बिहार में दो चरणों में होने वाले विधानसभा चुनावों के साथ, एक खामोश मतदाता विकल्प फिर से निर्णायक भूमिका निभा सकता है. 'None of the Above' या 'NOTA' विकल्प, जिसे 2013 में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद शुरू किया गया था.
पिछले कुछ चुनावों के आंकड़े बताते हैं कि बिहार में कई मतदाता सभी उम्मीदवारों को "ना" कहने के लिए नोटा का विकल्प चुनते हैं. 2020 के विधानसभा चुनावों में, 30 निर्वाचन क्षेत्र ऐसे थे, जहां NOTA वोटों की तादाद जीत के अंतर से ज़्यादा थी. इसका मतलब है कि अगर NOTA विकल्प नहीं होता, तो नतीजे बदल सकते थे.
ऐसी टॉप 10 सीटों पर करीब से नज़र डालने से पता चलता है कि अंतर यकीनन कितना बड़ा था. भोरे में जनता दल (यूनाइटेड) ने केवल 462 वोटों से जीत हासिल की, जबकि 8,000 से ज़्यादा लोगों ने NOTA का विकल्प चुना. यह जीत के अंतर का करीब 17 गुना था. मटिहानी और चकाई में भी, हज़ारों मतदाताओं ने NOTA को चुना, जबकि अंतिम जीत का अंतर 600 वोटों से कम था.

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इन टॉप 10 सीटों में, जेडी(यू) सबसे ज्यादा बार विजेता के रूप में सामने आई, जबकि राष्ट्रीय जनता दल दूसरे स्थान पर रहा, जिससे पता चलता है कि NOTA वोटों ने दोनों प्रमुख प्रतिद्वंद्वियों के बीच मुकाबलों को प्रभावित किया होगा. यहां तक कि मुंगेर और परिहार पर कब्जा करने वाली भारतीय जनता पार्टी को भी नोटा की तुलना में कम अंतर से जीत मिली.
यह चलन नया नहीं है. बिहार में ऐतिहासिक रूप से राष्ट्रीय औसत की तुलना में नोटा का प्रतिशत ज्यादा रहा है. साल 2014 के लोकसभा चुनावों में 1.6 फीसदी से, राज्य में नोटा वोट 2015 के विधानसभा चुनाव में बढ़कर 2.5 फीसदी हो गया, जो अब तक का सबसे ज्यादा है. हालांकि, साल 2020 में यह फीसदी थोड़ा गिरकर 1.7 फीसदी हो गया, लेकिन 2024 के लोकसभा चुनावों में यह फिर से बढ़कर 2.1 फीसदी हो गया, जो मतदाता असंतोष की एक नई लहर का संकेत है.

इस नवंबर में बिहार में फिर से चुनाव होने वाले हैं. ऐसे में एक बड़ा सवाल बना हुआ है कि क्या असंतोष की लहर एक बार फिर से जीत और हार का अंतर तय करेगी?
(गौरव चतुर्वेदी के इनपुट के साथ)