पहलगाम में आतंकी हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ कई बड़े फैसले लिए. इनमें डिप्लोमेटिक रिश्ते और सीमित करने के अलावा सिंधु जल संधि को फिलहाल के लिए रद्द करना भी है. बौखलाए हुए पाकिस्तान ने इसके जवाब में खुद को शिमला समझौते से अलग कर लिया. ये करार इसलिए था कि दोनों देश आपसी मामलों को आपस में ही सुलझाएं, लेकिन अब इस्लामाबाद अपनी घरेलू लड़ाई को ग्लोबल मंच पर ला सकता है. भले ही वो इसे फायदे का सौदा सोच रहा हो लेकिन क्या वाकई ऐसा है? क्या यूनाइटेड नेशन्स के सामने रोने-धोने से किसी देश को बेनिफिट मिल सका है?
क्या होता है बड़े मंच पर बोलने का फायदा
शिमला समझौते की वजह से पाकिस्तान कश्मीर का मुद्दा दुनिया के सामने नहीं उठा सकता था, लेकिन अब जबकि ये खत्म हो गया है, तो पाकिस्तान को रोकने वाली कोई राजनयिक अड़चन नहीं रही. अब वो कश्मीर का मुद्दा हर बड़े मंच पर उठा सकता है, जैसा कि वो दावा भी कर रहा है. लेकिन क्या इंटरनेशनल मंच पर बात रखने भर से किसी भी देश की डिमांड पूरी हो सकी है? इसका बस इतना फायदा है कि कोई देश यूएन या किसी बड़े मंच पर अपनी बात कहता है, तो दुनिया के बाकी देश सुनते हैं. मीडिया मामले को उठाता है. लेकिन डिप्लोमेटिक प्रेशर बहुत कम ही दिख पाया.
दूसरे वर्ल्ड वॉर के बाद यूएन बना ही इसलिए था कि दुनिया में शांति बनाई रखी जा सके. इसके फाउंडर देश दो चीजों पर फोकस कर रहे थे- एक युद्ध से हर हाल में बचना और ह्यूमन राइट्स को बचाए रखना. धीरे-धीरे इसमें 193 देश शामिल हो गए. ये आपस में मिलकर हो-हल्ला मचाने वाले देशों पर दबाव बनाते और उनपर काबू पाते रहे. इसके लिए ये अंब्रेला कूटनीतिक से लेकर बैकचैनल रास्ते सब अपनाता रहा. जल्द ही इसका असर दिखने भी लगा.
नब्बे के दशक में कुवैत पर इराक ने हमला किया था, तब कुवैत में बड़े फोरम पर मदद मांगी थी. अमेरिका समेत कई देश मैदान में आए और इराक को पीछे हटाया. लेकिन ये मामला अलग था. क्योंकि इराक ने पूरे कुवैत पर जबरन कब्जा कर लिया था. तब 30 से ज्यादा देशों ने मिलकर उसपर कार्रवाई की.
लगातार दिख रही नाकामयाबी
फिलिस्तीन दशकों से यूएन में अपनी स्थिति बता है. उसे कई देश सपोर्ट भी करते हैं लेकिन जमीनी हालात नहीं बदले क्योंकि अमेरिका और कुछ बड़े देश इजराइल का समर्थन करते हैं. इसी तरह से साल 2017 में म्यांमार की सेना ने रोहिंग्या मुसलमानों पर हिंसा की. तब लाखों लोग बांग्लादेश भागे. मुद्दा यूएन में उठा, रिपोर्ट बनी, नरसंहार की जांच भी की गई लेकिन कोई एक्शन नहीं हुआ. चीन और रूस ने म्यांमार के खिलाफ सख्त कार्रवाई को वीटो कर दिया, और यूएन कड़ी निंदा ही करता रह गया.
सोमालिया का गृहयुद्ध भी ऐसा ही उदाहरण है. ये सिलसिला जनरल सियाद बर्रे की तानाशाही वाले दौर से शुरू हुआ. साल 1991 में बर्रे के निजाम के ढहने के साथ ही सोमालिया गृहयुद्ध की गिरफ्त में चला गया. अलग-अलग कबीले और विचार के लोग आपस में लड़ने लगे. सबको देश पर अपना राज चाहिए था. तब यूएन ने खास सोमालिया के लिए एक मिशन चालू किया, जिसका नाम था UNOSOM. इसका मकसद था सोमालिया में सिविल वॉर को रोकना और भूख से मरते लोगों को बचाना. लेकिन मिशन बुरी तरह से फेल हुआ, यहां तक कि सोमालियन जनता यूएन के दफ्तरों पर ही हमले करने लगी थी.
रूस यूक्रेन मसले पर भी खास कुछ नहीं
रूस ने तीन साल पहले जब यूक्रेन पर हमला किया तो यूएन ने माना कि ये इंटरनेशनल कानून के खिलाफ है लेकिन वो मॉस्को को रोक नहीं सका क्योंकि रूस खुद यूएन सुरक्षा परिषद का सदस्य है और उसके पास वीटो पावर है. गाजा मामले में भी यही हुआ. यूएन ने कई बार संघर्षविराम की अपील की लेकिन अमेरिका ने बार-बार वीटो का इस्तेमाल किया और इजरायल अपनी करता रहा.
अब क्या बदल रहा है
यूएन जो एक वक्त पर दुनिया की सबसे ताकतवर बॉडी माना जाता था, वो अनौपचारिक तौर पर कई टुकड़ों में टूट चुका. इसके सारे सदस्य देश अलग अलग गुट बना चुके और अंदरुनी पॉलिटिक्स से अपनी बात मनवाने की कोशिश में लगे रहते हैं. यूएन की सबसे ताकतवर शाखा, सिक्योरिटी काउंसिल को बीते सालों में लगातार कमजोर पड़ते देखा गया. इसके फाउंडिंग मेंबरों के बीच ही तनाव है, फिर चाहे वो अमेरिका और रूस हों, या चीन और अमेरिका. ब्रिटेन को हमेशा से ही संदिग्ध माना जाता रहा. ऐसे में मामला एक हल तक पहुंच ही नहीं पाता.
कुल मिलाकर ये इंटरनेशनल फोरम मंच और माइक तो दे रहा है कि किसी देश की आवाज दूर तक पहुंचे, लेकिन ये इंसाफ की गारंटी नहीं.
पाकिस्तान का मामला क्यों और पेचीदा
पाकिस्तान चाहता है कि कश्मीर को विवादित क्षेत्र माना जाए और संयुक्त राष्ट्र इस मुद्दे में दखल दे. वहीं भारत साफ है कि ये हमारा अंदरुनी मामला है और यूएन को इसमें दखल देने की जरूरत नहीं. हमने शिमला समझौते के बाद से ये रुख रखा कि इसमें किसी तीसरे के आने की जरूरत नहीं. यूएन इसपर चिंता जताता रहा लेकिन चूंकि मामला वाकई आतंरिक ही है, लिहाजा वो इसमें सीधा दखल नहीं दे सका.
अब शिमला समझौता रद्द कर पाकिस्तान एक बार फिर इसे बाहर ले जाएगा लेकिन इसका फायदा मिल सके, ऐसी संभावना नहीं के बराबर है. हम एक मजबूत आर्थिक और रणनीतिक हैं, जिसके साथ अमेरिका और रूस जैसे दोनों ध्रुव हैं. इसके अलावा फिलहाल यूएन खुद ही कमजोर स्थिति में हैं.