राजनीति में हार-जीत लगी रहती है. लेकिन इज्जत मिट्टी में मिल जाए तो इसे साधारण मामला नहीं कहेंगे. यह एक बड़े अपराध का दंड है. इस अपराध को दंभ या अहंकार कहते हैं. पहली जीत के बाद पार्टियां अकसर फलती-फूलती हैं. लेकिन दूसरी जीत के बाद कई बार पार्टियों के पांव जमीन पर नहीं टिकते. 2012 की कहानी की बुनियाद दरअसल 2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान पड़ चुकी थी.
प्रधानमंत्री की कुर्सी की तरफ कदम बढ़ाने की मंशा से राहुल गांधी ने बिहार और उत्तर प्रदेश में चुनाव जीतने की कोशिश की. दो साल की कोशिश और समय खर्च करने के बाद अब उनकी समझ में आया है कि गंगा पट्टी में अपनी मंजिल तक पहुंचने के लिए उनके पास न तो कोई सवारी है, न ही दिशा. इस समतावादी युग में, प्रधानमंत्री पद के लिए वंश अधिक महत्वपूर्ण नहीं रह गया है.
राजनैतिक (राज) परिवारों को अपनी गलतियां मानने में शर्म आती है क्योंकि ऐसा करने से वह चमक फीकी पड़ती है जिसके दम पर वे सत्ता में होते हैं. इसलिए एक परास्त राजकुमार की भी प्रशंसा की जानी चाहिए, किसी चीज के लिए नहीं तो उसके कठिन श्रम के लिए. मानो कठिन श्रम अखिलेश यादव और मायावती सरीखे नेताओं के लिए है.
वैसे भी, चुनाव में हर कोई मेहनत करता है. बहरहाल, पराजय किसी राजकुमार की गलती नहीं हो सकतीः या तो उम्मीदवार गलत थे, या फिर पार्टी दोषी थी. उम्मीदवारों को किसने चुना या पार्टी को मजबूत बनाने की जिम्मेदारी किसकी थी, इस पर कोई सुगबुगाहट तक नहीं हुई. ऐसे में बहानों का परदा चीथड़ों वाला लबादा बन जाता है.
कांग्रेस के साथ ठीक यही हुआ. राहुल गांधी युवा नहीं हैं. उनकी उम्र 41 साल है. इस उम्र में उनके परनाना जवाहरलाल नेहरू ने 1929 के ऐतिहासिक लाहौर अधिवेशन की अध्यक्षता की थी और उन्होंने अपने राजनैतिक संरक्षक महात्मा गांधी के संशय के बावजूद
स्वराज का प्रस्ताव पारित करवाया था. इसी प्रस्ताव के कारण कांग्रेस ने ब्रिटिश सरकार से पूर्ण आजादी की मांग की थी. जवाहरलाल नेहरू ने प्रशिक्षु नेताओं के नारों के बल पर नहीं बल्कि अपने विचारों के बूते राष्ट्रीय आंदोलन में अपनी शीर्ष जगह बनाई थी. जवाहरलाल प्रबुद्ध थे. उन्होंने संपन्नता और गांव की गरीबी, दोनों देखी थी. इसलिए वे दोनों तरह के माहौल में सहजता महसूस करते थे. उन्होंने अपनी राजनीति किसानों और महात्मा गांधी के साथ-साथ उस प्राचीन मनीषी चाणक्य से भी सीखी थी, जिनके वे प्रशंसक थे.
321 ईस्वी पूर्व जब चंद्रगुप्त ने महापद्म नंद (जो एक नाई का बेटा था) का तख्ता पलटना चाहा तो चाणक्य ने कुछ बुद्धिमत्तापूर्ण सलाह दी थीः याद रखो, तुम्हारी मां ने तुम्हें किस तरह गर्म चपाती खाना सिखाया था-किनारों से. राहुल गांधी की रणनीति, अक्षरशः और लाक्षणिक रूप से उलटी थी. उन्होंने केंद्र से अपनी रणनीति का संचालन किया.
दिल्ली में सत्ता पीठ के आरामदायक कमरों से उन्होंने चपाती को एक अबूझ पहेली में बदल दिया. उनके सलाहकारों ने सोचा था कि हर भौगोलिक क्षेत्र या समुदाय को पैसे, भ्रम या भावात्मक संरक्षण के जरिए मैनेज किया जा सकता है.
इस तरह राजनैतिक छल का अभियान शुरू हुआ. बुंदेलखंड के लिए नकद पैकेज की घोषणा कर दी गई. दलितों के बारे में यह मान लिया गया था कि उनकी झेंपड़ी में एक राजकुमार के खाना खाने से उनका हृदय पिघल जाएगा. राहुल गांधी की समस्या उनका युवा होना नहीं है. उनकी समस्या यह थी कि वे चुनावी वॉर रूम में बैठे हुए खिलौना सैनिकों से खेलते रहे. करनी का विकल्प कथनी बन गई. उन्होंने अपनी आस्तीनें चढ़ा लीं. वे अपनी दाढ़ी की लंबाई से खेलते रहे. मुझे यकीन है कि राहुल गांधी अब किसी विरोधी पार्टी का चुनाव घोषणापत्र नहीं फाड़ेंगे.
सबसे बड़ा नाटक मुस्लिम वोटों के लिए रचा गया. मुसलमानों को लुभाने के लिए तरह-तरह के वादे किए गए. आंखों में आरक्षण की धूल झेंक दी गई और नाटक की तरह अभिनय किया गया. बड़बोलेपन के पुरस्कारों के लिए दूसरी पांत के कांग्रेसी नेताओं में होड़ मच गई. वचनवीर नेता वायदों की खाद से वोट की फसल उगाने का जतन करते रहे. इस खेल में एकमात्र चतुर खिलाड़ी मुस्लिम वोटर था. वह मुलायम सिंह यादव की तरफ मुड़ गया और उन्हें सत्ता में पहुंचा दिया. जिन निर्वाचन क्षेत्रों में रणनीतिक वोटिंग की जरूरत थी वहां उसने अपनी बिरादरी के लोगों को चुना, चाहे वह किसी भी पार्टी का रहा हो. उत्तर प्रदेश की इस विधानसभा में 69 मुस्लिम विधायक होंगे जो अब तक की उनकी सबसे बड़ी संख्या है. हर बड़ी पार्टी-सपा, बसपा और कांग्रेस-में मुस्लिम विधायकों का समान प्रतिशत होगाः 20 से 30 प्रतिशत के बीच. कांग्रेस की सारी धमा चौकड़ी के बाद उसके 28 विधायकों में चार मुसलमान हैं. पीस पार्टी के चार में से तीन मुस्लिम विधायक हैं. इसमें कहीं-न-कहीं कोई सबक हो सकता है.
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने सोचा कि संकट गंभीर है. इतना गंभीर है कि एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर ही ली जाए. इसमें उन्होंने जो विचार व्यक्त किया उससे उनके पार्टी सहयोगियों की रातों की नींद हराम हो गई होगी. सोनिया ने कहा कि समस्या नेतृत्व का अभाव नहीं, नेताओं की भीड़ है. लेकिन यह पार्टी की अपनी चिंता है. कांग्रेस अध्यक्ष की ठोस टिप्पणी यह थी कि यूपीए के लिए अपनी गलतियों को सुधारने का अब भी मौका है क्योंकि अगले आम चुनाव 2014 में होने हैं.
हो सकता है कि उनके पास कोलकाता से खबर न पहुंची हो. उनकी सहयोगी ममता बनर्जी ने उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की जीत का खुलेआम जश्न मनाया. ममता बनर्जी ने जो किया उसे यूपीए का समर्थन करना नहीं कहेंगे. 2014 के आम चुनावों से बहुत पहले, इस जुलाई में राष्ट्रपति के चुनाव में यूपीए की कड़ी चुनावी परीक्षा होगी. अगर कांग्रेस अपने उम्मीदवार को नहीं जिता पाई तो पार्टी भले ही खत्म न हो, सरकार जरूर गिर जाएगी.
यूपीए के पहले कार्यकाल में प्रणब मुखर्जी उसकी सुरक्षा के प्रभारी थे. उन्होंने इस दौरान चाणक्य की भूमिका बहुत अच्छी तरह निभाई. उन्होंने किसी उभरती हुई समस्या को तब तक आगे बढ़ने दिया जब तक कि उससे होने वाला फायदा कांग्रेस के पक्ष न चला जाए.
2009 के बाद कांग्रेस ने अपने सहयोगी दलों को अलग-थलग करने के लिए सब कुछ किया. उसने उन पार्टियों को भी नाचीज समझकर झिड़क दिया जिनसे वह जरूरत पड़ने पर हाथ मिला सकती थी. इसका नतीजा यह हुआ कि दूसरी पार्टियों ने अपने लिए ऐसी जगह बना ली जहां सत्तारूढ़ गठबंधन में शामिल घटक कांग्रेस से ऊब कर कभी-कभार सुकून महसूस कर सकते हैं. द्रमुक सरीखी जो पार्टियां गठबंधन से बाहर निकलने का साहस नहीं कर पा रही हैं, वे बलि के बकरे की तरह उदासीन बैठी हुई हैं. कांग्रेस ने अपने सहयोगी दलों को रास्ते पर लाने के लिए टैक्स अधिकारियों का इस्तेमाल किया है. लेकिन उसका यह तरीका ठीक नहीं है. जिन पार्टियों के पास चुप रहने के सिवाय कोई विकल्प नहीं था, उन्होंने सही मौके का इंतजार करना मुनासिब समझा. वह सही मौका इन गर्मियों में आ सकता है.
सीधे-सादे राजनैतिक गणित के रूप में देखें तो कांग्रेस के साथ जुड़ाव धीरे-धीरे बोझ बनता जा रहा है. कांग्रेस के प्रवक्ता मनीष तिवारी सरीखे नेता स्वीकार करने लगे हैं कि शहरों में पार्टी के खिलाफ भारी असंतोष है. जाहिर है, यह यूपीए1 की नीति से भटकाव है जब कांग्रेस अपने किसी सहयोगी दल के वोट बैंक को महत्व देती थी. जासूसी उपन्यासों के अंदाज में यह पूछा जा सकता है कि मौत से फायदा किसे होगा या सीधे-सीधे कहें तो डॉ. मनमोहन सिंह की दूसरी सरकार के गिरने से कौन फायदे में रहेगा?
कांग्रेस का फायदा वक्त काटने में है, लेकिन दूसरे दल जल्दबाजी में होंगे. ममता बनर्जी, जे. जयललिता, नीतीश कुमार, एन. जगनमोहन रेड्डी, चंद्रबाबू नायडु, नवीन पटनायक, प्रकाश करात, नितिन गडकरी, मुलायम सिंह यादव, मायावती, प्रकाश सिंह बादल और ओम प्रकाश चौटाला के बीच चाहे कितने अंतर्विरोध हों, लेकिन ये सभी ऐसे समय चुनाव चाहते हैं जब कांग्रेस बेहद कमजोर हो. कांग्रेस 2012 के दौरान उत्तर प्रदेश-पंजाब के भूकंप के झ्टके से उबर नहीं पाएगी. उसके उबरने की शुरुआत 2013 से हो सकती है. फिर लड़ाके सहयोगी दलों और विपक्ष के ये नेता 2014 के लोकसभा चुनाव का इंतजार क्यों करें?
अगर उन्होंने राष्ट्रपति पद के लिए साझा उम्मीदवार खड़ा किया तो कांग्रेस के लिए संकट पैदा हो सकता है. अप्रैल में होने वाले राज्यसभा चुनावों (जिनमें कांग्रेस और नीचे खिसक जाएगी) के बिना भी यूपीए की स्थिति डांवाडोल रहेगी. एक बार शरीर से जब खून बहना शुरू हो जाता है तो कई नसें अचानक फट पड़ती हैं.
1996 में नरसिंह राव के चुनाव हारने के बाद यह कांग्रेस के लिए सबसे बुरे दिन हैं. उत्तर प्रदेश चर्चा का एकमात्र विषय नहीं है, जहां कांग्रेस के वोट में 7 प्रतिशत की गिरावट आई. पंजाब भी परेशानी का उतना ही बड़ा सबब है जहां कांग्रेस ने वोट पड़ने से बहुत पहले ही जश्न मनाना शुरू कर दिया था.
अकाली रणनीतिकार सुखबीर बादल ने जमीनी हकीकत को अच्छी तरह समझा. उन्होंने अपने चचेरे भाई मनप्रीत बादल के दल-बदल को लाभ में बदल दिया. उन्होंने अपने आधार की रक्षा की जबकि मनप्रीत ने सत्ता विरोधी वोट को विभाजित कर दिया. हालांकि महिलाओं के बीच में अकालियों ने अपने 2007 के वोट में 5 प्रतिशत खोया, इसके बावजूद वे कांग्रेस से आगे रहे. उन्हें कांग्रेस के 39 प्रतिशत की तुलना में 43 प्रतिशत वोट मिले. दरअसल, अकाली-भाजपा गठबंधन ने हिंदू दलितों, हिंदू ओबीसी, सिख ओबीसी और सिख दलितों के बीच अपने वोट में बढ़ोतरी ही की. कांग्रेस मुख्यालय की यह खुशफहमी थी कि अण्णा हजारे के अभियान का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा. मीडिया के एक तबके ने इस खुशफहमी को बढ़-चढ़कर पेश किया.
बहरहाल, कुछ तथ्य कांग्रेस को हमेशा परेशान करते रहेंगे. पहले सिख प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह अकालियों से दो बार पंजाब हार चुके हैं. पहली बार लापरवाही रही होगी; लेकिन दूसरी बार दंड मिला है. श्रीमती गांधी रायबरेली में प्रियंका गांधी के डेरा डालने के बावजूद वहां की सभी विधानसभा सीटें हार गईं. कांग्रेस में प्रियंका को राहुल से बड़ा स्टार प्रचारक माना जाता था. इस साल के शुरू में पी. चिदंबरम तमिलनाडु में थे और अपनी सीट से दोबारा चुने जाने के बारे में वे विश्वास से दावा नहीं कर सकते. कर्नाटक में विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा का रास्ता भी बंद नजर आ रहा है. केरल में रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी मझ्धार में पड़े हुए हैं. वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी खुश दिख सकते हैं. लेकिन अगर वे बंगाल में अपनी सहयोगी ममता बनर्जी की तरफ नजर दौड़ाएंगे तो उनकी यह खुशी काफूर हो सकती है.
राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश में हार के लिए पार्टी की बुनियादी संरचना को दोषी ठहराया है, लेकिन क्या उन्होंने अपनी पार्टी की शीर्ष की संरचना पर गौर किया है? कांग्रेस का कोई भी दिग्गज नेता इतना कद्दावर नहीं है कि वह अपने राज्य में पार्टी को उबार सके या उसे कम-से-कम सम्मानजनक स्थिति में ला सके. फिर बुनियादी स्तर के कार्यकर्ताओं को क्यों दोष देना? कांग्रेस दावा कर सकती है कि
उसने केंद्रीय कैबिनेट के एक भ्रष्ट मंत्री को जेल भिजवा दिया, लेकिन वह गोवा में अपने मुख्यमंत्री को गिरफ्तार करना क्यों भूल गई जिसे मतदाताओं ने लंबे समय के लिए निर्वासन में भेज दिया है.
इसमें शक नहीं कि कांग्रेस उबर सकती है. लेकिन उसे पहले की तरह सही मायने में उदारवादी और नैतिकता के मामले में लोकतांत्रिक बनना होगा. वह या तो राष्ट्रीय ट्रस्ट बन सकती है या पारिवारिक संपत्ति, दोनों नहीं. यहां यह तथ्य अप्रासंगिक है कि दूसरी पार्टियां को परिवार चला रहे हैं. उत्तर प्रदेश के चुनाव में कई मोड़ आए. उनमें से एक था प्रियंका गांधी के पति रॉबर्ट वाड्रा और दोनों के छोटे बच्चों का रायबरेली पहुंचना. इसके जरिए मतदाताओं को 2030 के लिए अग्रिम नोटिस दिया जा रहा था. मैं नहीं जानता कि 2030 में मतदाता क्या करेंगे, लेकिन आज हम इतना जानते हैं कि उन्होंने 2012 में क्या किया.
फारस (ईरान) के लुटेरे नादिर शाह ने 1739 में दिल्ली के बाहर सांकेतिक फौजी प्रतिरोध को कुचलकर मुगलों की राजधानी पर कब्जा कर लिया और आदेश दिया कि जुमे की नमाज में खुत्बा उसकी ओर से पढ़ा जाए. इस तरह उसने संदेश दे दिया कि वह कमजोर मुगल बादशाह मुहम्मद शाह आलम रंगीला का भी बादशाह है. ईरानी कुलीनों ने एक जुमला गढ़ दियाः हुकूमते शाह आलम, अज देहली ता पालम (शाह आलम की हुकूमत दिल्ली से पालम तक है). कांग्रेस राजस्थान में हारेगी तो उत्तर भारत में उसकी यही हैसियत रह जाएगी.
पस्त हुए युवराज
अपने ही कूचे में बेआबरू हुए राहुल गांधी को 2019 के आम चुनाव तक इंतजार करना पड़ सकता है.
प्रिया सहगल
कांग्रेस जिस दिन उत्तर प्रदेश में हारी, राहुल गांधी ने एक और भेस बदला. यह भेस किसी एंग्री यंगमैन का नहीं, बल्कि एक शर्मिंदा युवा का था, जो 6 मार्च की दोपहर को मीडिया से मुखातिब हुआ था. दाढ़ी अब भी बढ़ी हुई थी. राहुल ने कहा, ‘चुनाव अभियान का नेतृत्व मैंने किया था, इसलिए यह (हार) मेरी जिम्मेदारी है.’ और इसके बाद उन्होंने आश्चर्यजनक ढंग से एक समझ्दारी की बात भी जोड़ दी. वह यह कि ‘नतीजे मेरे लिए अच्छा सबक हैं.’ एक पत्रकार की पीठ थपथपाकर और एक और को हाथ हिला कर, वह वापस 10 जनपथ चले गए, जहां प्रियंका ने अपने मायूस भाई को गले लगाकर सांत्वना दी.
प्रधानमंत्री के पद पर राहुल की ताजपोशी की दिशा में पहले कदम के तौर पर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस में नई जान फूंकी जानी थी. इसी वजह से कई उम्मीदवारों की ओर से मांग किए जाने के बावजूद राहुल को उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री पद के दावेदार के तौर पर पेश नहीं किया गया था. इलाहाबाद से चुनाव हारे कांग्रेस के एक उम्मीदवार बताते हैं, ‘हमसे कहा गया था कि राहुल गांधी राष्ट्रीय नेता हैं, जिन्हें किसी एक राज्य तक सीमित नहीं किया जा सकता.’ उत्तर प्रदेश में शर्मनाक हार ने राहुल गांधी की राष्ट्रीय हसरतों को ठंडे बस्ते में डाल दिया है.
राहुल पहले ही अपने वॉर रूम को गुजरात ले जा चुके हैं. कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश के साथ इस राज्य में चुनाव अगले साल की शुरुआत में होने हैं. इन तीनों राज्यों में भाजपा का शासन है, लेकिन असली मुकाबला गुजरात में है. अगर राहुल नरेंद्र मोदी से यह राज्य छीनने में सफल रहते हैं, तो उन्हें वह प्रतिष्ठा काफी हद तक वापस मिल जाएगी, जो उन्होंने उत्तर प्रदेश में खो दी है.
परिवार पर कांग्रेस की निर्भरता को देखते हुए, 2014 में भी पार्टी के स्टार प्रचारक राहुल ही रहेंगे. लेकिन उन्हें प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर पेश किया जाएगा या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि कांग्रेस इन चुनावों और इसके बाद 2013 के अंत में होने वाले मध्य प्रदेश और राजस्थान के चुनावों में कैसा प्रदर्शन करती है. अगर यही स्कोर कार्ड फिर दोहराया गया, तो इस बात की संभावना ज्यादा होगी कि राहुल प्रधानमंत्री बनने की अपनी हसरतों को 2019 के लिए स्थगित कर दें और उसके स्थान पर मनमोहन सिंह-सोनिया गांधी किस्म की कोई व्यवस्था अपना ली जाए. इस तरह के चुटकुले एसएमएस पर पहले ही चल पड़े हैं कि उत्तर प्रदेश में पराजय से मनमोहन सिंह के राजनैतिक कार्यकाल को विस्तार मिल गया है. रोचक बात है कि 7 मार्च को यह पूछे जाने पर कि 2014 में कांग्रेस का प्रधानमंत्री पद का दावेदार कौन होगा, सोनिया गांधी ने यह कहते हुए गोलमोल-सा जवाब दिया था कि ‘अभी तो 2012 चल रहा है.’
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मणिशंकर अय्यर ने मीडिया से कहा, ‘राहुल आसानी से प्रधानमंत्री के पद पर बैठ सकते थे. इसकी बजाए उन्होंने जमीन पर काम करने का फैसला किया और सबसे कठिन मैदान चुना.’ वे याद करते हैं कि कैसे दिवंगत राजीव गांधी के नेतृत्व में 1983 में कांग्रेस कर्नाटक और आंध्र प्रदेश का चुनाव हार गई थी. इसके बावजूद कांग्रेस के भीतर राजीव की हैसियत निर्विवाद रही. इसी प्रकार, मौजूदा पराजय के लिए किसी ने भी राहुल को दोषी नहीं माना. इसके विपरीत, कई कांग्रेसी सारा दोष अपने सिर पर लेने के लिए होड़ में हैं.
राहुल पहले भी ठोकर खा चुके हैं. 2010 में बिहार में पार्टी के विनाशकारी चुनाव अभियान का नेतृत्व उन्हीं ने किया था. वहां वे राज्य स्तर के नेतृत्व को अभी तक तैयार नहीं कर सके हैं. लेकिन उत्तर प्रदेश का झटका बिहार से कहीं बड़ा था. यह वह राज्य है जिसे उन्होंने अपनी कर्मभूमि बनाया था.
कांग्रेस के एक महासचिव बताते हैं कि वे जल्द ही फिर उत्तर प्रदेश जाएंगे और वे स्थानीय नेतृत्व की एक कतार खड़ी करने के लिए उत्सुक हैं. इन महासचिव के अनुसार राहुल तीन केंद्रीय मंत्रियों-आरपीएन सिंह, जितिन प्रसाद या प्रदीप जैन में से किसी एक को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर पेश करने पर विचार कर रहे हैं. राहुल ने उत्तर प्रदेश से जो सबक सीखे हैं, उनमें से एक सबक यह है कि चुनाव जीतने के लिए राज्य में एक विश्वसनीय नेता की जरूरत होती है.
राज्य के वर्तमान नेतृत्व में कांग्रेस विधायक दल के नेता प्रमोद तिवारी और प्रदेश कांग्रेस कमेटी की अध्यक्ष रीता बहुगुणा-जोशी हैं. दोनों अपने निर्वाचन क्षेत्र को छोड़कर कहीं से चुनाव नहीं जीत सकते. कांग्रेस के एक स्थानीय नेता बताते हैं, ‘रीताजी जानती हैं कि उनके पिता (हेमवती नंदन बहुगुणा) को इंदिराजी ने किस तरह काट-छांट कर बौना कर दिया था. उन्हें पता है कि बड़े कद का नेता होना कांग्रेस में कितना खतरनाक होता है.’
इस हिंदीभाषी क्षेत्र के महान रक्षक की अपनी स्वयंभू भूमिका का राहुल ने बहुत आनंद लिया. राहुल अब जानते हैं कि राज्य की दहलीज छूकर भाग जाने वाले उनके दौरों से कोई लाभ नहीं हुआ है. अगर कांग्रेस राज्य में वापसी करना चाहती है, तो उसे जरूरत है सशक्त स्थानीय नेतृत्व की. राहुल की कृपा कर देने के अंदाज की राजनीति को-उत्तर प्रदेश के एक वर्ग के लिए एक पैकेज का वादा करना, दूसरे के लिए आरक्षण की जुगाड़ करना और तीसरे के लिए एक जातिगत चेहरा पेश करना-राज्य के लोगों ने जाहिरी तौर पर ठुकरा दिया है.
राहुल के साथ समस्या यह है कि वे सोचते अंग्रेजी में हैं और फिर अपने विचारों का हिंदी में अनुवाद करते हैं. 14 नवंबर को फूलपुर में रैली के दौरान उत्तर प्रदेश के लोगों को भिखारी कह देने की शर्मनाक घटना इसी कारण घटी थी. लखनऊ के एक कांग्रेसी सफाई देते हैं, ‘वे वास्तव में कहना यह चाहते थे कि उत्तर प्रदेश को रोजगार के इतने अवसर प्रदान कराने चाहिए, जिससे यहां के लोगों को काम के लिए बाहर न जाना पड़े.’ संयोगवश, जो संदेश सुनाई दिया था, वह यह नहीं था.
संवाद की इसी खाई के कारण राहुल के भाषण वोटरों के साथ भावनात्मक जुड़ाव की बजाए अकसर प्रवचन की तरह लगते हैं. सोनिया गांधी कह चुकी हैं कि उत्तर प्रदेश में समस्या यह थी कि वहां ‘जरूरत से ज्यादा नेता थे.’ अगर राहुल पार्टी के नेता के तौर पर सफल होना चाहते हैं, तो उन्हें अपने सलाहकारों की टीम का नए सिरे से मूल्यांकन करना चाहिए.
चुनाव के बाद राहुल ने मीडिया के चुने हुए लोगों के साथ बातचीत में कहा कि वे चाहते थे कि उन्हें मुख्यमंत्री पद के दावेदार के तौर पर पेश किया जाए, लेकिन उनकी पार्टी के नेताओं की राय इसके विरुद्ध थी. राहुल को गलत दिशा में भटकाए जाने का मौका देने की बजाए अपने अंतर्मन की बात सुननी चाहिए थी.
इसके अलावा, मायावती ने यह बात सामने रखी है कि कांग्रेस पार्टी की आरक्षण की राजनीति मुसलमानों को पक्के तौर पर समाजवादी पार्टी के खेमे में धकेलने में सफल रही है. आरक्षण की इस राजनीति की शुरुआत की थी कैबिनेट मंत्री सलमान खुर्शीद और वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने. दिग्विजय सवाल करते हैं, ‘हमने सिर्फ 4.5 प्रतिशत आरक्षण की बात कही थी, समाजवादी पार्टी ने 18 प्रतिशत आरक्षण की बात कही. तो आप कैसे कह सकते हैं कि इससे हमें नुकसान हुआ?’
लेकिन उनके धांय-धांय करते बयानों ने कांग्रेस के चुनाव प्रचार को गंभीर नुकसान पहुंचाया था. नुकसान अगर राज्यपाल का शासन लागू करने के दिग्विजय के बयान से नहीं हुआ, तो खुर्शीद के इस दावे से हुआ कि बटला हाउस मुठभेड़ की तस्वीरें देखने के बाद सोनिया रो पड़ी थीं. इसी झुंड में शामिल होने के लिए बेताब एक और कैबिनेट मंत्री, श्रीप्रकाश जायसवाल ने दावा किया कि ‘राहुल अगर चाहें, तो वे आधी रात को भी प्रधानमंत्री बन सकते हैं.’
इसी किस्म के अहंकार को उत्तर प्रदेश, पंजाब, गोवा और यहां तक कि बहुत बड़े पैमाने पर उत्तराखंड के मतदाताओं ने भी ठुकरा दिया है. गांधी परिवार के पास राज करने का खानदानी अधिकार अब नहीं रह गया है, यहां तक कि अमेठी और रायबरेली की खानदानी मिल्कियत में भी नहीं.
इससे भी बढ़कर, राहुल की एंग्री यंग मैन वाली छवि ने उत्तर प्रदेश के मतदाताओं को एकजुट करने के बजाए उल्टा हैरान कर दिया था. बढ़ी हुई दाढ़ी और कुर्ते की चढ़ाई हुई बांहों से उनकी यह छवि बनाई गई थी. इलाहाबाद के भाजपा नेता केशरीनाथ त्रिपाठी कहते हैं, ‘अमिताभ बच्चन की एंग्री यंग मैन वाली छवि एक पीढ़ी पहले आकर्षित करती थी. आज का युवा भिन्न है और उसका दृष्टिकोण कहीं व्यापक है.’
राहुल गांधी की यह छवि कांग्रेस सांसद और फिल्म अभिनेता राज बब्बर के दिमाग की उपज थी, जो चुनाव नतीजे आने के दिन बाहर चले गए थे. बब्बर खुद भी अमिताभ की पीढ़ी के अभिनेता हैं. ऐसे में कोई आश्चर्य की बात नहीं कि इस तरह के लुक का दांव बेकार गया. हालांकि सोनिया ने खुद को पृष्ठभूमि में रखते हुए अपने बेटे को विधानसभा चुनावों के मौजूदा दौर में पार्टी का नेतृत्व करने की छूट दी थी, लेकिन बुरी तरह मिली पराजय ने सोनिया को फिर बाहर आने के लिए मजबूर कर दिया है. उन्होंने कांग्रेसियों की खिंचाई की है और उन्हें ‘तैयार रहने के लिए कहा है.’ वह तैयार होने की इस सलाह में यह भी जोड़ सकती थीं कि, ‘और अपनी बाहें चढ़ाना बंद कर दें.’
चूर हुआ राज का सपना पंजाब के झटके ने कांग्रेस का भविष्य अंधारकमय कर दियाअसित जौली और प्रिया सहगल
6 मार्च की दोपहर. अस्सी बरस से ज्यादा के हो चुके मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल को सत्ता में वापस लौटने की खबर की उम्मीद शायद नहीं थी. लेकिन जब चुनाव परिणामों ने इसका ऐलान कर दिया, तो उनके गांव में जश्न मनाया जाने लगा.
मुख्यमंत्री एक खुली जीप पर सवार हुए और उन्होंने अपने गांव बादल में 30 मिनट का विजय जुलूस निकाला. यह वही गांव है, जहां से उन्होंने 1947 में एक सरपंच की हैसियत से अपना राजनैतिक सफर शुरू किया था. उनके पीछे जीत की खुशी में नगाड़े बजाती भीड़ थी.
इससे ठीक उल्टा नजारा था, कांग्रेस के मुख्यमंत्री पद के दावेदार अमरिंदर सिंह के निवास का. यहां 30 जनवरी को वोट पड़ने के बाद से ही जश्न का माहौल था. लेकिन 6 मार्च को मतगणना शुरू होने के 15 मिनट के बाद अचानक मातम-सा छा गया. शुरू में कांग्रेस 11 सीटों पर आगे थी, जबकि शिरोमणि अकाली दल-भारतीय जनता पार्टी (एसएडी-भाजपा) गठबंधन दो सीटों पर. इसके बाद के आकलन तेजी से सत्तारूढ़ एसएडी-भाजपा गठबंधन की भारी जीत के शुरुआती संकेत देने लगे.
पिछले 40 वर्ष से पंजाब अकाली और कांग्रेस सरकारों में रद्दोबदल करता रहा है. अमरिंदर को अपनी जीत का इस हद तक विश्वास था कि उन्होंने दोपहर में विजय के बाद की एक प्रेस कॉन्फ्रेंस तक तय कर रखी थी. लेकिन इसकी बजाए वे प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफे की पेशकश करने लगे. उन्होंने घोषणा कर दी थी कि यह उनका अंतिम चुनाव होगा.
उन्होंने कहा था, ‘मैं इस बरस 70 साल का हो जाऊंगा. मुझे नहीं लगता कि मैं कोई और चुनाव लड़च्ंगा.’ अमरिंदर की पराजय से अवसरवादी कांग्रेसी अभी से 2017 में होने वाले विधानसभा चुनावों के दौरान 'चीफ मिनिस्टर इन वेटिंग' बनने के लिए लामबंदी करने लगे हैं.
राज करने के लिए ही जन्म लेने के नशे में धुत्त कांग्रेस को पंजाब की हार ने झकझोर कर रख दिया है. कांग्रेस को उम्मीद थी कि उत्तर प्रदेश में घटिया प्रदर्शन के दाग को वह पंजाब और उत्तराखंड की जीत से साफ कर लेगी. लुधियाना के 'बेहद हताश' सांसद और पार्टी के प्रवक्ता मनीष तिवारी कहते हैं कि विपक्ष में होने के बावजूद, राज्य इकाई के सिर पर उस सत्ता विरोधी रुझान का बोझ था, जिसका निशाना केंद्र की कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार थी.
वे स्वीकार करते हैं, ‘पूरे शहरी भारत में एक चिढ़ा हुआ कांग्रेस विरोधी मूड है.’ निजी बातचीत में कांग्रेस के अधिकांश नेता उनसे सहमति जताते हैं. इतनी ही चिंता की बात वह आवरण भी है, जिसे कांग्रेस नेतृत्व ने ओढ़ रखा है. सोनिया कह चुकी हैं कि इन परिणामों का यूपीए-2 की स्थिरता पर कोई असर नहीं पड़ेगा. हो सकता है, आंकड़ों के लिहाज से न पड़े, क्योंकि मुलायम सिंह यादव कह चुके हैं कि वे भाजपा को बाहर रखने के लिए कांग्रेस को समर्थन देना जारी रखेंगे. लेकिन हाल की चुनावी पराजय से सरकार चलाने की क्षमता पर निश्चित तौर पर असर पड़ेगा.
मीडिया के सामने सोनिया गांधी ने नुकसान को यह कहते हुए कम करके दिखाया कि ‘हमें पंजाब से ज्यादा की उम्मीद थी.’ सोनिया ने अपने गिरेबान में झंकने की बजाए मनप्रीत बादल की पीपुल्स पार्टी ऑफ पंजाब (पीपीपी) पर दोष मढ़ना बेहतर समझा. उन्होंने कहा, ‘पीपीपी ने 23 सीटों पर हमें नुकसान पहुंचाया है.’ एक हद तक वे सही भी हैं. एक भरोसेमंद तीसरा विकल्प जुटाने की मनप्रीत की पूरी कोशिशों के बावजूद, वे सिर्फ सत्ता विरोधी वोट कांग्रेस से परे ले जा सके.
लेकिन उत्तर प्रदेश की तरह पंजाब में कांग्रेस के चुनाव प्रचार अभियान में खोट थी. समाजवादी पार्टी और अकाली दल के विपरीत कांग्रेस खुद को समय के साथ बदलने में नाकाम रही. चंडीगढ़ के इंस्टीट्यूट फॉर डेवलपमेंट ऐंड कम्युनिकेशन के निदेशक प्रमोद कुमार कहते हैं कि अकाली-भाजपा गठबंधन की जीत ‘अकाली दल के परंपरागत एजेंडा में अच्छे-खासे बदलाव’ के साथ हुई है.
पार्टी ने ऑपरेशन ब्लूस्टार के बाद की राजनीति से अपने संबंध पूरी तरह समाप्त करते हुए विभेदकारी पंथिक नारों से पूरी तरह तौबा कर ली. उसने लोकलुभावन नारों और विकास को चुना. शिरोमणि अकाली दल ने नए सिरे से सोशल इंजीनियरिंग करते हुए शहरी हिंदुओं को अपने साथ जोड़ा. गौरतलब है कि अकाली दल की तरफ से पहली बार उम्मीदवार बनाए गए 12 हिंदुओं में से 9 चुनाव जीत गए.
इसके विपरीत अमरिंदर और उनके लोगों ने अपने समर्थकों से वादा किया कि उनके साथ चले दमनचक्र का बदला लिया जाएगा और साथ ही वादा किया कि ‘अकालियों को सबक सिखाया जाएगा.’ लेकिन वे लोगों को भविष्य के पंजाब का अपना नजरिया बताने में असमर्थ रहे. कांग्रेस का घोषणापत्र भी उपमुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल के विकास एजेंडे का कोई विश्वसनीय और जमीनी विकल्प पेश नहीं कर सका.
पंजाब के साथ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पहचान भी नजदीकी तौर पर जुड़ी हुई है. यूपीए के खिलाफ नाराजगी इस हद तक थी कि कुछ ही कांग्रेस प्रत्याशियों ने प्रधानमंत्री को अपने गृह राज्य में प्रचार के लिए बुलाने की मांग की. सोनिया स्वीकार कर चुकी हैं कि हार की एक वजह महंगाई हो सकती है. पवन बंसल, अंबिका सोनी, अश्विनी कुमार जैसे राज्य से अन्य मंत्रियों और यहां तक कि कपिल सिब्बल की पंजाबी पहचान भी वोटरों को अपने पक्ष में करने में नाकाम रही.
चुनाव हारीं, लड़ाई नहींमायावती अपना सामाजिक आधार बरकरार रखने में सफल रहीं
एस प्रसन्नाराजन
हार सारी गलतफहमियों को खत्म कर देती है. जिन चुनाव परिणामों ने मायावती को अजेयता के ढोंग से निकालकर कड़वी हकीकत के धरातल पर लाकर पटक दिया था, उसके अगले ही दिन वे अपनी संगमरमर की बेजान मूर्तियों के उलट कहीं ज्यादा मानवीय नजर आ रही थीं. जब वे लखनऊ में मीडिया का सामना करने लिए पहुंचीं, तो उनकी चाल में महारानियों वाला अंदाज नहीं रह गया था. और जब वे बोलीं, तब उनके शब्द जी-हुजूरिया रिपोर्टरों के लिए दिव्य आदेश की तरह नहीं रह गए थे.
उन्होंने विनम्रता के साथ सवालों का जवाब दिया, बल्कि सवालों को सहा. मायावती जब तक अवध की महारानी थीं तब तक उनमें यह विनम्रता नहीं थी. मायावती ने अपने पतन की सटीक समीक्षा की, भावुकता को हावी नहीं होने दियाः ‘राज्यभर में दलितों ने बसपा को वोट दिया है. इसी वजह से बसपा दूसरे नंबर पर है. ऐसा न होता, तो मेरी हालत वैसी होती, जैसी बिहार में लालू प्रसाद की हुई.’ बिल्कुल ठीक कहा. वे उत्तर प्रदेश हार गई हैं, लेकिन अपना आधार उन्होंने कमोबेश बरकरार रखा है. आंकड़े उन्हें सही साबित करते हैं.
समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी को मिले वोटों में सिर्फ 3.3 प्रतिशत का अंतर है. हालांकि मायावती को इस बार मिले 25.9 प्रतिशत वोट, 2007 के विधानसभा चुनावों में उन्हें मिले वोटों से 4.5 प्रतिशत कम हैं. और, 2007 में उन्हें भी वैसी ही एकतरफा जीत मिली थी, जैसी 2012 में मुलायम सिंह को मिली है. इसके अलावा, पिछले दो लोकसभा चुनावों और हाल के विधानसभा चुनावों में मायावती के वोटों में कोई खास उतार-चढ़ाव नहीं हुआ है; वह 24 से 27 प्रतिशत के बीच ही रहा है. ऐसा सामाजिक वोट, जो नष्ट न होता हो और आसानी से ट्रांसफर हो जाता हो, राजनीति में अनूठा है.
लेकिन अकव्ले दलित, मायावती को उत्तर प्रदेश नहीं जिता सकते. और मायावती को यह बात 2007 में अपनी जीत की ऊंचाई से और उसके पांच साल बाद धड़ाम होने की अपनी रफ्तार से समझ लेनी चाहिए. और इस मामले में भी मायावती खुद ही अपनी पार्टी की सबसे बड़ी विश्लेषक हैं. उन्होंने कहा, ‘कांग्रेस को कमजोर देखकर और पिछड़ों और सवर्णों को भाजपा की तरफ जाते देखकर मुसलमानों ने समाजवादी पार्टी को थोक में वोट दिया. 70 प्रतिशत मुसलमानों ने समाजवादी पार्टी को वोट दिया.’
लेकिन जातियों का गणित पूरी कहानी नहीं कहता. इससे यह स्पष्ट नहीं होता है कि जो मायावती पिछले पांच साल से अपने कार्यालय का हरेक दिन 6 मार्च की तैयारी में बिता रही थीं, वे ग्रामीण गरीबों को अपने पक्ष में क्यों नहीं ला सकीं. यह विफलता वंचितों की लालसाओं और उनके सशक्तीकरण पर बनी पार्टी की एकमात्र नेता की सीमाओं को ही उजागर करती है. उत्तर प्रदेश का विकास सूचकांक कुशासित पिछड़े इलाकों की रटी-रटाई धुन को नकारता है.
मायावती के राज में उत्तर प्रदेश ने 7.28 प्रतिशत की विकास दर दर्ज की है, जो 8.15 प्रतिशत के राष्ट्रीय औसत से थोड़ा ही कम है. और यह भी देखें कि इससे पहले के 10 वर्षों में जब भारत की विकास दर 7.4 प्रतिशत थी, तब उत्तर प्रदेश का औसत 4.4 प्रतिशत के निराशाजनक स्तर पर था. विकास का सूचकांक प्रसन्नता के सूचकांक से मेल नहीं खा रहा था और वोट जुटाने में प्रसन्नता का सूचकांक कहीं ज्यादा सक्षम होता है.
मायावती खुद अपने राजसी अंदाज के अलावा किसी और को दोष नहीं दे सकतीं. लखनऊ में 5 कालिदास मार्ग की कोठी में वे ज्यादा भीतर धंसती चली गईं और उतना ही ज्यादा उन मतदाताओं के दिल से दूर होती गईं, जिन मतदाताओं ने 2007 में उन्हें शिखर पर पहुंचाया था. सामाजिक न्याय के भावावेश की लहर पर सवार कोई नेता लोगों की अनदेखी नहीं कर सकता. विश्वास न हो तो जे.
जयललिता या लालू प्रसाद से पूछकर देख लीजिए. मायावती के पतन में उम्मीद की एकमात्र किरण यह है कि दलितों ने पूरी तरह उनका साथ छोड़ा नहीं है और यह कि मायावती आज भी भारत की सबसे शक्तिशाली नेताओं में से एक हैं. अब अगली लड़ाई के लिए खुद को तैयार करने के लिए उनके पास पूरे पांच साल हैं. सत्ता से बाहर रहकर भी वे बुनियादी हकीकत को बेहतर ढंग से समझ सकती हैं.