साल था 1773... भारत का पूर्वी हिस्सा जो गंगा और ब्रह्मपुत्र की जलोढ़ मिट्टी से भरा-पूरा था, और बंग जनजाति की पवित्र भूमि था. संन्यासियों, साधुओं और मोक्ष की ये मिट्टी उस दौर में भयंकर अकाल से जूझ रही थी. भुखमरी और महामारी से दस लाख लोगों की जान जा चुकी थी. तिस पर ड्योढ़े लगान की मार ने रही-सही कमर भी तोड़ दी थी. किसानों और संन्यासियों के सहअस्तित्व की यह जमीन अंग्रेज आतताइयों से उबल पड़ी. पलासी के युद्ध को 20 साल भी न हुए थे कि बंगाल के संन्यासियों ने ढोल-मंजीरे रख दिए और हाथों में भाले-बरछियां सजा ली थीं.
जब 150 संन्यासियों को दी गई फांसी
वजह थी कि अंग्रेजों ने 150 संन्यासियों को अकारण ही एक ही दिन में क्रूरता से फांसी पर चढ़ा दिया. यह इतिहास की सबसे दुर्दांत घटनाओं में से एक है. इसके बाद संन्यासियों का विद्रोह सशस्त्र युद्ध में बदल जाता है और अंग्रेजों के विरुद्ध पहले जनआंदोलन के रूप में उभरता है.
बंकिम चंद्र चटर्जी ने लिखा था उपन्यास
इस संमन्यासी आंदोलन को लगभग 100 साल बाद बंकिम चंद्र चदर्जी ने शब्दों में पिरोया और जनआंदोलन की भावना को समेटने वाला पहला उपन्यास रचा गया 'आनंद मठ'. इस उपन्यास की कहानी में मां, माटी और मानुष की अवधारणा जिस तौर पर सामने आती है, वह एक देश-एक विचार और एक जैसे लोगों के एकजुट समाज को संगठित करने की पहली अवधारणा है. हालांकि बंकिम चंद्र चटर्जी ने मातृभूमि की कल्पना बंगाल की जमीन पर और इसी के रूप में की थी.
शाक्त परपंरा की भूमि और अथर्ववेद से निकला वंदे मातरम्
बंगाल शाक्त परंपरा का 'देश' है, इसलिए सहज भाव में ही बंगाल की भूमि को माता कहा गया. उन्होंने अथर्ववेद की एक सूक्ति को इसका आधार बनाया. जो कुछ ऐसी है. "माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः पर्जन्यः पिता स उ नः पिपर्तु".
यानी, "यह भूमि (पृथ्वी) हमारी माता है और हम सब इसके पुत्र (संतान) हैं. मेघ (पर्जन्य) हमारे पिता हैं और ये दोनों मिलकर हमारा पालन-पोषण करते हैं". इसी आधार पर उन्होंने इस जमीन का मानवीकरण किया और उसकी उपमा गढ़ते-गढ़ते इसे ही साक्षात दुर्गा के रूप में स्वीकार किया.
भूमि को माता मानने की पवित्र भावना जो सबको एक सूत्र में पिरोती चली गई
यह भावना इतनी पवित्र और इतनी व्यापक थी कि वह जल्दी ही लोगों के भीतर घर करती हुई उनकी आत्मा में बस गई और लोग समवेत सच्चे स्वर में 'वंदे मातरम्' का गान करने लगे. इस गीत ने स्त्रियों के भीतर भी बल भरा, उन्हें उनके अंदर के दैवीय स्वरूप से परिचित कराया, लिहाजा अंग्रेजों के खिलाफ होने वाले जनविद्रोह में महिलाओं ने इसी भावना से प्रेरित होकर बड़े पैमाने पर हिस्सा लिया. आनंद मठ उपन्यास में भी केंद्रीय नायिका, जिसका नाम कल्याणी है, पहले वह अपने पति से अलग होकर वन-वन भटक रही होती है और उपन्यास के क्लाइमैक्स तक पहुंचते-पहुंचते अदम्य साहस की मूर्ति बन जाती है.
कहानी आनंद मठ की...
अब आनंद मठ की कहानी भी संक्षेप में जान लेते हैं. आनंदमठ के पहले खंड में कहानी बंगाल के भीषण अकाल से ही शुरू होती है. लोग दाने-दाने के लिए तरस रहे थे. सब गांव छोड़कर यहां-वहां भाग रहे थे. एक तो खाने के लाले थे दूसरे किसानों को अंग्रेजों द्वारा लगान का दबाव उन्हें पीड़ित कर रहा था.
एक गांव है पदचिह्न. इसी गांव के रहने वाले महेन्द्र और कल्याणी अपने अबोध शिशु को लेकर गांव से दूर जाना चाहते हैं. यहां लूट-पाट-डकैती का भी आलम है. ऐसी ही एक रात कल्याणी जब अपने पति के साथ जान बचाने की चाहत में भाग रही होती है, तब सिपाही महेंद्र को पकड़ लेती हैं. कल्याणी जंगल में भटक जाती है. उधर, भवानन्द नाम का एक संन्यासी महेंद्र की रक्षा करता है.
भवानन्द उस अंग्रेज अफसर को मार देता है और अंग्रेजों से लूटे गए माल से अकाल से पीड़ित लोगों के रहन-सहन की व्यवस्था करता है. वहां दूसरा संन्यासी जीवानन्द पहुंचता है. भवानन्द और जीवानन्द दोनों सन्यासी, प्रधान सत्यानन्द के शिष्य हैं - जो ’आनन्दमठ‘ में रहकर देश सेवा में लगे हैं और संन्यासी आंदोलन को चला रहे हैं. महेन्द्र भवानन्द का परिचय जानना चाहता है, क्योंकि यदि भवानन्द न मिलता तो उसकी जान जा सकती थी.
भवानन्द उसे कुछ नहीं बताता है और एक रहस्यमयी मु्स्कान के साथ चला जाता है. महेंद्र आश्चर्य में है कि यह संन्यासी है या डकैत.... असल में उस वक्त अंग्रेजों ने संन्यासियों को डकैत घोषित कर रखा था और अंग्रेज अफसर डकैती उन्मूलन अभियान चला रहे थे. महेंद्र मठ में संन्यासियों द्वारा बचाए लोगों को देखता है. उनके दुख समझता है और द्रवित होता जाता है. उधर, भवानंद जो कि धीर-गंभीर और शांतचित्त संन्यासी है, वह इन सभी लोगों की द्रवित भावना को गीत में बदल देता है और पहली बार गाता है...
वंदे मातरम्, सुजलां सुफलां, मलयज शीतलाम्
शस्यश्यामलां मातरम्. वंदे मातरम्
बांग्ला में लिखा गया था राष्ट्रगीत
बांग्ला लिपि में लिखा गया यह उपन्यास और गीत पहले दो चरण में संस्कृत की लिपि के साथ है. फिर इसके बाद यह विशुद्ध बंगाली भाषा मे लिखा गया है. गीत जैसे-जैसे आगे बढ़ता जाता है, वैसे एक नारी का रूप एक देवी के तौर पर उभरता जाता है. गीत की भावना है कि हमें जो भी कुछ प्राप्त होता है. इसी मिट्टी और मातृभूमि से प्राप्त होता है.
क्या है गीत का मर्म?
जन्म, अन्न, शुद्ध जल, जलवायु, शु्द्ध प्राणवायु, घर, वस्त्र, वाणी, भावना, विद्या, तपस्या, बाहुबल, आत्मबल, आत्मशक्ति, आत्मसम्मान, पहचान, ईश्वरीय तत्व, मुक्ति और मोक्ष. यह सब देने वाली मातृभूमि सिर्फ मिट्टी का मैदान और कंकर-पत्थर की जमीन नहीं है. यह वही दुर्गा है जो हमारी रक्षा के लिए दशावतार लेती है. हमारे जैसे करोड़ों लोगों के कंठ से गूंजती आवाज में इसी देवी का नाद समाया हुआ है. जिससे शत्रु डरकर दूर भागते हैं वह हमारे गले से निकली हुंकार, इसी मातृभूमि देवी की हुंकार है.
दुर्गा और लक्ष्मी और सरस्वती से की गई मातृभूमि की तुलना
यही मातृभूमि कमला लक्ष्मी है, जो हमें धन-धान्य से भरा-पूरा रखती है. हमारी तरह-तरह की भाषा, बोलियां, हमारे अलग-अलग वस्त्र इसी की देन है. यह हमारी धरती, हमें धारण करने वाले है. हमारा भरण-पोषण करने वाली है. हम इसकी वंदना करते हैं. इसकी पूजा करते हैं. इसी की पूजा सभी देवों की पूजा है.
बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने साल 1882 में इस उपन्यास की रचना की थी. हालांकि उन्होंने बंदे मातरम् (यही बांग्ला में सही उच्चारण है) इससे पहले 7 नवंबर 1875 को बंग दर्शन में प्रकाशित किया गया था. सामने आते ही यह पुस्तक अपने कथानक के चलते पहले बंगाल और बाद में समूचे भारतीय साहित्य व समाज पर छा गई. इस गीत में बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने बंगाल की ही जमीन और उसकी ही जनभावना को केंद्र में रखते हुए गीत लिखा था, लेकिन इसकी केंद्रीय भावना समूचे भारत के लोगों से एक जैसी मिलती-जुलती है, इसलिए जल्दी ही यह हर किसी से जुड़ता चला गया और हर किसी को एक-दूसरे के साथ जोड़ता चला गया.
यहां पढ़िए हमारा पूरा राष्ट्रगीत वंदे मातरम्....
वन्दे मातरम्
सुजलां सुफलाम्
मलयजशीतलाम्
शस्यश्यामलाम्
मातरम्।
शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिनीम्
फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनीम्
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्
सुखदां वरदां मातरम्॥
सप्त-कोटि-कण्ठ-कल-कल-निनाद-कराले
द्विसप्त-कोटि-भुजैर्धृत-खरकरवाले,
अवला केन मा एत वले
वहुवलधारिणीं
नमामि तारिणीं
रिपुदलवारिणीं
मातरम्॥
तुमि विद्या, तुमि धर्म
तुमि हृदि, तुमि मर्म
त्वम् हि प्राणा: शरीरे
बाहुते तुमि मा शक्ति,
हृदये तुमि मा भक्ति,
तोमारई प्रतिमा गडी मन्दिरे-मन्दिरे॥
त्वम् हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमलदलविहारिणी
वाणी विद्यादायिनी,
नमामि त्वाम्
नमामि कमलाम्
अमलां अतुलाम्
सुजलां सुफलाम्
मातरम्॥
वन्दे मातरम्
श्यामलाम् सरलाम्
सुस्मिताम् भूषिताम्
धरणीं भरणीं
मातरम्॥
हिंदी भाव अनुवाद
मैं आपके सामने नतमस्तक होता हूँ। ओ माता!
पानी से सींची, फलों से भरी,
दक्षिण की वायु के साथ शान्त,
कटाई की फसलों के साथ गहरी,
माता!
उसकी रातें चाँदनी की गरिमा में प्रफुल्लित हो रही हैं,
उसकी जमीन खिलते फूलों वाले वृक्षों से बहुत सुन्दर ढकी हुई है,
हँसी की मिठास, वाणी की मिठास,
माता! वरदान देने वाली, आनन्द देने वाली।
अंग्रेजों ने लगाया था प्रतिबंध
अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह में इस गीत ने व्यापक असर डाला. क्रांतिकारियों ने जल्दी ही इस गीत को अपना एंथम बना डाला. वह कोई भी विद्रोह करते और जनभावना को इकट्ठा करने के लिए प्रथम पंक्ति, वंदे मातरम् को नारे की तरह इस्तेमाल करते. इस तरह यह वाक्यांश भारत की एकीकृत राष्ट्रीय भावना का प्रतीक बन गया और डरे हुए अंग्रेजों ने इस उपन्यास और इस गीत पर प्रतिबंध लगा दिया. इसलिए कई क्रांतिकारी तो सिर्फ इसलिए जेल भेज गए क्योंकि उन्होंने सार्वजनिक स्थानों पर वंदे मातरम् का उद्घोष किया था.