राजेन्द्र शर्मा
7 जुलाई, 1926 को पुरानी दिल्ली के गली कश्मीरियान में अल्लामा त्रिभूननाथ जुत्शी `जार' देहलवी के घर में जन्मे आनंद मोहन जुत्शी को शायरी घुट्टी में मिली थी. पिता दिल्ली यूनिवर्सिटी में फारसी विभाग के प्रोफेसर. त्रिभूननाथ जुत्शी `जार' देहलवी और माता ब्रिजरानी जुत्शी `बेजार' देहलवी, दोनों ही उर्दू शायरी के नामचीन चेहरे. शायर माता-पिता की संतान पंडित आनंद मोहन जुत्शी ने बचपन में ही शायरी की शुरुआत कर दी. आठ बरस के आनंद मोहन जुत्शी की शायरी इस कदर लोगों को भाई कि 1933 में उस दौर के उर्दू के नामचीन शायरों ने `जार' देहलवी से बेटे का एक तखल्लुस रखने का कहा. इसके लिए उनके घर पर बड़े शायरों की एक मीटिंग हुई और उस दौर के नामचीन शायरों ने बालक आनंद मोहन जुत्शी को बतौर शायर गुल-ओ-गुलजार नाम का तखल्लुस तय किया, जो बाद में गुलजार देहलवी हो गया.
आजादी की आंदोलन के जलसों में अपनी शायरी से आनंद मोहन जुत्शी जोश भरने का काम करते. उनकी शायरी के मुरीद जवाहरलाल नेहरू भी थे. एक दिन अरुणा आसफ अली गुलजार देहलवी के घर आईं और उनके माता-पिता से कहा कि इस बच्चे को हमें दे दीजिए. उस समय गुलजार देहलवी मैट्रिक की पढ़ाई कर रहे थे. इसके बाद लगातार वह कांग्रेस के जलसों में देशभक्ति शायरी से जोश भरते रहे.
उर्दू शायरी और साहित्य में उनके योगदानों को देखते हुए उन्हें 'पद्मश्री' पुरस्कार से नवाजा गया. 2009 में उन्हें 'मीर तकी मीर' पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया.
मूल रूप से कश्मीरी पंडित गुलजार देहलवी देश की गंगा-जमुनी तहजीब में रंगे शायर थे. सफेद चूड़ीदार पायजामा, गुलाब के फूल लगी सफेद शेरवानी और सिर पर नेहरू टोपी यही उनकी पहचान रही. यह गुलजार देहलवी की विद्वता ही कही जायेगी कि एक कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे तत्कालीन उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने अपने संबोधन में कहा था कि जब मंच में गुलजार देहलवी जैसे शायर मौजूद हो, ऐसे में मेरा कुछ बोलना बेअदबी होगी.
ख्यात शायर वसीम बरेलवी बताते हैं कि साल 1960 से 1862 तक वे दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दू कालेज में बतौर उर्दू प्रोफेसर रहे. उस दौर में पुरानी दिल्ली के उर्दू बाजार में शायर गुलजार देहलवी को उन्होंने जाना और समझा. वसीम बरेलवी दुखी मन से कहते हैं कि ऐसे शायर सदी में विरले ही पैदा होते हैं.
गुलजार साहब के पंडित नेहरू से निकट सम्बन्ध रहे. गुलजार देहलवी हर बरस विजयादशमी पर नेहरू जी को रामलीला ग्राउंड की रामलीला में लेकर आते थे. गुलजार साहब इस रामलीला के मुख्य आयोजको में रहे परन्तु इन सम्बन्धों को भुनाना उनकी फितरत में नहीं था.
एक शायर के लिए इससे बड़ा सम्मान क्या हो सकता है कि 15 अगस्त, 1947 को दिल्ली में आजादी के जश्न को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नेहरू ने गुलजार देहलवी की लिखी नज्म को अपने संबोधन में पढ़ा था. गुलजार देहलवी की वह ऐतिहासिक नज्म यह हैः
जरूरत है उन नौजवानों की हमको
जो आगोश में बिजलियों के पले हो,
कयामत के सांचे में अक्सर ढले हो,
जो आतिश फिजा की तरह भड़के,
जो ले सांस भी तो बरपा जलजले हों
उठाए नजर तो बरस जाए बिजली,
हिलाए कदम तो बरपा जलजले हों
दगा पीछे-पीछे हों खुद जिनके मंजिल,
जो दोनों जहां जीत कर चल पड़े हों
खुदी को खुदा को जो बस में लाए,
दिलों में ऐसे लिए कुछ वलवले हों
जरूरत है उन नौजवानों की” ...
सम्बन्धों को ओढ़ने-बिछाने वाले शायर गुलजार देहलवी को जीवन भर यह सालता रहा कि अपने दोस्त जगदीश मेहता दर्द के जिस शार्गिद संपूर्ण सिंह कालरा (ख्यात शायर गुलजार ) को 1945 से 1950 तक उन्होंने बतौर गायक आगे बढाया, ऑल इंडिया रेडियो के डिप्टी डायरेक्टर से मिलवाया, मुशायरों में भी इंट्रोड्यूस करवाया, वही संपूर्ण सिंह कालरा मुंबई जाकर उनका तखल्लुस ही चुराकर शायर गुलजार के नाम से शोहरत बटोरता रहा.
देहलवी कहते थे कि तखल्लुस का किसी ने कोई ठेका थोड़ी ही लिया था, इसमें कोई मोनोपोली नहीं होती, इसका कोई दुख नहीं है. दुख इस बात का है कि कई मुशायरों में मेरे साथ-साथ उसे भी बुलाया जाता, दोनों के नाम के कई बैनर भी छपते, लेकिन वो फिर भी नहीं आता.
शायर गुलजार देहलवी आज हम से विदा हो गए हैं. परन्तु बजरिये अपनी शायरी वह हमेशा हमारे बीच रहेंगे. पेश हैं उनके कुछ बेशकीमती शेर
नजर झुका के उठाई थी जैसे पहली बार
फिर एक बार तो देखो उसी नजर से मुझे.
यूँ ही दैर ओ हरम की ठोकरें खाते फिरे बरसों
तेरी ठोकर से लिक्खा था मुक़द्दर का सँवर जाना.
वो कहते हैं ये मेरा तीर है ज़ां ले के निकलेगा
मैं कहता हूं ये मेरी जान है मुश्किल से निकलेगी.
इस तरह जुर्म-ए-मोहब्बत की सज़ा देते हैं
वो जिसे अपना समझते हैं मिटा देते हैं.
हुस्न का कोई जुदा तो नहीं होता अंदाज़
इश्क़ वाले उन्हें अंदाज़ सिखा देते हैं.
शहर में रोज़ उड़ा कर मेरे मरने की ख़बर
जश्न वो रोज़ रक़ीबों का मना देते हैं.
हम से पूछो तो ज़ुल्म बेहतर है, इन हसीनों की मेहरबानी से
और भी क्या क़यामत आएगी, पूछना है तिरी जवानी से.
ज़ख़्म-ए-दिल को कोई मरहम भी न रास आएगा
हर गुल-ए-ज़ख़्म में लज़्ज़त है नमक-दानों की.
जाने कब निकले मुरादों की दुल्हन की डोली
दिल में बारात है ठहरी हुई अरमानों की.
उम्र-भर की मुश्किलें पल भर में आसाँ हो गईं
उन के आते ही मरीज़-ए-इश्क़ अच्छा हो गया .
ख़ुदा ने हुस्न दिया है तुम्हें शबाब के साथ
शुबु-ओ-ज़ाम खनकते हुए रबाब के साथ .
निगाह- ओ –ज़ुल्फ़ अगर कुफ्र है तो ईमां रुख़
शराब उनको अता की किताब के साथ.
वो कहते हैं ये मेरा तीर है ज़ां ले के निकलेगा
मैं कहता हूं ये मेरी जान है मुश्किल से निकलेगी.
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