कई नेताओं को कामयाबी की खातिर ऐतिहासिक दुविधा को झटक देना पड़ता है. राहुल गांधी को न सिर्फ यह करना पड़ा, बल्कि उन्हें अपनी विरासत के संकोच से भी उबरना पड़ा. उनके सामने खासकर एक महान राजनैतिक परिवार में जन्म लेने और उससे उत्पन्न होने वाली आकांक्षाओं की कसौटी पर खरा उतरने की चुनौती थी. राजनैतिक जीवन के शुरुआती दौर में उन पर श्रेष्ठता थोपने की कोशिशें हुईं.
वे प्रयास उलटे पड़े तो उससे राहुल और भी अधिक संकोची और सतर्क हो गए. उनकी विरासत ही उनके लिए रुकावट बन गई. राहुल गांधी का असली विकास तब शुरू हुआ जब उन्होंने महसूस किया कि सत्ता आसानी से किसी दूसरे के लिए रास्ते नहीं बनाती. वारिसों को उनकी विरासत से एक बड़ी पूंजी तो मिल सकती है—चाहे वह नाम की शक्ल में हो, या प्रतिष्ठा, आभा या फिर चाटुकार पार्टी मशीनरी के रूप में हो. लेकिन अगर राहुल को अपने कुछ पुरखों जैसा नाम-धाम कमाना है, तो साफ है कि उन्हें कठिन मेहनत से इतिहास में अपनी जगह हासिल करनी होगी. नामदार को कामदार बनना होगा.
इस एहसास ने राहुल की शख्सियत को नेहरू-गांधी परिवार के उतावले, अधीर और बेपरवाह उत्तराधिकारी से देश की सबसे पुरानी पार्टी के गंभीर, सूझ-बूझ वाले और निडर नेता के रूप में बदल दिया है. 29 अप्रैल को अपने चार्टर्ड फाल्कन जेट विमान में राहुल ने इंडिया टुडे से खास बातचीत में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 'नामदार' के ताने पर तमतमाकर कहा, ''यह कहना आसान है. मेरे परिवार के लोग राजनीति में रहे हैं, लेकिन उनके अनुभव से मेरा अनुभव एकदम अलग है. मेरा अनुभव जबरदस्त संघर्ष और हिंसा वाला रहा है. मैंने अपने पिता और दादी की हत्या देखी है, मैंने चुनाव जीते और हारे हैं. आप मेरे पूरे अनुभव को एक शब्द में कैसे समेट सकते हैं? मैं क्या हूं और क्या किया है, उससे मुझे समझें और मेरा आकलन करें.''
विडंबना यह है कि उनके कटु आलोचक नरेंद्र मोदी ने 2014 में एक लहर पैदा की, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को अपूर्व सफलता दिलाई और 543 सदस्यीय लोकसभा में कांग्रेस को महज 44 सीटों के सबसे निचले स्तर ला दिया. राहुल इस अपमानजनक हार को 'गजब का तूफान' बताते हैं जिसने पार्टी के कामकाज और यूपीए-2 के अंतिम वर्षों में सरकार की गलतियों के निर्मम आत्मनिरीक्षण का माहौल तैयार किया. राहुल बातचीत में उन गलतियों को कबूल करते हैं.
इसी संकट की पीड़ा ने उनके राजनैतिक दर्शन को आकार दिया और उसी प्रकार ढाला जिस प्रकार विपश्यना के कठिन सत्रों ने उन्हें अपनी आत्मा से साक्षात्कार का मौका प्रदान किया. नई सूझ-बूझ और दृढ़ संकल्प के साथ अपने नए अवतार में राहुल ने कांग्रेस को फिर से खड़ा करना शुरू किया, जो मोदी और भाजपा को एक दुर्जेय चुनौती देने लगी. राहुल को सम्मान मिलने लगा और 2017 में कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में कार्यभार संभालने के बाद उनकी योजना को गति मिली. उनके अध्यक्ष बनने के बाद पिछले साल हुए चुनावों में पुनर्जीवित कांग्रेस ने हिंदीपट्टी के राज्यों—मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ से भाजपा को सत्ता से बाहर कर दिया.
हालांकि राहुल ने कांग्रेस की राष्ट्रीय मंच पर वापसी की जो साहसिक योजनाएं बनाई हैं और जो रणनीतियां तैयार की हैं, उनकी असली परीक्षा 2019 के चुनाव में होगी. यह कई मायनों में पार्टी के लिए करो या मरो की लड़ाई है. राहुल को यह बखूबी एहसास है कि अगर कांग्रेस इस बार भी 2014 जैसा खराब प्रदर्शन करती है, तो वह न केवल पार्टी के लिए, बल्कि नेहरू-गांधी परिवार के लिए भी बहुत घातक सिद्ध होगा (रिकॉर्ड के लिए यह याद किया जा सकता है कि 2019 में उनके परनाना मोतीलाल नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में पदभार ग्रहण किए सौ साल पूरे हो रहे हैं) अगर मोदी की मजबूत वापसी होती है, तो भाजपा उन राज्यों में कांग्रेस सरकारों को अस्थिर करने की कोशिश करेगी, जहां वह अरसे बाद सत्ता में लौटी है.
यही नहीं, दूसरी बार सत्ता में लौटने पर मोदी सरकार राहुल और उनके परिवार के सदस्यों के खिलाफ कानूनी मामलों को नए सिरे और नए जोश से आगे बढ़ाने की कोशिश करेगी ताकि उन्हें बदनाम किया जा सके. हालांकि बातचीत में राहुल कांग्रेस की जीत का अनुमान लगाने को तैयार नहीं हैं (देखें बातचीत), लेकिन वे इन चुनावों में मोदी और भाजपा की हार को पक्का मानकर चल रहे हैं. वे कहते हैं, ''मुझे कुछ और नहीं दिखाई दे रहा. अर्जुन की तरह, मैं केवल मछली की आंख देख रहा हूं, और मैं उस लक्ष्य को बेधने वाला हूं.''
हिंदू पौराणिक कथाओं के रूपकों का उपयोग राहुल के उन कई तीरों में से एक है, जिन्हें राहुल ने भाजपा पर हमले की अपनी रणनीति के तहत अपने तरकस में भरा है. 2014 में हार के बाद कांग्रेस पार्टी को एहसास हुआ कि उसे अपनी मुस्लिम समर्थक छवि से निजात पाने और हिंदू वोट बैंक को लुभाने की जरूरत है. 2015 की गर्मियों में केदारनाथ मंदिर की बेहद दुर्गम चढ़ाई 2019 में भाजपा को चुनौती देने की दिशा में उनका पहला कदम था. उन्होंने तब खुद को दत्तात्रेय गोत्र का जनेऊधारी शिवभक्त ब्राह्मण घोषित किया.
मंदिरों की अपनी यात्राएं जारी रखने के साथ-साथ राहुल ने भारत यात्रा भी शुरू की, जिसमें पंजाब की सब्जी मंडी से लेकर केरल के मछुआरों तक, ट्रेन से यात्रा करना और विमान में इकोनॉमी क्लास में उड़ान करना शामिल था. हर यात्रा में एक अंतर्निहित संदेश होता था—अगर मोदी सूट-बूट की सरकार का प्रतिनिधित्व करते हैं, तो राहुल गरीबों के मसीहा बन रहे थे, यहां तक कि अपने कुर्ते की फटी जेब भी दिखा रहे थे. सबसे बड़े बदलावों में उनका सोशल मीडिया में उनका विश्वास बढऩा था जहां मोदी और भाजपा पहले से ही बड़े खिलाड़ी हैं. राहुल ने इसका इस्तेमाल भाजपा पर अपने भरपूर प्रहारों के लिए किया. इसलिए 'बृहस्पति का वेग' और 'सत्ता जहर है' की जगह अब 'गब्बर सिंह टैक्स' और 'मिस्टर 56 इंच' और सबसे ताजा 'चौकीदार चोर है' जैसे ट्वीट दिखते हैं.
पिछली गलतियों से सीखते हुए, राहुल ने अध्यक्ष के रूप में पार्टी को चलाने के अपने तरीके को भी बदल दिया. अब वे सिर्फ विदेशों में पढ़े-लिखे, आंकड़ों का विश्लेषण करने वाले ऐसे युवा ब्रिगेड से घिरे हुए नहीं थे जो कुशाग्र तो थे लेकिन उनमें जूझारू प्रवृत्ति और राजनैतिक सूझबूझ का अभाव था. अब उनके ज्यादातर फैसलों में अहमद पटेल और अशोक गहलोत जैसे पुराने, अनुभवी और भरोसेमंद लोगों की आवाज मुखर होती है. मध्य प्रदेश और राजस्थान में जीत के बाद, व्यापक उम्मीद थी कि वे ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट जैसे युवा नेताओं को मुख्यमंत्री बनाएंगे.
इसके बजाए, उन्होंने पार्टी के दिग्गजों—कमलनाथ और गहलोत पर भरोसा जताया. बातचीत में इसकी वजह वे इस तरह बताते हैं, ''बड़ी संख्या में ऐसे वरिष्ठ नेता हैं जिन्होंने पार्टी को अपना बहुत समय दिया है, पार्टी के लिए बलिदान दिए हैं और उनके पास बहुत ज्ञान और अनुभव है तो वहीं जबरदस्त ऊर्जा और क्षमता वाले कुछ बेहद प्रतिभाशाली युवा भी हैं. मैंने पहले ज्ञान और अनुभव पर भरोसा जताने का निर्णय लिया और कुछ समय बाद, युवाओं की ऊर्जा को आजमाया जाएगा.''
2019 चुनाव के लिए, जैसा कि राहुल ने बातचीत में बताया, कांग्रेस के पास एक स्पष्ट गेम प्लान है. यह दोतरफा रणनीति है. एक, कांग्रेस और खुद को भाजपा तथा मोदी को चुनौती देने वाले मुख्य किरदार के रूप में पेश करना और देश में राजकाज की वैकल्पिक दृष्टि पेश करना. इसलिए, भाजपा खुद को राष्ट्रवाद के चैंपियन और बालाकोट के बाद भारत की सुरक्षा की रक्षक के रूप में पेश कर रही है, तो राहुल ने कांग्रेस को एकता के बड़े पैरोकार के रूप में पेश किया है और मोदी पर समाज को बांटने की राजनीति में लिप्त होने का आरोप लगाया है.
वे कहते हैं, ''मैं भारत को एक खूबसूरत संधि की तरह देखता हूं. अपनी सामूहिक समझ और सलाह-मशविरे से हम ऐसी बहुत शक्तिशाली चीजें कर सकते हैं जो दूसरे देश नहीं कर सकते.'' इसके बाद कांग्रेस ने एक दमदार घोषणा पत्र जारी किया, जिसमें रोजगार के संकट, घटती नौकरियों से लेकर बढ़ते कृषि संकट तक देश के सभी प्रमुख मुद्दों पर बात की गई. इसमें 'न्याय' या न्यूनतम आय गारंटी योजना भी है, जिसमें गेम-चेंजर होने की भरपूर संभावना है. 'न्याय' के तहत देश में निर्धनतम 20 प्रतिशत परिवारों को प्रति वर्ष 72,000 रु. मुहैया कराने की पेशकश की गई है.
राहुल इस मद में चुनाव जीतने के लिए राजकोषीय संतुलन बिगाडऩे की आलोचनाओं को खारिज करते हैं. वे कहते हैं, ''न्याय योजना के दो पहलू हैं. यह गरीब लोगों को गरीबी के चंगुल से बाहर निकालने में मदद तो करेगी, साथ ही यह नोटबंदी और जीएसटी के खराब क्रियान्वयन के कारण मंदी की शिकार अर्थव्यवस्था में जान फूंकेगी, जो आज बेहद जरूरी है. इसके लिए पैसा मध्य वर्ग से नहीं उगाहा जाएगा, यह मेरी गारंटी है.''
दूसरी रणनीति भाजपा को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाने के लिए जरूरी अंकगणित साधने के लिए दूसरी पार्टियों के साथ रणनीतिक गठबंधन बनाने या बनाए रखने की है. राहुल ने बहुत सावधानी के साथ यह आश्वस्त करने की कोशिश की कांग्रेस, ही भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती बनी रहे और इसीलिए पार्टी 423 सीटों पर अपने दम पर चुनाव लड़ रही है. जब कांग्रेस ने दो महत्वपूर्ण राज्यों—उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में महत्वपूर्ण पार्टियों के साथ गठबंधन नहीं किया—तो यह धारणा बनी कि वे 2019 में भाजपा को खास नुक्सान पहुंचाने को लेकर उतने आश्वस्त नहीं हैं इसलिए 2024 के लिए अपनी पार्टी को तैयार करने में जुटे हैं.
लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष इससे इनकार करते हैं कि उन्हें अपनी पार्टी की संभावनाओं पर कम भरोसा है. वे बताते हैं कि कांग्रेस ने महाराष्ट्र, बिहार, तमिलनाडु और कर्नाटक में क्षेत्रीय पार्टियों के साथ मजबूत गठबंधन किया है. लेकिन उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में क्या रणनीति है? राहुल का जवाब है, ''ममता बनर्जी भाजपा सरकार का समर्थन करेंगी या धर्मनिरपेक्ष पार्टियों की सरकार को? मायावतीजी और मुलायमजी भाजपा को समर्थन देने वाले हैं या फिर धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने में समर्थन करने जा रहे हैं? जिस भी तरीके से आप इसे देखें, भाजपा देश में हर जगह धर्मनिरपेक्ष दलों से पराजित होती दिखती है.'' उन्होंने खुलासा किया कि जब उन्होंने अपनी बहन प्रियंका गांधी और ज्योतिरादित्य सिंधिया को उत्तर प्रदेश की कमान सौंपी, तो साफ-साफ कह दिया था कि मकसद है ''भाजपा को हराना.''
राहुल आगे की चुनौतियों को लेकर जुझारू और ऊर्जावान दिखते हैं. वे फिटनेस के शौकीन हैं (उन्हें दौडऩे का शौक है) और जब उनसे पूछा गया कि वे उन लोगों को क्या सलाह देंगे, जो चुस्त-दुरुस्त रहना चाहते हैं, तो वे कहते हैं, ''जिद होनी चाहिए. कभी-कभी मैं अपने दोस्तों को सिखाता हूं कि कैसे दौडऩा है और वे कहते हैं, मैं 5 किमी नहीं दौड़ सकता. तो मैं कहता हूं, पागल मत बनो. बेशक, तुम अभी 5 किमी नहीं दौड़ सकते, लेकिन अगर लगातार दौड़ते रहे तो 5 किमी आराम से दौड़ सकते हो. फिर हम आपको 5 किमी से, 10 किमी, 20 किमी, 200 किमी तक पहुंचाएंगे!
लेकिन इस सोच के साथ शुरुआत न करें कि मुझसे नहीं हो पाएगा. आप ऐसा कर सकते हैं. यह सब आपकी जिद पर निर्भर करता है.'' फिर, उन्होंने कहा, ''यही बात रोजमर्रा की जिंदगी में भी लागू होती है. सभी ने मुझे बताया कि नरेंद्र मोदी को हराया नहीं जा सकता. मैंने कहा, ''हां, आप वास्तव में ऐसा ही सोचते हैं?'' मैंने पूछा, मुझे बताओ कि नरेंद्र मोदी की सबसे बड़ी ताकत क्या है? उन्होंने कहा, ''उनकी ताकत उनकी (भ्रष्टाचार से मुक्त) छवि है.'' मैंने कहा, ''ठीक है, मैं उस ताकत को तार-तार कर दूंगा. मैं ऐसा करने जा रहा हूं और मैं उनकी इस छवि को बदल दूंगा.'' और मैंने वह कर दिया है. जिद, मेरे दोस्त! चलते रहो, चलते रहो, चलते रहो. और मैं तब तक चलता रहूंगा, जब तक कि राफेल की पूरी सचाई सामने नहीं आ जाती!''
आगामी 23 मई को जब वोटों की गिनती होगी, 90 करोड़ मतदाता हमें बताएंगे कि क्या राहुल की जिद ने उन्हें कुछ दिया है या फिर अभी उन्हें अभी और चलते जाना, चलते जाना और चलते जाना है.
न्याय का वादा 29 अप्रैल को राजस्थान के सैपऊ की रैली में
पुराने और नए का संगम राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सचिन पायलट के साथ
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