
अनुसूचित जातियां, जो तकरीबन 1,300 समुदायों में फैली हैं और करीब 20 करोड़ या भारत की कुल आबादी (2011 की जनगणना) की 16 फीसद हैं, सामाजिक-आर्थिक संकेतकों के लिहाज से सबसे ज्यादा दरकिनार लोगों में हैं.
'छुआछूत' का उन्मूलन हो चुका है लेकिन सामाजिक-आर्थिक बेहतरी, साथ ही समाज की प्रवृत्तियों में बदलाव के जरिए उन्हें मुख्यधारा में लाने का काम गणतंत्र में सात दशकों बाद भी चल ही रहा है. उनकी हालत में सुधार लाने की कोशिशें शिक्षा और राजनीतिमें तथा सरकारी पदों पर आरक्षण और हाल ही आर्थिक उत्थान तथा आंत्रेप्रेन्योशिप में ज्यादा भागीदारी के जरिए की गई हैं.
पहले उपलब्धियों पर एक नजर. अनुसूचित जातियों के लोगों में साक्षरता 1961 में 10.2 फीसद थी, जो 2011 तक छलांग लगाकर 66 फीसद पर पहुंच गई. ऊंचे पदों पर पहुंचने की बात करें तो भारत के दो राष्ट्रपति इस समुदाय के रहे हैं. कारोबारी मोर्चे पर देखें तो अनुसूचित जातियों के लोगों की मिल्कियत वाले उद्यमों में 170 फीसद की बढ़ोतरी हुई, जो 2002 और 2007 के बीच 11 लाख से 28 लाख पर पहुंच गए. दलित इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स ऐंड इंडस्ट्री (डीआइसीसीआइ) के संस्थापक चेयरमैन मिलिंद कांबले कहते हैं, ''हमारा मिशन नौकरी मांगने वाले नहीं बल्कि नौकरी देने वाले बनना है और हमारा मकसद पूंजी के साथ जाति से लडऩा है.''
मगर इस तबके के खिलाफ होने वाले अपराध भारत के लिए हकीकत की याद दिलाने वाले हैं. 2001 में उनके खिलाफ 33,501 अपराध दर्ज हुए; 2019 में यह संख्या 45,922 थी. एससी/एसटी (अत्याचारों की रोकथाम) कानून के प्रावधानों के वाबजूद जाति आधारित खासकर एससी महिलाओं के विरुद्ध अपराध बेरोकटोक जारी हैं.
केंद्र सरकार की नौकरियों में कुल हिस्सेदारी जहां एससी की आबादी के स्तर के बराबर ही है, वहीं समूह ए की सेवाओं में काम कर रहे एससी लोगों की तादाद समूह बी और सी में उनकी तादाद के मुकाबले कहीं कम है. चयन के जरिए भरे जाने वाले शीर्ष निर्णयकारी पदों पर एससी का प्रतिनिधित्व अफसोसनाक ढंग से कम है—2019 में भारत सरकार के 89 सचिवों में से केवल एक इस तबके से था. पूर्व आइएएस और लोकसभा सांसद भगीरथ प्रसाद कहते हैं, ''राजनैतिक लोकतंत्र तो पा लिया गया है, लेकिन सामाजिक लोकतंत्र अब भी कुछ दूर है. आर्थिक हैसियत अहम है क्योंकि उसी से सामाजिक हैसियत तय होती है.''
पोषण के मोर्चे पर देखें: 2015-16 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे 'चार' के मुताबिक, पांच साल से कम उम्र के 42.8 फीसद एससी बच्चों की शारीरिक वृद्धि रुकी हुई पाई गई थी और 39.1 फीसद बच्चे कम वजन के थे. इस मामले में सरकारी हस्तक्षेप अनुपूरक आहार में अंडे नहीं देने के निर्णय सरीखी राजनीति से बाधित रहा है.