डॉ. किरण सिंह की एक कहानी है संझा. एक किन्नर के जन्म, उसका पालन-पोषण और फिर इसके साथ जीवन में आने वाली बाधाओं के बीच खुद के अस्तित्व को बचाए रखने की जद्दोजहद इस कहानी का विषय है. गुरुवार को श्रीराम सेंटर फॉर परफॉर्मिंग आर्ट्स में इसी कहानी पर आधारित एकल नाटक 'संझा, विवाह शिखंडी का' मंचन हुआ. मनीष शर्मा ने इस दौरान मंच पर 'शिखंडी यानी संझा' के किरदार को बहुत करीने से निभाया.
बल्कि इस मामले में एक्टर मनीष शर्मा की तारीफ हुई कि उन्होंने इस सोलो प्ले में 8 किरदार निभाए और सभी किरदारों में उन्होंने केंद्रीय पात्र को मनोभावों को बारीकी से रेखांकित किया. 'संझा, विवाह शिखंडी का' नाटक जब मंच पर उतरता है तो वह संझा के किरदार को पौराणिक किरदार शिखंडी के बराबर खड़ा करते हुए उसे और आला दर्जे का बना दिया है.
रहस्य के साथ हुआ संझा का जन्म
कहानी कुछ ऐसी है कि संझा का जन्म एक रहस्य के साथ होता है.वह न तो पूर्ण रूप से लड़का है, न लड़की. उसके पिता वैद्य जी और वैदाइन इस सच्चाई को गांव से छिपाने के लिए उसे घर की चारदीवारी में कैद रखते हैं, ताकि समाज की क्रूरता से उसकी रक्षा हो सके. इधर, वैदाइन की मृत्यु के बाद वैद्य जी संझा की परवरिश अकेले करते हैं, लेकिन उसकी पहचान को छिपाने का बोझ उन्हें लगातार डर में रखता है.
संझा, जो जंगल और औषधियों की दुनिया में रुचि रखती है, धीरे-धीरे बाहर की दुनिया को देखना चाहती है. वैद्य जी, सामाजिक दबाव में, उसका विवाह उस लड़के से कर देते हैं जो गांव के एक पुजारी का गोद लिया बेटा है. उसका अपना खुद का एक अतीत है. खैर, संझा और उसका पति दोनों एक-दूसरे के दर्द को समझते हैं और अपने बंधन को अनोखा बनाते हुए आगे बढ़ते हैं.
संझा अपनी औषधि विद्या और मेहनत से गांव वालों की जरूरत बन जाती है. वह जंगल से जड़ी-बूटियाँ लाकर लोगों की बीमारियों का इलाज करती है और धीरे-धीरे गाँव में सम्मान अर्जित करती है. लेकिन जब उसकी ट्रांसजेंडर पहचान उजागर होती है, गांव वाले उसे अपवित्र मानकर अपमानित करने की कोशिश करते हैं. संकट की इस घड़ी में संझा अपनी ताकत और साहस दिखाती है और फिर एक-एक करके गांव वालों उनके असली सच से रूबरू कराती है. वह कहती है कि वह न मर्द है, न औरत, बल्कि दोनों का समन्वय है, और उसकी औषधियों में अमृत जैसी शक्ति है.
कहानी का अंत संझा के साहस और आत्मसम्मान के साथ होता है, जहां वह अपनी पहचान को स्वीकार करते हुए समाज के सामने खड़ी होती है. यह कहानी सामाजिक रूढ़ियों, लैंगिक पहचान, और मानवीय संवेदनाओं के बीच टकराव को उजागर करती है, साथ ही यह दर्शाती है कि प्रेम, साहस, और उपयोगिता के बल पर कोई भी व्यक्ति अपने लिए जगह बना सकता है. कहानी का कथन एक दैवीय दृष्टिकोण से शुरू होता है, जो भाग्य और मानव जीवन के दुख को एक नई नजर से देखता है, और संझा की कहानी को एक अनोखे दुख के रूप में सामने लाता है. इस सोलो नाटक को राजेश तिवारी ने निर्देशित किया है. मंच पर संझा के किरदार को उभारने में उन्होंने एक भाव-भाव को सजीव बना दिया है. नाटक के अंत में संझा के साहसिक तेवर ने दर्शकों से खूब तालियां बटोरीं.