अस्सी वर्ष के प्रयाग शुक्ल. और इन अस्सी वर्षो में साठ साल साहित्य और कला में खुद को रमा देने वाले प्रयाग शुक्ल खुद अब हमारी विरासत हैं.
प्रयाग शुक्ल की छाप है हमारी साहित्यिक विरासत पर. यह एक दिन है, कविता संभव, अधूरी चीज़ें तमाम, बीते कितने बरस, यह जो हरा है, यहां कहां थी छाया, इस पृष्ठ पर, सुनयना फिर यह न कहना नामक कविता संग्रह, अकेली आकृतियां, इसके बाद, छायाएं तथा अन्य कहानियां, काई नामक कहानी संग्रह तथा तीन उपन्यास गठरी, आज और कल, लौटकर आने वाले दिन के अलावा संस्मरण, यात्रा वृतांत, अनुवाद, कला से संबधित अनेक किताबें... उन्होंने गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की गीतांजलि का अनुवाद भी किया है.
तेईस साल की उम्र में हैदराबाद से प्रकाशित होने वाली पत्रिका कल्पना के संपादकीय टीम का हिस्सा रहे प्रयाग शुक्ल दिनमान, नवभारत टाईम्स की सपांदकीय टीम में रहने के बाद समकालीन कला, रंग प्रसंग और संगना के सम्पादक रह चुके है. कला और सिनेमा पर अपनी गहरी पकड के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान स्थापित करने में समर्थ प्रयाग शुक्ल के व्यक्तित्व की यह सहजता ही कही जाएगी कि वे कहते हैं कि अभी उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया गया है, जिसके लिए गर्व कर सकें.
प्रयाग शुक्ल की दोस्ती बचपन से ही किताबों के साथ थी और किशोरावस्था तक पहुंचते पहुंचते प्रयाग शुक्ल तय कर चुके थे कि वह लेखक बनें, न बनें किन्तु साहित्य की अपनी प्रिय दुनिया में जीवन भर बने रहेंगें.
तेईस साल की उम्र में शुक्ल, जब कल्पना की संपादकीय टीम में शामिल हुए तो उस वक्त उस पत्रिका का अपना एक अलग रुतबा था. कथाकार निर्मल वर्मा को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने पर जब उनसे पूछा गया कि उन्हें कब लगा कि एक लेखक के रुप में वह स्वीकृत हो गये है तो निर्मल वर्मा ने कहा कि कल्पना में प्रकाशित होने पर ही लगा था कि एक लेखक के रुप में मुझे स्वीकृति मिल गयी है.
कल्पना में काम करते हुए ही प्रयाग शुक्ल को यह अहसास हुआ कि साहित्य के साथ कलाओं को गहनता से जानना भी बहुत जरूरी है. कल्पना में एक वर्ष तक काम करते हुए प्रयाग शुक्ल का कला के प्रति बोध और पकड़ पुख्ता हुई. 1964 में प्रयाग शुक्ल दिल्ली आ गए और 52 साल तक सक्रिय रूप से काम करते हुए सम्प्रति स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं.
दिल्ली में शुरुआती दिनों में प्रयाग शुक्ल के पास रहने का कोई ठिकाना नही था. कथाकार निर्मल वर्मा और उनके भाई चित्रकार राम कुमार से उनकी मुलाकात कोलकाता और हैदराबाद में हो चुकी थी. निर्मल वर्मा की पारखी आंखों ने प्रयाग शुक्ल को पहचान लिया था. ऐसे में उन्हें अपने भाई राम कुमार से प्रयाग शुक्ल के रहने के लिए व्यवस्था करने के लिए कहा. चित्रकार राम कुमार ने उन्हें अपने स्टूडियो में रहने के लिए बुला लिया. लगभग तीन माह प्रयाग शुक्ल इस स्टूडियो में रहे और इस अवधि में स्टूडियो में आने वाले चित्रकार एम एफ हुसैन, तैयब मेहता, मनजीत बावा, कृष्ण खन्ना से उनका सम्पर्क हुआ जो अंतरंगता में तब्दील हो गया.
इन चित्रकारों की संगत में प्रयाग शुक्ल की कला पर दृष्टि और गहरी हुई .
बीते साल में प्रयाग शुक्ल की अपने मित्र चित्रकार जे स्वामीनाथन के जीवन पर लिखी गयी किताब तथा कला पर लिखी किताब कला की दुनिया में प्रकाशित हुई. चित्रकार जे स्वामीनाथन से अपनी दोस्ती के बारे में प्रयाग शुक्ल बताते हैं, “जब मैं दिल्ली आया तो दिनमान के लिए फ्री-लांसिंग करता था. अज्ञेय उसके संपादक थे. यह 1966 की बात है कि एक दिन उन्होंने मुझे बुलाकर कहा कि 21वीं सदी में कलाओं के लेकर जगदीश स्वामीनाथन से बात कीजिए. मैंने उनका इंटरव्यू किया, वे बोलते रहे और मैं सुनता रहा, उनसे कला और कविता की समझ मिली. जगदीश स्वामीनाथन कहते थे कि कलाकृति किसी के बारे में नहीं होती, वो सिर्फ अपने बारे में होती है. कला या लेखन हमारा अपना यथार्थ होती है. इसके लिए जरूरी है कि हमारे संबोधन में ईमानदारी हो, सचाई हो. मैं उनसे काफी प्रभावित हुआ.”
प्रयाग शुक्ल अब तक के अपने जीवन का सबसे बडा सुख उन्नीस बरस पहले अपनी धेवती गौरजा के जन्म को मानते है और सबसे बडा दुख इस साल दस जनवरी को 49 वर्षीय अपनी ज्येष्ठ पुत्री वर्षिता के आकस्मिक निधन को. शुक्ल कहते है कि कला और साहित्य के लिए मेरे काम की सराहना करते हैं तो मान लेता हूं कि कुछ किया है. अलबत्ता, अभी मैंने ऐसा कुछ नहीं किया है, जिसके लिए गर्व कर सकूं. हां, एक काम ऐसा जरूर किया है जिससे मुझे संतोष मिला है.
शुक्ल बताते हैं कि कल्पना के संपादक बदरीविशाल पित्ती सांस्कृतिक नगरी काशी पर एक अंक निकालना चाहते थे. उस समय इस संबध में प्रयास भी किए गए थे, परन्तु 1978 में कल्पना का प्रकाशन बंद हो गया और काशी अंक नहीं निकल सका. 6 दिसम्बर, 2003 को बदरीविशाल पित्ती का देहान्त होने के उपरांत उनके पुत्र शरद पित्ती ने प्रयाग शुक्ल से आग्रह किया कि उनके पिता की अन्तिम इच्छा काशी अंक निकालने की थी, अब उन्हें यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी कि कल्पना का काशी अंक आप अपने संपादन में निकाले .
शुक्ल इस काम में जुटे और अंततोगत्वा 2005 में कल्पना के काशी अंक का प्रकाशन संभव हो सका. प्रयाग शुक्ल ने कल्पना के काशी अंक को इतना बेहतर संपादित किया गया है कि एक बार ख्यात पत्रकार संपादक राहुल देव की स्टडी में उनके एक मित्र ने कल्पना का काशी अंक उनसे मांगा तो उन्होंने कहा कि मेरे पास जितनी किताबें हैं, मांगो तो सब दे सकता हूं किन्तु कल्पना का काशी अंक नही दूंगा.
आने वाले साल में प्रयाग शुक्ल अपने मित्र चित्रकार राम कुमार की जीवनी लिखना चाहते है और अपने पुश्तैनी शहर कोलकाता, जहां के लोग प्रयाग शुक्ल को बहुत प्रेम करते है, पर लिखना चाहते है .
लॉकडाऊन के दिनों में अपनी पुत्री के निधन से दुखी प्रयाग शुक्ल की रचनात्मकता में कही कोई कमी नहीं आई है. वे हर रोज रेखाकंन कार्य कर लॉकडाऊन का समय बिता रहे हैं. कला समीक्षक रवीन्द्र त्रिपाठी कहते हैं कि प्रयाग शुक्ल के रेखाकंन रेखा या रेखाओं की भाषा में कविता भी है और आलोचना भी तथा प्रयाग शुक्ल के ये रेखाकंन मौजूदा महानगरीय हालत पर बारीक मगर गहन अंतदृष्टि वाली टिप्पणियां भी है .
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