कुरुक्षेत्र के मैदान में शोक से भरे हुए अर्जुन को श्रीकृष्ण ने कर्म का ज्ञान दिया और इसके महत्व को समझाते हुए कहा, कर्म को ही योग भी बताया. इस योग की कई तरह की व्याख्या करते हुए श्रीकृष्ण योगेश्वर बन जाते हैं और फिर वह अपना परिचय देते हैं. वह बताते हैं कि कौन हैं, किस तरह के तत्व हैं और सारे ब्रह्मांड में उनकी क्या भूमिका है? वह खुद को वृक्षों में पीपल, यक्षों में कुबेर, दैत्यों में प्रहलाद, देवताओं में इंद्र, औषधियों में अमृत, हाथियों में ऐरावत बताते हैं और इसी दौरान वह कहते हैं कि वेदों में मैं सामवेद हूं और समासों में द्वंद्व समास हूं.
गीता में खुद को सामवेद क्यों कहते हैं श्रीकृष्ण?
सवाल उठता है कि श्रीकृष्ण ने सामवेद को क्यों चुना और समासों में द्वंद्व समास को क्यों चुना? ऋग्वेद और यजुर्वेद के बाद सामवेद तीसरा सबसे बड़ा ग्रंथ है. जहां ऋग्वेद में ऋचाएं और मंत्र शामिल हैं, यजुर्वेद में यज्ञ की विधियां शामिल हैं तो वहीं सामवेद वैदिक देवताओं की स्तुति के लिए जाना जाता है. ये स्तुतियां संगीतबद्ध हैं, रागात्मक हैं और सुंदर स्वरों में गाए जाने लायक हैं. यही बात सामवेद को अन्य वेदों से अलग बनाती हैं. इसीलिए संगीत की उत्पत्ति सामवेद से मानी जाती है. संगीत का पहला स्वर षडज, जिसे सा कहकर गाया जाता है, इसी सामवेद का पहला अक्षर है. इसलिए योगेश्वर कृष्ण खुद वेदों में सामवेद बताते हैं.
गीता में वर्णित योग क्या है?
गीता अपने अध्यायों में योग की बात करती है. ये योग क्या हैं और इनका संगीत से क्या रिश्ता है. असल में योग का अर्थ है जुड़ाव. जिन दो वस्तुओं में जुड़ाव के बाद वह एक हो जाती हैं, लेकिन अपना अलग-अलग अस्तित्व भी बनाए रखती हैं तो उनकी बीच जो जुड़ाव है, वही योग है. यह योग ब्रह्नांड के हर दो तत्वों के बीच में हैं. दो ही क्यों, हर एक तत्व का दूसरे तत्व से योग है. आसान भाषा में भले ही योग को सिर्फ आसन के तौर पर समझा जाए, लेकिन यह सिर्फ शारीरिक आसन भर नहीं है, बल्कि संपूर्ण जीवन है. इसलिए संगीत भी किसी योग से कम नहीं है.
योग दिवस के साथ विश्व संगीत दिवस भी आज
आज जब विश्वभर में योग दिवस मनाया जा रहा है, तो यह नहीं भूलना चाहिए कि आज ही विश्व संगीत दिवस भी है, जिसे हर साल 21 जून को World Music Day के तौर पर मनाया जाता है और भारतीय मनीषा तो संगीत को हमेशा से योग की ही क्रिया मानती आई है क्योंकि जहां आसन और अभ्यास शारीरिक मजबूती के लिए जरूरी होते हैं तो इसी तरह मन के स्वास्थ्य के लिए और इसकी संतुष्टि के लिए संगीत जरूरी है.
शारीरिक गतिविधियों के साथ मानसिक आनंद भी है योग
योग केवल शारीरिक गतिविधियों तक सीमित नहीं है, बल्कि हृदय के भीतर तक और अनंत गहराइयों तक जाकर उसे न सिर्फ स्वस्थ बनाता है बल्कि आनंदित भी करता है. संगीत इसी योग का एक विस्तार ही है. इसीलिए भारतीय शास्त्रीय संगीत की मधुरता का इस्तेमाल कई रोगों के निदान के लिए हो रहा है और प्राकृतिक चिकित्सा में इसका अलग ही स्थान है. इसकी कठिनता, स्वरों को धीरे-धीरे साधने की युक्ति, ध्यान, अवस्था सभी क्रियाएं योग का ही एक अंग है.
संगीत के वाद्ययंत्रों पर भी गौर करें तो इसमें योग की क्रियाएं स्पष्ट रूप से झलकती हैं. भारतीय शास्त्रीय संगीत में वाद्य तीन प्रकार के हुोते हैं सुषिर वाद्य, ताल वाद्य और तंतु वाद्य. इन तीनों को बजाने का तरीका भी एक तरह का आसन ही है. फूंक मारकर बजने वाले वाद्य सुषिर वाद्य कहलाते हैं. इसी तरह तारों के जरिए स्वर उत्पन्न करने वाले वाद्य तंतु वाद्य और हथेलियों से थाप देकर बजाए जाएं तो ताल वाद्य कहलाते हैं. संगीत में इन तीनों का संयोजन योगासन की एक अलग ही प्रक्रिया को जन्म देता है.
अवस्था, स्थिति, आसन और साधना
संगीत की साधना के लिए सबसे पहली क्रिया अवस्था होती है. एक स्थिति में बैठना और अभ्यास के लिए ध्यान केंद्रित करना. इसके लिए पद्मासन और सुखासन में बैठना ठीक होता है. पालथी लगाकर, सुखासन की स्थिति में रीढ़ सीधी करके बैठना, किसी भी गायन के लिए पहली शर्त है. अगर आप ऐसा नहीं करेंगे तो स्वर नहीं साध पाएंगे. इस तरह पहले ही चरण में आप दो आसन, सुखासन और पद्मासन कर लेते हैं. पैर के तलवों के क्रॉस बनाते हुए दोनों जांघों पर उन्हें स्थित रखना पद्मासन कहलाता है. लंबे समय तक इस अवस्था में बैठे रहने से वही लाभ प्राप्त होते हैं जो योगासन के जरिए मिलते हैं.
फूंक वाले वाद्ययंत्रों के जरिए श्वसन योग
इसी तरह फूंक वाले वाद्ययंत्रों पर ध्यान दें, जिन्हें फूंक मारकर बजाया जाता है और श्वांस की साधना बेहद जरूरी हो जाती है. योग आसन की क्रिया में श्वांस के संतुलन का बहुत महत्व है, इसलिए योग में प्राणायाम का स्थान भी है. नाक के दोनों सुर, श्वसन नलिका और फेफड़े की मजबूती के लिए सांस का संतुलित होना जरूरी है और किसी भी एक वाद्ययंत्र के अभ्यास से श्ववसन से जुड़े आसन आसानी से हो जाती हैं. बांसुरी एक ऐसा वाद्य यंत्र है जो फूंक के लिए फेफड़े की क्षमता और सांस की गति पर ही आधारित है. बांसुरी बजाने से फेफड़ों पर जोर पड़ता है और वह मजबूत होते हैं.
इसी तरह शहनाई या अन्य फूंक वाले यंत्र भी इस काम में सहायक होते हैं. पूजा में प्रयोग होने वाला शंख तो सबसे बड़ा वाद्य यंत्र हैं, श्वांस का रोग होने पर आयुर्वेदिक चिकित्सक भी शंख बजाने के लिए सुझाव देते हैं. शंख बजाना किसी योग से कम नहीं. योगेश्वर श्रीकृष्ण ने बांसुरी बजाने के अभ्यास से खुद के बाहरी शरीर को ही नहीं, बल्कि अपने आंतरिक अंगों को भी मजबूत बनाया था. फूंक वाले वाद्य यंत्र से सांस मजबूत होती है, दम नहीं फूलता है.
तार वाले वाद्ययंत्र जो एक्युप्रेशर का काम करते हैं
जो वाद्ययंत्र तार की सहायता से बजते हैं, उनकी भी बात कर ली जाए. हमारी अंगुलियों के पोर और हथेलियों में कई बिंदुओं पर तंत्रिका तंत्र को नियंत्रित करने वाले पॉइंट्स होते हैं. मसाज और मालिश के दौरान इन्हीं Points पर प्रेशर दिया जाता है और यह एक्युप्रेशर बन जाता है. तार वाद्य बजाने से ये Points अपने आप ही एक्टिव होते हैं और इससे तंत्रिका तंत्रों की हल्की कसरत हो जाती है. यही वजह है कि तनाव, सिरदर्द, बेचैनी जैसी परेशानियों का हल सितार, गिटार, वीणा अपने आप ही कर देते हैं.
ताल वाद्य उत्पन्न करते हैं सकारात्मक तरंगें
इसी तरह ताल वाद्य की बात करें तो यह भी एक तरह की थैरेपी है. ताल वाद्य की बात हो तो सबसे पहले तो इसमें ताली बजाने को ही जोड़ लेना चाहिए. ताली बजाना सबसे सरल और सबसे आसान योग है. करतल ध्वनि के कारण सकारात्मक तरंगे उत्पन्न होती हैं जो उत्साह बढ़ाने वाले हार्मोन को बढ़ावा देती हैं. यह प्राकृतिक ही है कि किसी प्रस्तुति या खुशी के मौके पर हम खुद ही ताली बजाते हैं और खुशी को जाहिर करते हैं. ताल वाद्यों से हथेलियां मजबूत होती हैं, हथेली के प्रेशर पॉइंट पर एक्युप्रेशर होता है और पेट के रोगों में लाभ मिलता है. ताली के अलावा तबला-मृदंग, ढोलक इसी श्रेणी में आते हैं.
नृत्य है संपूर्ण व्यायाम
संगीत की बात हो रही है तो संगीत, बिना साज-बाज और नाच के अधूरा है. इसलिए नृत्य करना तो संपूर्ण आसन है. यह प्राचीन काल से योग से जुड़ी हुई पद्धति है. महादेव का तांडव, श्रीकृष्ण की रासलीला, देवी काली का काल नृत्य यह सभी इसकी सबसे उच्च श्रेणियां हैं. गति के साथ हाथों-पैरों, उंगलियों, मुख, आंखें और भाव की अलग-अलग मुद्रा सिर्फ शरीर के सभी अंगो का व्यायाम नहीं कराती है, बल्कि इन अंगों की एक-एक तंत्रिकाओं, ऊतकों, और कोशिकाओं का भी व्यायाम हो जाता है. नृत्य की विभिन्न मुद्राओं में आसन, ताल, थाप, श्वांस का एक बराबर संयोजन होता है.
सात स्वर, सात आवृत्तियां और सात व्यायाम
स्वर लगाते हुए संगीत लहरियां और रागमाला आंतरिक योग कराती है. स्वरों को सप्तकों में बांटा गया है और इन सप्तकों की संख्या तीन हैं. तीनों में ही सातों स्वर अपनी अलग-अलग आवृत्ति से मौजूद होते हैं. इन्हें मंद्र सप्तक, मध्य सप्तक और तार सप्तक कहते हैं. मंद्र सप्तक से पेट, मध्य सप्तक से फेफड़ा और हृदय व तार सप्तक से गला, मुख और मस्तिष्क का व्यायाम होता है. स्वरों के उतार-चढ़ाव की प्रक्रिया भी आसनों के लगातार बढ़ते-घटते क्रमों की ही तरह है.
रागों का समयकाल भी स्वास्थ्य के लिए लाभदायक
इसके अलावा रागों के लिए बनाए गए खास समयकाल भी स्वास्थ्य को लाभ प्रदान करता है. जैसे राग भैरव-भैरवी भोर के राग हैं. इनमें कोमलता होती है. राग भीमपलासी, वृंदावनी सारंग, कामोद ये सभी दोपहर के राग हैं और ऊष्मा बढ़ाते हैं. इनके गाने से शरीर के विषैले रस (टॉक्सिन) पसीना बनकर बाहर निकल आते हैं. राग बिलावल, खमाज, राग भूपाली सांझ समय के राग हैं. इस समय इनका गायन पाचन क्रिया को तेज करता है. राग जैजवन्ति, जौनपुरी, राग काफी यह सभी रात्रि में गाए जाने वाले राग हैं और तनाव को दूर करते हैं. हैपी हार्मोंन को बढ़ाते हैं और दिमाग को आराम व ठंडक पहुंचाते हैं.
ऋतुओं के अनुसार रागों का समय
रागों का समय ऋतुओं के अनुसार भी होता है. राग भैरव को शिशिर ऋतु में, राग हिंडोल और राग बसंत को वसंत ऋतु में, राग मल्हार, राग दुर्गा को वर्षा ऋतु में, मालकौंस को शरद ऋतु में और राग श्री के हेमंत ऋतु का निर्धारण किया गया है. राग सारंग, राग तिलंग, राग कामोद, भूपाली आदि रागों का गायन ग्रीष्मकालीन है. इन ऋतुओं में वात-पित्त-कफ के होने वाले असंतुलन को ये राग प्रभावित करते हैं और इनके असंतुलन से होने वाले रोगों का निदान करते हैं. आयुर्वेद की नजर में वात-पित्त-कफ का असंतुलन ही रोग की परिभाषा है. रागों को गाना और उन्हें सुनने से वात-पित्त-कफ संतुलित होते हैं.
सिर्फ मनोरंजन का साधन नहीं है संगीत
प्राचीन काल से ही संगीत केवल मनोरंजन का साधन नहीं रहा है, बल्कि वेदों से निकला यह ज्ञान स्वस्थ जीवन शैली का जरूरी हिस्सा रहा है.इसके साधकों ने इसे सिद्ध किया है, लेकिन सामान्य मनुष्य भी जीवन में इतना संगीत का ज्ञान तो रखता ही था कि वह उसके लिए दवा की तरह लाभकारी हो सके. हम जिस तरह की परिस्थिति और मनस्थिति में होते हैं तो उस समय उसी नेचर के गाने हमें पसंद आते हैं और हम सुनते हैं. इतनी बारीकी में न भी जाएं तो भी सोचिए, मां की लोरी में कितना गजब संगीत और कितना सुंदर आकर्षण होता है कि उसे सुनते ही शिशु नींद के आगोश में चला जाता है. लोरी सबसे प्राचीन संगीत थैरेपी है. सबसे पुराना आसन है और सबसे पुरानी योग पद्धति है जो आज भी कायम है.