उसे दाखिला इसलिए नहीं मिला क्योंकि वो 'लड़की' थी. लेकिन उसने विरोध में शोर नहीं मचाया. उसने अपनी काबिलियत से जवाब दिया. उसने साबित किया कि हुनर को जेंडर की दीवारें नहीं रोक सकतीं. कमला सोहोनी ने लैंगिक भेदभाव को चुनौती दी और बायोकैमिस्ट्री में भारत की पहली महिला PhD बनकर नारी शक्ति की एक नई परिभाषा लिख दी. आइए जानते हैं- कमला सोहोनी की उस जर्नी के बारे में जो आज नजीर बन गई.
बचपन से ही लैब में थी दिलचस्पी
1911 में इंदौर में जन्मी कमला सोहोनी एक वैज्ञानिक परिवार से थीं. उनके पिता नारायणराव भगवत और चाचा माधवराव भगवत, दोनों इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस (IISc), बेंगलुरु से पढ़े शुरुआती भारतीय केमिस्ट्स में से थे. यानी विज्ञान उनके खून में था, लेकिन उस समय समाज में 'पितृसत्ता' भी उतनी ही गहराई से थी.
कमला को केमिस्ट्री से प्यार अपने पिता की छोटी लैब से हुआ, जहां शीशे के बीकरों की खनक और केमिकल्स की महक उसे जादू जैसी लगती थी. मगर आजादी से पहले के भारत में एक महिला के लिए विज्ञान की दुनिया के दरवाजे लगभग बंद थे.
क्लास में टॉप किया फिर भी रोका गया
1933 में कमला ने बॉम्बे यूनिवर्सिटी से केमिस्ट्री में टॉप किया. उनका अगला सपना था IISc में दाखिला लेना. उस दौर में IISc भारत में विज्ञान की सबसे प्रतिष्ठित संस्था मानी जाती थी. लेकिन जब उन्होंने आवेदन किया तो उस वक्त के डायरेक्टर और नोबेल विजेता C.V. रमन ने उनका एडमिशन ठुकरा दिया. कारण बताया कि संस्थान महिलाओं के लिए तैयार नहीं है. कमला हैरान थीं. उन्हें किसी तरह रियायत नहीं बस एक मौका चाहिए था.
22 साल की लड़की ने किया रमन का सामना
सोचिए, 22 साल की एक युवती, साड़ी में सधी हुई और सामने भारत के सबसे ताकतवर वैज्ञानिक. C.V. रमन जो अपने गुस्से और कड़क स्वभाव के लिए जाने जाते थे और अब उनके सामने एक लड़की खड़ी थी जो झुकने को तैयार नहीं थी.
काफी बहस के बाद रमन ने कहा कि ठीक है लेकिन 'प्रोबेशन पर' यानी उसे खुद को साबित करना होगा. शर्तें भी अपमानजनक थीं. उसे दिन में लैब में काम करने की इजाजत नहीं थी, सिर्फ रात में काम कर सकती थी और किसी की निगरानी में.
कमला ने चुनौती स्वीकार की. उन्होंने कहा, 'मैं चाहती थी कि मेरा काम बोले, मैं नहीं.' और आखिरकार उनका काम बोला. सिर्फ एक साल में उन्होंने अपनी रिसर्च इतनी शानदार तरीके से पूरी की कि IISc को अपनी नीति बदलनी पड़ी. उसी साल से महिलाओं के लिए IISc के दरवाजे खुल गए.
कैम्ब्रिज में इतिहास रचा
IISc के बाद 1937 में कमला को इंग्लैंड की कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से स्कॉलरशिप मिली. वहां उन्होंने नोबेल विजेता डेरिक रिच्टर के साथ मिलकर रिसर्च की. उनका विषय 'पौधों के ऊतकों में Cytochrome C जैसे एंजाइम कैसे काम करते हैं' था यानी कोशिकाएं ऊर्जा कैसे बनाती हैं. साल 1939 में उन्होंने बायोकैमिस्ट्री में PhD हासिल की और बन गईं भारत की पहली महिला जो किसी वैज्ञानिक क्षेत्र में डॉक्टरेट की डिग्री रखती थीं.
नीरा से बदली देश की पोषण नीति
वापस लौटकर उन्होंने विज्ञान को लोगों के जीवन से जोड़ा. उन्होंने कून्नूर के न्यूट्रिशन रिसर्च लैब और फिर मुंबई के रॉयल इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस में काम किया. उनका सबसे असरदार काम 'नीरा' पर हुआ. ये ताड़ के पेड़ों से निकलने वाला मीठा रस, जो गरीब तबके में आम पेय था. कमला ने साबित किया कि नीरा में विटामिन C, आयरन और दूसरे पोषक तत्व भरपूर होते हैं.
इस शोध से भारत की पोषण नीति पर असर पड़ा और बाद में मिड-डे मील जैसी योजनाओं को भी प्रेरणा मिली. ये विज्ञान शोहरत के लिए नहीं बल्कि समाज के लिए था.
शांत स्वभाव की बागी आत्मा
कमला सोहोनी का नाम कभी किताबों में नहीं आया, न ही उन्हें उतनी प्रसिद्धि मिली जितनी उनके पुरुष साथियों को. लेकिन उन्होंने भारतीय विज्ञान की दिशा बदल दी. उन्होंने IISc के दरवाजे महिलाओं के लिए खोले, कई युवा वैज्ञानिकों को मेंटर किया और महिलाओं की रिसर्च के लिए फंडिंग की लड़ाई लड़ी. बाद में वे रॉयल इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस, मुंबई की डायरेक्टर बनीं.
अपने आखिरी दिनों तक वे कहती रहीं, 'मैं पहली नहीं बनना चाहती थी, मैं चाहती थी कि आखिरी न रह जाऊं.'
विरासत: हिम्मत की एक चेन रिएक्शन
आज जब भी कोई भारतीय लड़की लैब में कदम रखती है, वो उस दरवाजे से गुजरती है जो कमला सोहोनी ने खोला था. उनकी राह पर चलीं असीमा चटर्जी (पहली भारतीय महिला जिनके पास DSc थी), जानकी अम्माल (जिन्होंने वनस्पति विज्ञान में नाम किया) और न जाने कितनी महिलाएं जिन्होंने जिज्ञासा को आवाज दी. कमला सोहोनी का निधन 1998 में हुआ. उन्होंने कोई स्मारक नहीं छोड़ा लेकिन एक ऐसी परंपरा जरूर छोड़ी जो साहस और विज्ञान दोनों की मिसाल है.