कवि-कथाकार विनोद कुमार शुक्ल कोरोना परिदृश्य में मास्क के साथ अपने अनुभव, वायरस, पुस्तक मेला और अपने लेखन पर.
● मास्क के साथ बीते बरसों का अनुभव कैसा रहा? सवाल इसलिए कि एक दिन मन में काल्पनिक दृश्य कौंधा कि मास्क लगाए हुए मुक्तिबोध बाजार से गुजर रहे हैं. ठीक उसी वक्त आपकी याद आई कि जब आप मास्क पहने निकलते होंगे तो क्या ख्याल आता होगा?
मेरे पास दोनों तरह के मास्क हैं. पीछे बांधने वाला और कानों में लटकाने वाला. पीछे बांधने वाला मुझसे बनता नहीं. कान में लटकाने वाला बन जाता है. मान लीजिए कोई आ जाए तो मैं मास्क ढूंढ़ने लग जाता था और आने वाला बाहर प्रतीक्षा में खड़ा. मैंने तो बाहर जाकर मास्क भी नहीं खरीदा. बाहर गया भी कहां. उम्र की ऐसी स्थिति में हूं कि मुश्किल और झंझटें अधिक हैं. मास्क लगाने में भी तकलीफ होती है.
●मास्क लगाए कभी खुद को आईने में देखा हो तो आपके भीतर के लेखक ने कुछ कहा होगा ?
हाथ धोते समय कभी आईने पर नजर चली जाती है. वैसे मैंने आईना देखना छोड़ दिया. दाढ़ी बेटा बना देता है. बिना दाढ़ी बनाए भी दिन बीत जाते हैं. हाथ से छूकर देखता, अनुभव करता हूं. चश्मा कई बार लगा नहीं पाता—तो एक धुंधलके में ही जीवन है.
● दूसरे रचनाकारों की तरह क्या आपने भी इस वायरस को लेकर कुछ लिखा?
नहीं. इस बारे में बिलकुल नहीं लिखा. सभी ने लिखा है. मैंने इसे भुलाए रखा, जबकि दिनचर्या इसके कारण पूरी तरह बदल गई थी. इसे भुलाए रखने में मुझसे भूल भी हो जाती थी. 24 घंटे की परेशानी. अपने को दूसरों से अलग रखना कितना मुश्किल है! संवेदनाएं बदल गईं. अब देखिए ओमिक्रॉन आ गया.
● अगले महीने विश्व पुस्तक मेला है. प्रगति मैदान में भरने वाले किताबों के उस संसार का कभी आप हिस्सा बनें?
नहीं! मैं कभी भी नहीं गया वहां. अब अगर पुस्तक मेला हो रहा है तो मेरी किताबें भी वहां जाएंगी. मैं अपनी किताबों को जाते हुए जैसे अपने जाने को ही देख लिया मान लेता हूं.
● इन दिनों लिखना-पढ़ना कैसा चल रहा है?
लिखना-पढ़ना तो बराबर चल रहा है. 12 सालों से मैं बच्चों के लिए लगातार लिख रहा हूं. मतलब किशोर उम्र के लिए है. 6-7 किताबें प्रकाशित होने को पेंडिंग में भी हैं.
—राजेश गनोदवाले