साल 1870 के दशक में ब्रिटिश हकूमत ने एक तुगलकी फरमान जारी किया. उन्होंने सरकारी समारोहों में ‘गॉड! सेव द क्वीन’ गीत गाया जाना अनिवार्य कर दिया था. उस वक्त ब्रिटिश प्रशासनिक सेवा में कई भारतीय अधिकारी भी थे. फरमान बंगाल की जमीन से ही आया था, इसलिए वहां इसे लेकर काफी सख्ती थी. यह बात सबसे अधिक नागवार गुजरी एक डिप्टी कलक्टर को, जो भारतीय था.
अंग्रेजी आदेश के खिलाफ में निकला वंदे मातरम्
अंग्रेजों के इसी आदेश और अनिवार्यता क्षुब्ध वह कलेक्टर उस रोज दफ्तर से निकल आया. सियालदह से ट्रेन ली और नैहाटी पहुंचने तक का सफर इन्ही विचारों से भरा रहा. रेलयात्रा के दौरान उमड़-घुमड़कर आते तमाम विचार शब्द बन गए और कागज-कलम का साथ पाते ही गीत के रूप में उभर आए. इस यात्रा में जो लिखा गया, वह सिर्फ एक गीत नहीं था. वह स्तुति थी, आरती थी, वंदना थी और राष्ट्र का संगठित भावना का मंत्र था. यह गीत वंदे मातरम् था, जो जन्मभूमि को प्रणाम करने और उसके प्रति आभार जताने का जरिया बना और आगे चलकर क्रांति की मशाल बन गया.
वंदे मातरम्, जिसके कुछ हिस्से भुला दिए गए
वह डिप्टी कलक्टर कोई और नहीं, वह थे महान लेखक, विचारक और पत्रकार बंकिम चंद्र चटर्जी. जिनका लिखा वंदे मातरम् गीत ब्रिटिशर्स के 'गॉड सेव द क्वीन का सुरमयी विरोध बना, जिसे अंग्रेजों ने डर के मारे बैन किया और आजाद भारत ने राष्ट्रगीत के तौर पर अपनाया, लेकिन.. विडंबना देखिए विवादों और आपत्तियों से यह गीत भी बच नहीं पाया. समय के साथ इसके दो भाग हो गए. एक जिसे राष्ट्रगीत का दर्जा मिला और दूसरा जो समय की परत के नीचे गुम होता गया और भारत की अधिकांश बड़ी जनसंख्या के स्मृति पटल से भुला दिया गया.
आज आजाद भारत के तमाम नागरिक यह नहीं जानते कि राष्ट्रगीत वंदे मातरम् सिर्फ दो पैराग्राफ तक सीमित नहीं है. इसमें चार अन्य पैराग्राफ भी हैं, जिन्हें राष्ट्रीय समारोहों में नहीं गाया जाता. आखिर इस गीत के बनने के बाद इसके राष्ट्रगीत के तौर पर शामिल होने और फिर इसके कुछ हिस्सों को लेकर क्या और कब से विवाद रहा, इस पर एक नजर डालते हैं.
कैसे लिखा गया था गीत?
बंकिम चंद्र चटर्जी ने यह गीत कब और किस प्रेरणा से लिखा इसका जिक्र उन्होंने आनंद मठ उपन्यास के तीसरे संस्करण में किया था. जहां उन्होंने अपनी इस क्षुब्धता का जिक्र किया था, जो उन्हें अंग्रेजी फरमान 'गॉड सेव द क्वीन की अनिवार्यता से हुई थी. इसीके जवाब में उन्होंने विकल्प के तौर पर संस्कृत और बांग्ला के मिश्रण से एक नये गीत की रचना की और उसका शीर्षक दिया - ‘वन्दे मातरम्’।
शुरुआत में इसके केवल दो ही पद रचे गये थे जो संस्कृत में थे. इन दोनों पदों में केवल मातृभूमि की वन्दना थी. इसे सबसे पहले उन्होंने अपने ही द्वारा निकाली जाने वाली पत्रिका बंग दर्शन में प्रकाशित किया था. बाद में जब 1882 में आनंद मठ उपन्यास की रचना उन्होंने की थी, तब मातृभूमि के प्रेम से ओतप्रोत इस गीत को भी उसमें शामिल किया था. यह उपन्यास अंग्रेजी शासन, जमींदारों के शोषण व प्राकृतिक प्रकोप (अकाल) में मर रही जनता को जागृत करने हेतु अचानक उठ खड़े हुए संन्यासी विद्रोह पर आधारित था. इस तथ्यात्मक इतिहास का उल्लेख बंकिम चंद्र चटर्जी ने बाद में कुछ अंग्रेजी पत्रिकाओं और पुस्तकों में भी किया था.
यानी यह गीत दो बार और दो बार में लिखा गया. उपन्यास में गीत को जब शामिल किया गया तब पहले दो पदों (पैराग्राफ) के बाद के पैरे उपन्यास की मूल भाषा बांग्ला में ही थे. बाद वाले इन सभी पदों में मातृभूमि की दुर्गा के रूप में स्तुति की गई है. यह गीत रविवार, कार्तिक सुदी नवमी, (अक्षय नवमी) शके 1797 (7 नवम्बर 1875) को लिखा गया था.
यहां देखिए गॉड! सेव द क्वीन की पंक्तियां
God save our gracious Queen,
Long live our noble Queen,
God save the Queen!
Send her victorious,
Happy and Glorious,
Long to reign over us;
God save the Queen!
वंदे मातरम गीत से कब क्या विवाद जुड़ा?
वंदे मातरम् गीत ने आजादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. कोई क्रांतिकारी देश के किसी कोने में वंदे मातरम बोलता था तो कलकत्ता से दिल्ली तक अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिल जाती थीं. बंगाल की क्रांतिकारी मातंगिनी हाजरा, गरम दल के सभी क्रांतिकारी और यहां तक कि नरम दल के नेता भी 'वंदे मातरम्' का उद्घोष सार्वजनिक तौर पर करते थे. अंग्रेज इससे घबराते थे, इसलिए उन्होंने इस पर प्रतिबंध लगा दिया था.
पीआईबी के एक नोट से इसकी पुष्टि होती है कि अंग्रेजों ने साल 1906 के अप्रैल में नए बने पूर्वी बंगाल प्रांत के बारीसाल में बंगाल प्रांतीय सम्मेलन के दौरान, वंदे मातरम के सार्वजनिक नारे लगाने पर रोक लगा दी थी. वह वंदे मातरम् से इतना घबराए कि उन्होंने सम्मेलन पर ही रोक लगा दी. आदेश की अवहेलना करते हुए, प्रतिनिधियों ने नारा लगाना जारी रखा और उन्हें पुलिस के भारी दमन का सामना मकरना पड़ा. इस तरह सार्वजनिक तौर पर वंदे मातरम् पर बैन की बात पहली बार सामने आती है.
कांग्रेस में पहली बार कब गाया गया 'वंदे मातरम्'
हालांकि वंदे मातरम् को पहली बार सामूहिक तौर पर कांग्रेस के 1896 के अधिवेशन में गाया गया था, जिसे गाने वाले खुद रवींद्र नाथ टैगोर थे. हालांकि, स्वाधीनता संग्राम में इस गीत की निर्णायक भागीदारी के बावजूद जब राष्ट्रगान के चयन की बात आई तो वन्दे मातरम् के स्थान पर रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा लिखे व गाए गए गीत जन गण मन को वरीयता दी गई. इसकी वजह यह बताई जाती है कि वंदे मातरम् के बाद के चार पैराग्राफ मातृभूमि की देवी दुर्गा की स्तुति के रूप में हैं.
जिससे यह सिर्फ शाक्त परंपरा प्रधान एक गीत में बदल जाता है. गीत की यह एक खूबी तो है, लेकिन फिर वह हिमालय से सागर तट तक फैले पूरी भारतीय भावना को समेटने में कमजोर साबित होता है और सिर्फ बंगाल तक सीमित रह जाता है. इस गीत में जिन प्रतीकों और जिन दृश्यों का ज़िक्र है वे सब बंगाल की धरती से ही संबंधित हैं.
देश की सामूहिक भावना से क्यों नहीं जुड़ पाता 'वंदे मातरम्'
इसके अलावा यह भी कहा गया कि यह देश में मुसलमानों और उनके अलावा अन्य पंथों को मानने वालों से भी अलग हो जाता है. जो इस एक जैसी भावना से नहीं जुड़ पाते हैं. इन आपत्तियों के मद्देनजर साल 1937 में कांग्रेस ने इस विवाद पर गहरा चिन्तन किया. जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में गठित समिति जिसमें मौलाना अबुल कलाम आजाद भी शामिल थे, ने पाया कि इस गीत के शुरूआती दो पद तो मातृभूमि की प्रशंसा में कहे गये हैं, लेकिन बाद के पद सिर्फ हिन्दू देवी-देवताओं तक सीमित रह जाते हैं. इसलिये फैसला लिया गया कि इस गीत के शुरुआती दो पदों को ही राष्ट्र-गीत के रूप में प्रयुक्त किया जाएगा.
बीबीसी की एक रिपोर्ट में दर्ज है कि, 'जब आज़ाद भारत का नया संविधान लिखा जा रहा था तब वंदे मातरम् को न राष्ट्रगान के रूप में अपनाया गया और न ही उसे राष्ट्रगीत का दर्जा मिला. लेकिन, संविधान सभा के अध्यक्ष और भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने 24 जनवरी 1950 को घोषणा की कि वंदे मातरम् को राष्ट्रगीत का दर्जा दिया जा रहा है.'
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का संविधान सभा को दिया गया वक्तव्य
'शब्दों व संगीत की वह रचना जिसे जन गण मन से सम्बोधित किया जाता है, भारत का राष्ट्रगान है. बदलाव के ऐसे विषय, अवसर आने पर सरकार अधिकृत करे और वन्दे मातरम् गान, जिसने कि भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका निभाई है, उसे जन गण मन के समकक्ष सम्मान व पद मिले. मैं आशा करता हूं कि यह सदस्यों को सन्तुष्ट करेगा. (भारतीय संविधान परिषद, द्वादश खण्ड, 24-1-1950)
एक और तथ्य
एक तथ्य यह भी है राष्ट्रगीत का दर्जा बंग दर्शन में प्रकाशित दो पैराग्राफ वाले पहले लिखे गए वंदे मातरम् गीत को मिला था. आनंद मठ उपन्यास में शामिल वंदे मातरम् को नहीं. हालांकि इस तथ्य को मजबूती इसलिए भी नहीं मिल पाती क्योंकि वंदे मातरम् की रचना एक ही गीत है.
1954 में बनी आनंद मठ पर फिल्म
साल 1954 में आनंद मठ उपन्यास पर आधारित इसी नाम से फिल्म भी बनी थी. प्रख्यात अभिनेता पृथ्वीराज कपूर इसमें मुख्य भूमिका में नजर आए थे. फिल्म संन्यासी विद्रोह, अंग्रेजों के अत्याचार और बंगाल की भूमि से निकली क्रांति को सामने रखती है और इस फिल्म में भी वंदे मातरम् गीत को शामिल किया गया था.
टूटे टुकड़े जो गुमनामी के बावजूद रहे जिंदा
वंदे मातरम् को दो पैराग्राफ के रूप में राष्ट्रगीत के तौर पर शामिल किया गया, और बाकी अन्य चार पैराग्राफ जो देवी दुर्गा के स्वरूप में भारत माता की स्तुति किया करते थे उन्हें भुला दिया गया. लेकिन यहां देशभर में संचालित सरस्वती शिशु मंदिर स्कूलों का जिक्र करना जरूरी हो जाता है, जिन्होंने इस गीत को अपने मूल स्वरूप में जीवित रखा है. शिशु मंदिर परंपरा के सभी स्कूलों में छुट्टी की घंटी बजते ही विद्यार्थी घर को नहीं भाग निकलते हैं, बल्कि वे एक साथ एक मैदान में इकट्ठा होते हैं और यहां एक साथ गाया जाता है 'वंदे मातरम्' जिसमें इसके सभी पैराग्राफ शामिल होते हैं. इस तरह यह गीत आज भी अपने संपूर्ण स्वरूप में जीवित है.