर्थन से सत्ता का स्वाद भी चख लिया था. दूसरे चुनाव में प्रचंड जीत के साथ आम आदमी पार्टी ने अपने दम पर सरकार बनाई और जीत का सिलसिला 2020 में भी जारी रहा. अब 2025 का चुनाव हारने के बाद पार्टी की रणनीति फिर से अपनी जड़ों पर लौटने, आम आदमी के बीच जाने और आंदोलन के ट्रैक पर वापसी की भी हो सकती है.

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