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GHALIB in New Delhi... आज होते गालिब तो क्या होता? नाटक जो बन गया बदलती दिल्ली की टाइमलाइन

डॉ. एम सईद आलम का लिखा हुआ और उनके ही निर्देशन में सजा हुआ यह हास्य नाटक इतना समसामयिक है कि साल 1997 से शुरु हुआ इसके मंचन का सिलसिला आज तक मौजूं हैं. नाटक अपनी परिस्थितियों से ही हास्य पैदा करता है और ये परिस्थितियां वो होती हैं जिनसे खुद दर्शक भी रूबरू हो रहा होता है.

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गालिब इन न्यू दिल्ली में गालिब के किरदार में दिखे डॉ. एम सईद आलम
गालिब इन न्यू दिल्ली में गालिब के किरदार में दिखे डॉ. एम सईद आलम

मंच पर अंधेरा है. दृश्य तैयार हो रहे हैं, दर्शक दीर्घा की आंखें स्टेज की ओर हैं. शाम के सात-सवा सात बजे हैं और धीरे-धीरे स्टेज पर रौशनी बढ़ती जाती है. नजर आता है कि सामने मंच पर एक पान वाली का ठीहा है और उधर ही मुंह फेरकर बैठे हैं गालिब. यानी मिर्जा नौशा, यानी मिर्जा असदउल्ला खां गालिब. उनकी ही बातों से पता चलता है कि वो गालिब हैं और अल्लाह मियां के रहम से एक बार फिर दिल्ली आ गए हैं.

150 सालों में कितनी बदली दिल्ली?
लेकिन, जिस नए जमाने की दिल्ली में मिर्जा गालिब की आमद हुई है, वह काफी बदल चुकी है. जिस दिल्ली में उनकी ससुराल रही, जहां बादशाह जफर के दरबार में उन्होंने कई शेर और गजल पढ़े और जो दिल्ली कभी अदब की पैरोकार रही थी, इस नए जमाने में वो कितनी बदल गई, वहां की भाषा-बोली, जुबां में क्या-कितना फर्क आ चुका है, इन बदलावों का नाट्य रूपांतरण है नाटक,'GHALIB in New Delhi' (नई दिल्ली में गालिब)

'GHALIB in New Delhi' नाटक का मंचन
बीते रविवार को NCUI ऑडिटोरियम ही वह जगह बनी, जहां गालिब की दिल्ली गुलजार हुई. डॉ. एम सईद आलम का लिखा हुआ और उनके ही निर्देशन में सजा हुआ यह हास्य नाटक इतना समसामयिक है कि साल 1997 से शुरु हुआ इसके मंचन का सिलसिला आज तक मौजूं हैं. नाटक अपनी परिस्थितियों से ही हास्य पैदा करता है और ये परिस्थितियां वो होती हैं जिनसे खुद दर्शक भी रूबरू हो रहा होता है. करंट अफेयर्स, ताजा खबरें, नए राजनीतिक बदलाव और सामाजिक ढांचों के रद्दोबदल ही इस प्ले के कंटेंट हैं. बीच-बीच में गालिब के किरदार को निभाने वाले डॉ. आलम जब दर्शकों के बीच गालिब की शायरी की पैरोडी करते हुए पहुंचते हैं तो ये इस प्ले का प्लस पॉइंट बन जाता है. इस तरह नाटक लोगों के बीच असरकारी बन जाता है और देखते ही देखते दर्शक कब इस मंच का हिस्सा बन जाते हैं, पता ही नहीं चलता है.

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Ghalib in New Delhi

अब एक ही वक्त पर दर्शक, दर्शकदीर्घा में भी बैठे हैं और उसी वक्त में मंच का हिस्सा भी हैं और फिर यह कल्पना सार्थक होने लगती है कि 19वीं सदी का एक शायर जो शायद तब न भी मशहूर रहा हो और वो आज की दिल्ली में पहुंच जाए, जब उसकी मशहूरियत के किस्से जर्रे-जर्रे में है तो क्या होगा? 1997 से शुरू हुए इस प्ले ने अपनी पहली दफा के मंचन से लेकर आजतक हर बार कुछ न कुछ बदल लिया है, बल्कि हर साल-छह महीने में जब इस प्ले का मंचन होता है तो नाम वही रहता है, लेकिन संवाद बदल जाते हैं, इस तरह यह प्ले दिल्ली के जरिए, देश-दुनिया में हुए बदलावों का एक इंडेक्स भी है. 

नई ताजा हुई घटनाओं से रचा गया नाटक
अभी हाल ही में हुए प्ले में, इंदौर की सोनम रघुवंशी कांड, मेरठ का ड्रम कांड, ऑपरेशन सिंदूर, पाकिस्तान, सीमा हैदर, इजरायल-ईरान, रूस, ट्रंप, अमेरिका जैसे ताजातरीन मामले संवादों का हिस्सा बने. जो लोग दिल्ली से परिचित हैं, उन्होंने बल्लीमारान की उस तंग गली को ज़रूर देखा होगा या सुना होगा, जहां गालिब ने अपनी शायरी से बुलंदी हासिल की, लेकिन इस प्ले में गालिब का वास्ता दिल्ली के ISBT वाले हिस्से, जमुनापार वाले इलाके और पूर्वी दिल्ली की उस बसावट से होता है, जो दिल्ली में बदलावों की सबसे बड़ी कहानी कहते हैं. लेकिन, इस बात को समझना मुश्किल है कि गालिब चांदनी चौक, बल्लीमारां की उस गली तक नहीं पहुंच सके, हंसते-ठहाके लगाते हुए दो-सवा दो घंटे इस इंतजार में बीतते हैं कि क्या मिर्जा नौशां अपनी हवेली तक पहुंच पाएंगे. 

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...लेकिन गुदगुदाती है उम्मीद से परे भाषा-शैली
जब आप एक भरे हुए थिएटर में बैठते हैं, यह उम्मीद करते हुए कि आपको शुद्ध उर्दू संवाद और पुराने ज़माने की परिस्थितियां देखने को मिलेंगी, लेकिन इस उम्मीद की जगह को ठहाकों से रिप्लेस कर दिया जाता है और गालिब की तकलीफों में आप अपनी तकलीफों को समझ पाते हैं, उनता व्यंग्य बुझा नश्तर आपको जितना चुभता है, आप उतनी जोर से हंसते हैं और वाह गालिब-वाह गालिब करते हैं. खासतर तब जब आप गालिब को अंग्रेज़ी से जूझते देखते हैं. सिर्फ अंग्रेजी ही नहीं, बल्कि कुछ बहुत प्रचलित हरियाणवी शब्द भी गालिब के लिए नए हैं. जैसे गेर दो, इंगे आओ, उंगे जाओ, अल्ली-पल्ली तरफ.

नए जमाने में भटक रहे गालिब को एक ठिकाना मिलता है, यूं ही राह चलते एक बिहारी नौजवान के पास. इस नौजवान का किरदार भी समय के साथ बदलता रहा है. कभी वह डीयू छात्र था, कभी एमएनसी वर्कर तो अब वह प्रशासनिक सेवा की तैयारी के लिए आया युवा है.  नाम उसका जयहिंद है और वह लक्ष्मी नगर में मिसेज चड्ढा के मकान में रहता है. वह गालिब को अपने साथ अपना रूम पार्टनर बनाकर ले जाता है. दिल्ली की विविधता को तीन मुख्य पात्रों की भाषाओं के अंतर से दिखाया गया है. 

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दिल्ली... जिसके एक कोने में बिहार भी बसता है
जय हिंद बिहारी बोली बोलता है, मिसेज चड्ढा पंजाबी में दिल्ली की स्लैंग के साथ बात करती हैं, और गालिब अपनी शुद्ध उर्दू लाते हैं. भाषाई बाधाओं से उत्पन्न भ्रम और हास्य यह भी दर्शाता है कि देश के हर कोने से आए लोग दिल्ली को अपना घर बनाते हैं. संवादों और घटनाओं का हास्यपूर्ण समयबद्धन पहला ऐसा तथ्य है जो आपको नाटक से जोड़ता है. गालिब का दिल्ली में एक प्रवासी और उनकी मकान मालकिन के साथ अनुभव ही काफी नहीं, नाटक में गालिब शहर की पेज 3 हस्ती भी बन जाते हैं.

गालिब... बदलावों की समय यात्रा
डॉ. आलम मिर्ज़ा गालिब की महत्वपूर्ण भूमिका में विश्वसनीय भी हैं और वह अपने एक्ट से हास्यप्रद लगे हैं इसलिए सार्थक भी हैं. नाटक के अन्य अभिनेता भी अपनी-अपनी भूमिकाओं को खूबसूरती के साथ निभाते हैं. नाटक का मुख्य आकर्षण है 19वीं सदी की दिल्ली की मशहूर शख्सियत को आज की दिल्ली में लाना. शायद गालिब ने दिल्ली को अलग नज़रिए से देखा था, लेकिन निर्देशक की तुलनात्मक टिप्पणियां हमें दिखाती हैं कि समय हमें कैसे आकार दे रहा है, और क्या स्वीकार्य होना चाहिए या नहीं. भले ही आपने गालिब को पढ़ा हो या नहीं, लेकिन नाटक आपको गालिब के साथ-साथ खुद को और बदलते हुए समय को भी पढ़ना सिखाता है.

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Ghalib in New Delhi

28 सालों से लगातार बदल रही है स्क्रिप्ट
डॉ. एम सईद आलम इस नाटक को लेकर अपनी बात करते हुए कहते हैं कि, इस नाटक को रचने की प्रेरणा उर्दू अदब के प्रति प्रेम से मिली. वह कहते हैं कि वक्त-वक्त पर हो रहे तमाम सामाजिक-राजनीतिक बदलाव और घटनाएं ही इसकी आत्मा हैं. नाटक के लगातार बदलते स्क्रिप्ट की चर्चा करते हुए आलम ने पुरानी कुछ घटनाओं को याद किया. उन्होंने बताया, "जब नाटक शुरू हुआ था, तब इसमें एक दृश्य था जिसमें गालिब तत्कालीन प्रधानमंत्री एच डी देवे गौड़ा को उर्दू पढ़ाते हैं. बाद के दिनों में न देवेगौड़ा पीएम रहे और न ही उस समय के राजनीतिक समीकरण, लिहाजा हर बार जब गालिब आते हैं तो उन्हें नई तरह की दिल्ली देखने को मिलती है. 

बाहदुर शाह ज़फर, अंतिम मुगल बादशाह, ने गालिब को अपनी कविता का शिक्षक और बाद में अपने दरबार का शाही इतिहासकार नियुक्त किया था. आलम के अनुसार, गालिब इन न्यू दिल्ली पिछले 28 वर्षों में दिल्ली के बदलावों को तीन मुख्य श्रेणियों में दर्शाता है - राजनीति, भूगोल और भाषा. कई दृश्य जो शुरू में शामिल किए गए थे और बाद में हटा दिए गए, आज भी प्रासंगिक हैं. उदाहरण के लिए, एक दृश्य में गालिब को उनकी हवेली का कब्ज़ा नहीं मिल पाता, भले ही सरकार मान लेती है कि वह गालिब ही हैं, क्योंकि उनके पास आधुनिक पहचान का कोई सबूत नहीं है. एक अन्य हटाया गया दृश्य गालिब की प्रेस कॉन्फ्रेंस का था, जो 1990 के दशक के अंत के राजनीतिक और सिनेमाई घटनाक्रमों को दर्शाने का अवसर था. एक और दृश्य में गालिब को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार माना गया था, जो उस समय की गठबंधन राजनीति का प्रतीक था. 

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हर बार होता है समसामयिक घटनाओं का जिक्र
नाटक शुरू होते ही हंसी-ठहाकों का माहौल बन जाता है, जिसमें दिल्ली के सबसे सम्मानित प्रतीकों में से एक, गालिब, और दर्शकों के बीच एक आंतरिक मज़ाक साझा होता है. आलम कहते हैं, 'मुझे यह सोचना पड़ता है कि हाल की कौन सी घटनाएं जोड़ी जा सकती हैं, क्या दर्शकों को प्रभावित नहीं करेगा और क्या अभी भी उनके अवचेतन में है.' दिसंबर 2022 में तो उन्होंने 'भारत जोड़ो यात्रा और शाहरुख खान की फिल्म पठान के जिक्र को भी संवादों में शामिल किया था, जिसे दर्शकों ने खूब सराहा था. 

बाद के संस्करणों में, गालिब का रूममेट, एक दिल्ली विश्वविद्यालय का छात्र, दिल्ली और देश के समकालीन हालात से गालिब को परिचित कराने का माध्यम बनता है. नाटक के अंतिम दृश्य तक गालिब राजनीतिक और सामाजिक मोर्चों पर पूरी तरह वाकिफ हो जाते हैं. इस दौरान वह फोन पर नए बदलावों की जानकारी दे रहे होते हैं. यह पूरा सीन तो हर बार ही अपडेट होता है. कभी इसमें सीएए को शामिल किया गया, कभी किसान आंदोलन की बात जोड़ी गई. कोविड का भी जिक्र किया गया. अब नए दौर में AI, जैमिनाई, चैटजीपीटी की बात शामिल की गई है. 

नाटक का सेट डिज़ाइन सरल है, जिसमें बिस्तर, कुर्सियां और एक पानवाले की गुमटी जैसे प्रॉप्स हैं, जिन्हें दृश्यों के बीच ज़रूरत के अनुसार बदला जाता है. गालिब का परिधान उनकी ऐतिहासिक शैली में है - उनका खास लंबा कुरता और टोपी. हास्य के अलावा, नाटक यह भी चेक करता है कि उनके जो दर्शक हैं, उनकी गालिब में असल में कोई दिलचस्पी है भी या यूं ही दिल्लगी कर रहे हैं. गालिब एक शायरी शुरू करते हैं और दर्शकों को उसे पूरा करने के लिए रुकते हैं, जिसे दर्शक उत्साहपूर्वक पूरा करते हैं. 

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अंतिम दृश्य में, गालिब अपनी पारंपरिक पोशाक और दाढ़ी छोड़कर आधुनिक, साफ-सुथरे लुक में नज़र आते हैं. यह लगभग दर्शकों के साथ एक संवाद जैसा लगता है, जहां गालिब एक आधुनिक भारतीय बनकर अपने अनुभवों के बारे में एकालाप करते हैं, और दर्शक अक्सर हंसते हुए उनकी बातों को समझते हैं. पुनर्जन्म में गालिब को शहर में बोली जाने वाली नई भाषा से जूझना पड़ता है. 28 वर्षों में यह भाषा हिंदी और उर्दू के मिश्रण से बदलकर पंजाबी और हिंग्लिश (हिंदी और अंग्रेजी का मिश्रण) की ओर बढ़ी है. अब जो Gen Z नाम की नई जेनरेशन आ गई है, उसका भाषा बोध तो और अलग है, गालिब कुछ जगहों पर उससे भी दो-चार होते हैं. यह सब नाटक के समकालीन पात्रों की बोली में झलकता है.

छाप छोड़ते हैं अन्य पात्र
नाटक गालिब इन न्यू दिल्ली में विभिन्न पात्रों की भूमिकाएं भी याद रह जाती हैं. पान वाली और मिसेज चड्ढा की भूमिका अंजू छाबड़ा ने निभाई है. बस कंडक्टर और शराबी का किरदार हिमांशु श्रीवास्तव ने जीवंत किया. दूसरे बस कंडक्टर और जय हिंद की भूमिका हरीश छाबड़ा ने अदा की. विज्ञापन निर्माता का किरदार आरिफा नूरी ने निभाया, जबकि ऑटो चालक और दिल्ली पुलिस की भूमिकाओं में राघव नागपाल दिखे. रिक्शा चालक की भूमिका में तनुल नजर आए. नाटक के संगीत और प्रकाश व्यवस्था का जिम्मा पूर्वा खेत्रपाल ने संभाला है.

विश्वभर के राजनीतिक परिदृश्य का दर्पण
नाटककार के रूप में आलम खुद को तटस्थ पर्यवेक्षक मानते हैं. नाटक का स्क्रिप्ट वर्तमान शासन और विपक्ष दोनों की हास्यपूर्ण आलोचना करता है. इस तरह, नाटक स्पष्ट राजनीतिक निर्णयों से बचता है. आलम कहते हैं कि व्यंग्य हमेशा वर्तमान व्यवस्था के खिलाफ होगा, और उनका नाटक केवल शहर में हो रहे बदलावों को दर्शाता है. वह कहते हैं कि नाटक की सफलता और इसके लंबे समय से जारी रहने का कारण इसकी लगातार बदलती स्क्रिप्ट है. यह नाटक केवल हास्य नहीं, बल्कि एक व्यंग्य है. यह विश्व के राजनीतिक परिदृश्य का दर्पण है. छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी घटना को इतने हल्के-फुल्के अंदाज़ में दिखाया जाता है कि दर्शक खुश भी होते हैं और दुखी भी, इसीलिए यह सदाबहार नाटक है, और अगले कई सालों तक अपनी इसी खूबी के कारण ये जिंदा भी रहेगा. 

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