रूस लंबे समय से मिडिल ईस्ट में संतुलन बनाए हुए है. उसके ईरान के साथ भी रिश्ते रहे, और इजरायल के साथ भी, जबकि दोनों ही देश आपस में कट्टर दुश्मन हैं. अब दोनों में जंग छिड़ी हुई है. इस बीच अनुमान लगने लगे कि ईरान से अपने व्यापारिक हितों के लिए मॉस्को शायद तेल अवीव से दूरी बना ले, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. हाल में रूस के राष्ट्रपति ने साफ कहा कि इजरायल एक तरह से रूसी बोलने वालों का देश है, ऐसे में वे उसके बारे में सोचेंगे.
यहां कई सवाल आते हैं
- छोटे से देश इजरायल में लाखों रूसी भाषी कहां से आए?
- क्या ये यहूदी लोग हैं, या सोवियत संघ से पलायन करके आए हुए थे?
- क्या इनकी वजह से रूस और इजरायल के रिश्ते बेहतर हुए?
तेहरान और तेल अवीव के फसाद में पुतिन बहुत सावधानी से बयान दे रहे हैं. कहीं-कहीं उनका इजरायल प्रेम भी दिखता रहा. ये इसलिए अजीब है क्योंकि इजरायल के साथ अमेरिका भी है. ऐसे में पहला खयाल यही आता है कि रूस ऐसे देश से दूरी बतरेगा. लेकिन नहीं! पुतिन अक्सर ही तेल अवीव से लगाव जताते रहे. इसकी वजह ये है कि इस देश में भारी संख्या में रूसी भाषा बोलने वाले रहते हैं.
हाल में उन्होंने कहा- सोवियत यूनियन के दौर के लगभग 20 लाख लोग इजरायल में रहते हैं. देश करीब-करीब रूसी लैंग्वेज बोलने वाला बन चुका. और रूस की मॉडर्न हिस्ट्री में ये बात हमेशा याद रखी जाएगी. यानी पुतिन चाहे-अनचाहे पुराने धागों से जुड़े हुए हैं और ईरान-इजरायल लड़ाई में किसी एक के पक्ष में नहीं दिख रहे. लेकिन इजरायल में आखिर रूसी बोलने वाले पहुंचे कैसे?
आज इजरायल में लगभग 20 लाख लोग ऐसे हैं जिनकी मूल भाषा रूसी है, या जो पूर्व सोवियत संघ (यूएसएसआर) से आए हैं. इस देश की कुल आबादी करीब एक करोड़ है, यानी मोटे तौर पर देखें तो यहां हर 10 में से 2 लोग रूसी भाषा बोलते हैं. इनमें से बहुत से लोग अब इजरायली नागरिक हैं. वे राजनीति, सेना, बिजनेस और मीडिया में शामिल हैं. तेल अवीव समेत तमाम बड़े शहरों में वहां रूसी आबादी ज्यादा दिखेगी.
एक वक्त पर रूस में हुई थी हिंसा
19वीं सदी के रूस में यहूदियों पर भारी हिंसा होने लगी. दरअसल हुआ ये है कि 18वीं सदी के आखिर तक वहां यहूदी कम थे. लेकिन जब 1772 से 1795 के बीच रूस, पोलैंड का विभाजन करता है, तो लाखों यहूदी, जो पहले पोलैंड, लिथुआनिया और यूक्रेन में रहते थे, रूस के अधीन आ जाते हैं. यानी रूस में एक ऐसी कम्युनिटी आ गई, जिसका धर्म, तौर-तरीके और भाषा भी अलग थी.
रूसियों को ये नागवार गुजरा. उन्हें बाहरवालों की तरह देखा जाने लगा. यहां तक कि आदेश मिल गया कि वे बॉर्डर इलाकों में ही रह सकते हैं. वे मॉस्को, सेंट पीटर्सबर्ग जैसे शहरों में न तो आ-जा सकते थे, न ही वहां संपत्ति ले सकते थे. इससे वे एक तरह की कैद में आ गए. इसके बाद भी गुस्सा खत्म नहीं हुआ. आम लोग भी लड़ाई में आ गए.
इस तरह शुरू हुआ पलायन
ये कल्चरल फर्क की लड़ाई थी, जिसमें नॉन-यहूदी लोग यहूदियों पर भारी पड़े. उनकी औरतों-बच्चियों से रेप हुए, संपत्ति लूटी जाने लगी और कत्ल होने लगे. होलोकास्ट एनसाइक्लोपीडिया के मुताबिक, पोग्रोम नाम से हुई इस हिंसा में पूरा का पूरा सोवियत संघ यहूदियों के खिलाफ हो गया. कुछ ही समय में लाखों लोग मारे गए. दूसरे वर्ल्ड वॉर के दौरान यूरोप में रहने वाले यहूदियों की बड़ी आबादी मारी गई. इसी दौरान इजरायल अलग से यहूदी देश बना और इस धर्म के मानने वाले तेल अवीव की तरफ जाने लगे.
सोवियत काल में यहूदियों को इजरायल जाने की अनुमति नहीं थी. उन्हें रेफ्युजनिक कहा जाता था. हालांकि सोवियत के टूटने के साथ ही हालात बदल गए. नब्बे में इसके विघटन के साथ ही लाखों यहूदियों ने इजरायल के लिए पलायन किया. इस बीच इजरायल ने भी अपने लोगों को बुलाने के लिए लॉ ऑफ रिटर्न बना दिया. ये कहता है कि कोई भी यहूदी, या उसका फर्स्ट डिग्री परिवार, जैसे किसी के जैसे दादा-दादी यहूदी हों, वो इजरायल में नागरिकता पा सकता है. इस लॉ के सहारे बहुत से लोग इजरायल आकर बसने लगे. वे रूसी बोलते लेकिन उनका धर्म या जड़ें यहूदी थीं.
क्या इन रूसी भाषियों ने इजरायल-रूस रिश्ते को बदला
हां, बहुत हद तक. सोवियत संघ के दौर में रूस में यहूदियों पर हिंसा होती थी, लेकिन अलग होते ही रिश्ते सुधरने लगे. जैसे-जैसे रूसी भाषी यहूदियों की संख्या इजरायल में बढ़ी, वैसे-वैसे रूस को महसूस हुआ कि इजरायल में उसका एक कल्चरल फुटप्रिंट है. वहां उसके यहां जन्मे या उसकी भाषा बोलने वाले लोग रहते हैं.
ये एक तरह से खून का रिश्ता ही था, जो घर टूटने के बाद भी बना रहा. अब पुतिन बार-बार इसपर जोर देते हैं. यहां तक कि वे इजरायली आक्रामकता पर भी बयान देने से बचते रहे. मसलन, तेल अवीव अगर पड़ोसियों पर भड़के तो पुतिन इसे नजरअंदाज कर देते हैं, या नर्म रहते हैं. अब भी ईरान पर हमले के लिए उन्होंने अमेरिका पर गुस्सा दिखाया, लेकिन इजरायल को लेकर कुछ नहीं कहा.