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भारत में अंडर-कंस्ट्रक्शन घर खरीदना कितना बड़ा जोखिम, RERA के बावजूद क्यों फंस जाते हैं बायर्स?

रेरा में केस दर्ज करना एक लंबी और महंगी प्रक्रिया है, बिल्डर अक्सर सुनवाई को टालने की कोशिश करते हैं, रेरा के फैसले को लागू करवाना एक चुनौती है. जहां हर कदम पर देरी, फाइलों का गलत प्रबंधन या पूरी तरह से लापरवाही हो सकती है.

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'बेघर' क्यों घर खरीदार
'बेघर' क्यों घर खरीदार

घर का सपना लिए देशभर में लाखों घर खरीदार सालों से इंतजार में बैठे हैं. खासतौर पर मेट्रो सिटीज का हाल तो सबसे बुरा है. कई बिल्डरों ने लोगों की मेहनत की कमाई लेकर फ्लैट बुक कराया और जब घर देने का मौका आया तो वो फरार हो गए. नोएडा, ग्रेटर नोएडा वेस्ट, गाजियाबाद में तो ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं, जहां लोग ईएमआई और किराए की दोहरी मार झेलते झेलते कई साल गुजार चुके हैं, लेकिन घर मिलने की आज तक उम्मीद नहीं जगी. ऐसे हालात में यही सवाल उठते हैं कि क्या अंडर कंस्ट्रक्शन फ्लैट लेना घाटे का सौदा है. 

घर खरीदारों की लंबी लड़ाई

 

हमारे देश में अंडर-कंस्ट्रक्शन फ्लैट बुक करना सिर्फ पैसों का फैसला नहीं, बल्कि कानूनी जोखिम भी है, मनीधन (Moneydhan) के सुजीत एसएस रियल एस्टेट रेगुलेटरी अथॉरिटी (RERA) की मुश्किलों को बताते हैं, जब प्रोजेक्ट रुक जाता है और खरीदार फंस जाते हैं. सुजीत ने लिंक्डइन पोस्ट में चेतावनी दी कि अगर बिल्डर निर्माण रोक देता है या अनिश्चितकाल के लिए देरी करता है, तो खरीदारों के सपने ही नहीं रुकते, बल्कि EMI, किराया और कानूनी खर्चे भी बढ़ते हैं, और तुरंत कोई समाधान नहीं मिलता. 

aajtak.in से बातचीत में Earth Towne प्रोजेक्ट की फ्लैट खरीदार 75 साल की श्रीदेवी बताती हैं कि उन्होंने 2010 में घर बुक कराया था. उनके पति ने जिंदगी भर की पूंजी इस घर में लगा दी कि रिटायरमेंट के बाद जिंदगी आराम से कटेगी.लेकिन बिल्डर की धोखाधड़ी की वजह से वो लोग आज तक लंबी लड़ाई लड़ रहे हैं.

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खरीदार अक्सर बड़ी उम्मीदों के साथ रेरा की ओर रुख करते हैं, लेकिन सुजीत इसे एक "कानूनी जाल" के रूप में बताते हैं, जो समय, पैसा और धैर्य बर्बाद करता है. केस दर्ज करने के लिए वकील की आवश्यकता होती है, जो अक्सर ₹1 से ₹1.5 लाख तक की अग्रिम फीस लेते हैं. इसके अलावा, दस्तावेज़ इकट्ठा करने और पहली सुनवाई के लिए महीनों इंतजार करना पड़ता है. जब सुनवाई शुरू होती है, तो बिल्डर अक्सर कार्यवाही को टालने के लिए स्थगन की मांग करते हैं या तकनीकी आपत्तियां उठाते हैं.

रेरा में केस एक लंबी प्रतिक्रिया


रेरा में केस दर्ज करना एक लंबी और महंगी प्रक्रिया है, बिल्डर अक्सर सुनवाई को टालने की कोशिश करते हैं, रेरा के फैसले को लागू करवाना एक चुनौती है. इस प्रक्रिया में तहसीलदार, तलाठी और राजस्व निरीक्षकों जैसे कई सरकारी स्तरों से गुजरना पड़ता है, जहां हर कदम पर देरी, फाइलों का गलत प्रबंधन या पूरी तरह से लापरवाही हो सकती है. सुजीत लिखते हैं -'तहसीलदार अक्सर RERA आदेशों को कम महत्व देते हैं, और खरीदारों को कई सरकारी दफ्तरों में कागजात के पीछे भागना पड़ता है.' 

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भले ही कलेक्टर कार्रवाई के लिए सहमत हो और संपत्ति कुर्की या नीलामी शुरू करे, इसका लागू होना निश्चित नहीं है. सुजीत कहते हैं- "आपको बिल्डर की संपत्ति की सूची तक पहुंच नहीं होती." बिल्डर अपनी संपत्ति को स्थानांतरित या छिपा सकते हैं, और संस्थागत समर्थन के बिना, वसूली के प्रयास सालों तक खिंच सकते हैं.  सुजीत की पोस्ट सिर्फ खरीदारों की निराशा को नहीं दर्शाती. यह भारत के रियल एस्टेट सेक्टर में नियम और उनके लागू होने के बीच के अंतर को उजागर करती है, जहां कागज पर जीत अक्सर जमीन पर न्याय में नहीं बदलती है.

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