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बिहार में बंपर वोटिंग प्रशांत किशोर के किंगमेकर बनने का इशारा? पांच सवालों से समझें मतदान का पंचतंत्र

देश के चुनावी इतिहास के आकड़ों पर नजर डालें तो ट्रेडिशनल पैटर्न यही कहता है कि जब जनता पोलिंग बूथ पर लंबी-लंबी कतारों में खड़ी नजर आए तो मन में बदलाव लाना एक बड़ा मकसद होता है. हालांकि राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक वोटिंग प्रतिशत बढ़ने का चुनावी परिणामों पर हमेशा कोई एक जैसा निश्चित या सीधा पैटर्न नहीं होता है.

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बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण की बंपर वोटिंग के मायने बड़े हैं. (File Photo- ITG)
बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण की बंपर वोटिंग के मायने बड़े हैं. (File Photo- ITG)

बिहार में पहले चरण में हुई रिकॉर्डतोड़ वोटिंग का मतलब क्या है? ये सवाल सभी के दिमाग में घूम रहा है. चुनाव में ताल ठोक रही पार्टियां बंपर वोटिंग को अपने पक्ष में बता रही हैं, लेकिन 2025 बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण की बंपर वोटिंग के मायने बड़े हैं. कारण, बिहार चुनाव में पहली बार वोटरों ने छप्परफाड़ वोट डाले हैं.

पैटर्न के चश्मे से विश्लेषण करना भी आसान नहीं है. बिहार के पहले चरण में हुई वोटिंग को लेकर उन पांच सवालों के जवाब खोजना जरूरी है जो लोगों के दिमाग में चल रहे हैं. और वो सवाल हैं- क्या बिहार में बदलाव के संकेत दे रही है बंपर वोटिंग? क्या नीतीश कुमार को बनाए रखने के लिए बंपर वोटिंग? क्या एनडीए का महिलाओं को 10,000 रुपए देने वाला कार्ड चला? क्या तेजस्वी का हर घर सरकारी नौकरी वाला वादा बंपर वोटिंग की वजह? क्या बंपर वोटिंग प्रशांत किशोर के किंग मेकर बनने की तरफ इशारा है?

बिहार में बंपर वोटिंग परिवर्तन का बड़ा संकेत है?

राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक वोटिंग प्रतिशत बढ़ने का चुनावी परिणामों पर हमेशा कोई एक जैसा निश्चित या सीधा पैटर्न नहीं होता है. लेकिन बंपर वोटिंग से कई अहम संकेत जरूर मिल जाते हैं जो परिणाम पर असर डालने वाले फैक्टर तक पहुंचने का रास्ता दिखा देते हैं. सबसे पहले आपको बताते हैं कि क्या बिहार में बंपर वोटिंग परिवर्तन का बड़ा संकेत है?

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बिहार के पहले चरण में रिकॉर्ड तोड़ वोटिंग का मतलब है कि जब मतदाता पोलिंग बूथ पर पहुंचा तो उसके दिमाग में चुनाव की तस्वीर एकदम साफ थी. पहले चरण की 121 सीटों पर वोटर घर से तय करके पहुंचा था कि किस दल को वोट देना है और किसे चुनावी चोट. बिहार में एतिहासिक वोटिंग का मतलब ये भी है कि वोटर अपने वोट की ताकत का एहसास चुनावी मैदान में ताल ठोक रही पार्टियों को बखूबी करना चाहता है. यानी बिहार को मजबूत जनादेश वाली स्थायी सरकार चाहिए.

लेकिन बिहार को स्थायी सरकार कौन देगा, ये मतदाओं ने नीतीश बनाम तेजस्वी, नौकरी बनाम विकास, एनडीए के चुनावी, वादों और महागठबंधन के चुनावी वादों को दिमाग में रखते हुए तय किया है. क्योंकि बिहार के चुनावी इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब करीब 65 फीसदी मतदान हुआ. जनता के दिल में कौन है? ये 14 नवंबर को पता चलेगा लेकिन मतदाओं ने रिकॉर्डतोड़ वोटिंग करके जो संकेत दिए हैं, उससे बिहार चुनाव को पढ़ने और समझने से एक पैटर्न जरूर पता चलता है.

अगर देश के चुनावी इतिहास के आकड़ों पर नजर डालें तो ट्रेडिशनल पैटर्न यही कहता है कि जब जनता पोलिंग बूथ पर लंबी-लंबी कतारों में खड़ी नजर आए तो मन में बदलाव लाना एक बड़ा मकसद होता है. यानी मौजूदा सरकार को हटाकर नई सरकार को चुनना. ज्यादातर चुनावी विश्लेषक मानते हैं कि बिहार के पहले चरण में हुई बंपर वोटिंग परिवर्तन का एक संकेत हो सकता है. लेकिन ये सिर्फ एक संभावना है. कई बार प्रो-इनकंबेंसी भी बंपर वोटिंग की वजह हो सकती है.

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क्या कहता है बिहार में अधिक वोटिंग का पुराना रिकॉर्ड

चुनावी विश्लेषकों की राय और बिहार के चुनावी आकड़ों को एक तराजू पर रखकर देखें तो बिहार में बंपर वोटिंग को नतीजों से पहले सत्ता परिवर्तन के एंगल से जोड़कर देखा जा सकता है. क्योंकि तीन दशकों के चुनावी नतीजे यही कहानी बयां कर रहे हैं. जब-जब मतदान का प्रतिशत 60 के पार गया, लालू यादव या फिर उनकी पार्टी को इसका सीधा लाभ हुआ और उनके सियासी विरोधियों को चुनावी हानि पहुंची.

बिहार विधानसभा चुनाव में वोटिंग प्रतिशत के आंकड़े बेहद दिलचस्प हैं. साल 1990 में 62.04 प्रतिशत मतदान हुआ. कांग्रेस के हाथों से सत्ता फिसल गई और लालू यादव पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने. 1995 में भी 61. 79 फीसदी मतदान हुआ और लालू यादव की सत्ता में वापसी हुई. ठीक ऐसे ही 2000 में 62.57 फीसदी वोटिंग हुई. आरजेडी की सत्ता में वापसी हुई. यानी 60 प्रतिशत के पार वोटिंग ने लालू यादव की जीत वाली पटकथा लिखी.

60 फीसदी से कम मतदान पर नीतीश बने सीएम

वहीं नीतीश कुमार 2005 में लालू को हटाकर सत्ता पर काबिज हुए तो बिहार में सिर्फ 45.85 फीसदी वोटिंग हुई थी. ठीक ऐसे ही 2010 में सिर्फ 52.73 फीसदी वोटिंग हुई और नीतीश के नेतृत्व में एनडीए को रिकॉर्ड बहुमत मिला. 2015 में 56.91 प्रतिशत मतदान हुआ और लालू यादव के साथ गठबंधन की वजह से नीतीश फिर सीएम बने. 2020 चुनाव में 57.29 फीसदी मतदान हुआ और नीतीश की अगुवाई में एनडीए की सत्ता में वापसी हुई.

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तीन दशकों के चुनावी आक ड़े बताते हैं जब 60 फीसदी से कम मतदान रहा तो नीतीश सीएम बने और जब 60 फीसदी से ऊपर रहा तो लालू की पार्टी सत्ता में आई. इस बार फिर बिहार में मतदान का प्रतिशत 60 फीसदी के पार है. तो क्या बंपर वोटिंग नीतीश के विरोध में और तेजस्वी के पक्ष में हुई? आजादी के बाद हुए कुल 17 विधानसभा चुनाव के नतीजों का विश्लेषण करें तो पता चलता है जब-जब बिहार में 5% से ज्यादा वोटिंग बढ़ी या घटी तो सूबे में सत्ता ही नहीं, सियासी दौर भी बदल गया.

5 फीसदी अधिक या कम मतदान से हुआ बड़ा खेल

1962 विधानसभा में हुए 44.47% फीसदी मतदान की तुलना में 1967 के चुनाव में 51.51 फीसदी मतदान हुआ. करीब 7 फीसदी ज्यादा मतदान और बिहार में पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकार बनी, यानी सत्ता परिवर्तन हुआ. 1985 की तुलना में 1990 में 62 फीसदी ज्यादा मतदान हुआ जो पिछले चुनाव से 5.8 फीसदी ज्यादा था और बिहार में सत्ता बदल गई. सिर्फ 2005 में ऐसा हुआ जब 2000 में हुए 62.6 फीसदी की तुलना में 46.5 फीसदी मतदान हुआ जो पिछले चुनाव से 16.1 फीसदी कम था, लेकिन सत्ता बदल गई. लालू हारे और नीतीश जीते.

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मतलब बिहार में ज्यादा वोटिंग को बदलाव का संकेत माना जा सकता है. बंपर वोटिंग को लेकर चुनावी विशेषज्ञ यही मानते हैं. बंपर वोटिंग बदलाव का एक संकते है. अक्सर, बंपर वोटिंग तब होती है जब मतदाता मौजूदा सरकार के प्रति गहरी नाराजगी महसूस करते हैं और बदलाव लाने के लिए बड़ी तादाद में वोटिंग करते हैं. इसे एंटी-इंकम्बेंसी के तौर पर देखा जाता है. ज्यादातर चुनावी आकड़ों से यही पता चलता है कि बंपर वोटिंग से सत्ताधारी दल को नुकसान होने की संभावना होती है. लेकिन ये कोई निश्चित नियम या पैटर्न हो, पक्के तौर पर माना नहीं जा सकता. कारण, कई बार ऐसा देखा गया है कि बंपर वोटिंग के बाद भी सत्ताधारी दल की वापसी हुई.

नीतीश कुमार को बनाए रखने के लिए बंपर वोटिंग हुई?

अब बारी है दूसरे सवाल की. सवाल ये है कि क्या नीतीश कुमार को बनाए रखने के लिए बंपर वोटिंग हुई है? अगर हां तो इसके पीछे का तर्क जानने की कोशिश करते हैं कि क्यों वोटिंग प्रतिशत बढ़ने से लग रहा है कि बिहार में नीतीश कुमार की सरकार बरकरार रहेगी. सबकी नजरें नीतीश कुमार पर टिकी हैं, जो पिछले 20 सालों से जीत की गारंटी माने जा रहे हैं. बिहार में पिछले 3 चुनावों का पैटर्न यही बता रहा है कि हर बार वोटिंग प्रतिशत बढ़ा है और नीतीश कुमार लौटे हैं. लेकिन इस दफा बिहार में वोट प्रतिशत ने पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये हैं, तो क्या इस बार भी में बिहार में फिर से नीतीशे कुमार हैं?

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पहले चरण के रिकॉर्ड मतदान के बाद, नीतीश कुमार बिहार के लोगों को धन्यवाद देते हैं और ये भी कहते हैं कि आने 11 नवंबर को दूसरे चरण में भी इसी तरह से बढ़ चढ़कर वोटिंग करें. लेकिन सवाल यही है कि जिस तरह से पहले चरण में रिकॉर्डतोड़ 64.69 परसेंट वोटिंग हुई है, उसके क्या मायने हैं? दावा ये भी है कि SIR के बाद संवैधानिक मौजूदगी दर्ज कराने के लिए 64.69 फीसदी वोटरों ने मतदान किया है. लेकिन विपक्ष का दावा है कि ये नीतीश कुमार के खिलाफ एंटी इम्कबेंसी का नतीजा है. एनडीए इसे अपनी जीत मान रही है. दावे कई हैं, लेकिन दांव पर नीतीश कुमार हैं.

दरअसल, बिहार में पिछले 20 साल से जब-जब वोटिंग बढ़ी है तो नीतीश कुमार की सत्ता में वापसी हुई है. इस बार बिहार चुनाव के पहले चरण में ऐतिहासिक 64.69 फीसदी वोटिंग हुई है, इससे पहले सबसे ज़्यादा वोटिंग साल 2000 के चुनाव में हुई थी. तब पूरे बिहार में सर्वाधिक 62.57 प्रतिशत वोटिंग हुई थी. ऐसे में सवाल उठता है कि बिहार में पिछले 20 साल का वोटिंग पैटर्न क्या रहा? वोटिंग पैटर्न के लिहाज से देखें तो बिहार में जब-जब पांच फीसदी से ज़्यादा वोटिंग बढ़ी है तो सरकार बदल गई. हालांकि, एक हकीकत ये भी है कि वोटिंग बढ़ने का सियासी लाभ नीतीश कुमार को मिला है. पिछले 20 साल के विधानसभा चुनाव के वोटिंग पैटर्न को देखें तो साफ जाहिर होता है कि मतदान बढ़ने का लाभ नीतीश कुमार को मिला है.

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समझें, 2005 से 2020 तक बिहार चुनाव का विश्लेषण

बिहार में 2005 से लेकर 2020 तक हुए विधानसभा चुनाव के मतदान के विश्लेषण से ये पता चलता है कि बिहार की सत्ता में नीतीश कुमार पहली बार अक्टूबर 2005 में आए. उस साल दो बार विधानसभा चुनाव हुए थे. पहली बार फरवरी 2005 में चुनाव हुए तो 46.05 प्रतिशत लोगों ने वोट किया था. इस तरह साल 2000 की तुलना में करीब 16 फीसदी मतदान कम हुआ तो किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला. अक्टूबर 2005 में दोबारा बिहार में विधानसभा चुनाव हुए, जिसमें 45.85 प्रतिशत मतदान रहा था. मामूली अंतर से कम हुई वोटिंग ने सत्ता बदल दी थी, नीतीश के नेतृत्व में पहली बार एनडीए ने सरकार बनाई

2010 में बिहार के विधानसभा चुनाव में 52.73 प्रतिशत मतदान हुआ, जो 2005 की तुलना में 6.88 फीसदी ज़्यादा वोटिंग रही. 2015 में बिहार का सियासी समीकरण बदल गया. नीतीश कुमार बीजेपी का साथ छोड़कर आरजेडी से हाथ मिला लिया. 2015 चुनाव में 56.91 फीसद मतदान रहा था, जो 2010 की तुलना में 4.18 फीसदी मतदान ज्यादा रहा. इसका सीधा लाभ नीतीश के अगुवाई वाले महागठबंधन को मिला. 2020 में विधानसभा चुनाव हुए तो गठबंधन का स्वरूप फिर बदल गया. नीतीश कुमार आरजेडी-कांग्रेस का साथ छोड़कर बीजेपी के साथ हाथ मिलाकर एनडीए में घर वापसी कर गए. 2020 के विधानसभा चुनाव में 57.29 फीसदी मतदान रहा था, जो 2015 की तुलना में 0.38 फीसदी ज्यादा रही. मतदान के मामूली वोट बढ़ोतरी ने एनडीए की सीटें जरूर कम की, लेकिन उसे सत्ता में बरकरार रखा. और अब 64.69 फीसदी बंपर वोटिंग हुई है.

एक सवाल ये भी है कि क्या बिहार में बंपर वोटिंग के पीछे महिला वोटर है या फिर तेजस्वी का हर घर सरकारी नौकरी देना का वादा है? कुछ चुनावी विश्लेषक मानते हैं कि बिहार के चुनाव में महिलाओं ने बढ़ चढ़कर वोटिंग की है. महिलाओं की वोटिंग की वजह नीतीश कुमार की जीविका दीदी योजना है, जिसके तहत बिहार की 1.5 करोड़ महिलाओं को 10-10 हजार रुपए दिए गए हैं. इसके अलावा बंपर वोटिंग की वजह तेजस्वी यादव की तरफ से हर घर नौकरी देना का वादा भी हो सकता है.

बंपर वोटिंग प्रशांत किशोर के किंग मेकर बनने की तरफ इशारा?

और अब अगले सवाल पर फोकस करते हैं कि क्या बंपर वोटिंग प्रशांत किशोर के किंग मेकर बनने की तरफ इशारा है? क्या एनडीए और महागठबंधन की लड़ाई की बीच पीके बाजी मारकर ले जाएंगे? पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में प्रशांत किशोर ने सटीक भविष्यवाणी की थी. तमाम सर्वे एजेंसियां जहां बीजेपी के जीतने का अनुमान कर रहा था, वहीं प्रशांत किशोर लगातार दावा कर रहे थे कि बीजेपी 100 सीटों के नीचे रह जाएगी. चुनाव रिजल्ट आने के बाद प्रशांत किशोर का अनुमान बिल्कुल सटीक रही थी. और अब प्रशांत किशोर कह रहे हैं कि बिहार में प्रवासी मजदूरों को वोट निर्णायक होगा. लेकिन क्या, ये बंपर वोटिंग जनसुराज के लिए हुई है.

एक्सपर्ट मानते हैं कि बिहार में जनसुराज की एंट्री से चुनाव दिलचस्प हुआ है. लेकिन प्रशांत किशोर किंग मेकर बनेंगे, ये बहुत मुश्किल लगता है.

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