scorecardresearch
 

Gen-Z का फेवरेट शब्द वाइब्स, हकीकत में क्या होता है इसका रोल, मनोव‍िज्ञान की नजर से समझ‍िए

अक्सर हम लोगों से सुन लेते हैं, यार फलां से मेरी वाइब मैच नहीं हुई. फलां ऑफ‍िस में वाइब्स अच्छी नहीं थी. फलां से गुड वाइब्स आती हैं. ऐसे तमाम वाक्य आजकल काफी आम हो गए हैं. लेकिन असल जिंदगी में ये वाइब्स आख‍िर क्या होती हैं. इसके पीछे किस तरह का मनोव‍िज्ञान काम करता है. 

Advertisement
X
Representational Image (ChatGPT)
Representational Image (ChatGPT)

कभी-कभी कोई इंसान, कोई कमरा, कोई ऑफिस, या कोई माहौल बस अजीब-सा लगता है. बिना किसी ठोस वजह के हम कह देते हैं कि यहां वाइब्स अजीब हैं. या फिर इससे मिलकर बहुत अच्छा फील हुआ, पॉजिटिव एनर्जी मिली. लेकिन सवाल ये है कि आखिर ये 'वाइब्स' होती क्या हैं? क्या ये सिर्फ हमारा भ्रम है या इनका कोई वैज्ञानिक आधार भी है?

Advertisement

वाइब्स: सिर्फ फीलिंग्स का मामला है या फैक्ट भी है? 

एक नई रिसर्च में यह बात सामने आई है कि 'वाइब्स' केवल कल्पना नहीं, बल्कि हमारे ब्रेन और नर्वस सिस्टम की एक अनदेखी प्रक्रिया का हिस्सा हैं. Dr. Heidi Moawad ने neurologylive.com में अपने लेख में लिखा कि हमारा दिमाग आसपास के लोगों के हाव-भाव, आवाज के उतार-चढ़ाव और माइक्रो एक्सप्रेशन्स से ढेर सारी अनकही बातें पकड़ लेता है. यह प्रक्रिया इतनी जल्दी होती है कि हमें इसका पता भी नहीं चलता और हम बस कह देते हैं कि कुछ सही नहीं लग रहा या बहुत अच्छा फील हो रहा है. 

मनो व‍िश्लेषक डॉ. सत्यकांत त्रिवेदी का कहना है कि वाइब्स दरअसल हमारे दिमाग की वो अनुभूति है जो अतीत के अनुभवों और वर्तमान के इनपुट्स को मिलाकर एक इमोशनल निष्कर्ष निकालती है. ये कई बार अवचेतन मन से आता है. खासकर जब हम किसी जगह या इंसान से पहली बार मिलते हैं. डॉ सत्यकांत कहते हैं कि लेकिन सवाल यह है क्या कोई जगह 'नेगेटिव' हो सकती है? देखा जाए तो वो ही जगह हो सकता है कुछ लोगों के लिए पॉजिट‍िव प्लेस हो, लेकिन किसी दूसरे के लिए नेगेट‍िव वाइब्स का श्रोत बन जाती है. असल में इसे इमोशनल रेजिड्यू कहा जाता है. यानी उस जगह पर पहले जो इमोशन्स थे जैसे डर, दुख या खुशी, कहीं न कहीं ये पता होने पर हमारे विचार उसी भाव में ढलने लगते हैं. 

Advertisement

बता दें कि नीदरलैंड में हुई एक स्टडी में यह सामने आया कि इंसानों के पसीने और आंसुओं में मौजूद chemosignals यानी रासायनिक संकेत, दूसरों के मूड पर असर डाल सकते हैं, तब भी जब मूल इंसान वहां ना हो. एक एक्सपेरिमेंट में डर के समय लिया गया बॉडी ओडर सूंघने पर वॉलंटियर्स की बॉडी लैंग्वेज भी डर जैसी हो गई. हमारा मस्तिष्क महज आंख-कान तक सीमित नहीं है. हमारी त्वचा, नाक और यहां तक कि आंतें भी भावनात्मक संकेतों को पकड़ती हैं. कुछ लोग इन इशारों को तेजी से समझ पाते हैं, और उन्हें हम 'इंट्यूटिव' कहते हैं. यही लोग अक्सर सही 'वाइब्स' पकड़ लेते हैं. 

क्या वाइब्स वाकई असर डालती हैं?

मनोव‍िश्लेषक इस सवाल का जवाब हां में देते हैं. उनका तर्क है कि जब हम किसी नेगेटिव माहौल में होते हैं, तो खुद को थका हुआ, चिड़चिड़ा या लो महसूस कर सकते हैं. वहीं पॉजिटिव माहौल में ऊर्जा, उत्साह और प्रेरणा महसूस होती है. यह 'इमोशनल कंटैजियन' यानी इमोशन का फैलाव कहलाता है. मनोचिकित्सक डॉ.अनिल शेखावत के अनुसार इमोशनल एनर्जी वायरल की तरह होती है. एक हंसता हुआ इंसान पूरी मीटिंग को हल्का कर सकता है, जबकि एक चुप और उदास चेहरा माहौल को भारी कर देता है. 

Advertisement

बदल भी सकती हैं वाइब्स 
ऐसा माना जाता है कि इन्सान अपने आसपास की वाइब को बदल भी सकता है. जब हम अपने आसपास पॉजिटिव बातचीत, अच्छी खुशबू, प्रकृति का स्पर्श और संतुलित लाइटिंग लाते हैं तो वाइब्स चेंज होने का एहसास भी होता है. हमारे विचार, बोलचाल, और बॉडी लैंग्वेज भी एक ‘एनर्जी फील्ड’ बनाते हैं. हमें विज्ञान और मानव व्यवहार के बीच की खाई को पाटना होगा. हमारे जीवन और कार्यक्षेत्र में जो वाइब्स हैं, वे न केवल मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं बल्कि सामूहिक प्रदर्शन पर भी असर डालती हैं. डॉ गौरव कहते हैं कि वाइब्स कोई तिलिस्मी चीज नहीं है, असल में ये हमारे दिमाग, शरीर और भावनाओं का एक कोलाज हैं. अगर हम थोड़ा ध्यान दें तो हम खुद ही अपने आसपास की एनर्जी को बेहतर बना सकते हैं, न केवल अपने लिए, बल्कि दूसरों के लिए भी. 

Live TV

Advertisement
Advertisement